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बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका

बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा सकता है।
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बाजारवादी और उपभोक्ता संस्कृति के वर्चस्व से जूझ रही जनपक्षीय कला को कॉर्पोरेट संस्कृति द्वारा ‘प्रोफेशनलिज़्म’ के नाम पर क्षुद्र व्यावसायिकता की गर्त में धकेलकर एक कलाकार की कल्पनाशीलता को ग्लैमर के झूठे संसार में डुबो दिया जा रहा है। यदि किसी कलाकार को सत्ता-संस्कृति प्रतिष्ठानों अथवा किसी स्पान्स्सर कम्पनी की अनुकम्पा नहीं प्राप्त है तो वह अपनी मौलिक रचनात्मकता व कला की प्रतिभा को प्रदर्शित ही नहीं कर सकता। गरीबी व अभावग्रस्तता का सामना कर रहा कलाकार ‘पद, पैसा और पुरस्कार’ के मोहपाश में फंसने को अभिशप्त बना दिया जा रहा है। निम्न आय पृष्ठभूमि तथा निम्न मध्यवर्ग से आनेवाले वाले कलाकारों के लिए तो अस्तित्व रक्षा ही मुख्य चुनौती है। ऐसे में भी यदि कोई चित्रकार-कलाकार जीवनपर्यंत जनता और उसके जीवन संघर्षों से जुड़कर अपने ‘रंग और कूची’ से कलात्मक अभिव्यक्ति देता है तो सचमुच वह ‘कला जीवन के लिए’ को सार्थक बनाता है।

बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा सकता है। जिन्होंने सत्ता-संस्कृति का दरबारी बनने और जुगाड़ू कलावादियों से परे जनता का अपना कलाकार बनने को ही एक कलाकार का लक्ष्य माना। लेकिन इसी 18 मई को हुई उनकी अकाल मौत ने उन्हें सबसे छीनकर व्यापक वामपंथी कतारों और जन सांस्कृतिक धारा को निःशब्द सा बना दिया।

मीडिया की ताज़ा ख़बरों के अनुसार भोजपुर की पुलिस अभी तक उस ट्रैक्टर और फरार चालक का कोई पता नहीं लगा सकी है जिसने 18 मई की सुबह राकेश दिवाकर को बुरी तरह से कुचलकर फरार हो गया था। उनके साथ बाइक पर सवार सहकर्मी राजेश ठाकुर भी हादसे का शिकार हो गए। वे दोनों आरा सदर से सटे पवना सरकारी हाई स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत थे और हर दिन की भांति 18 मई की सुबह भी दोनों स्कूल ड्यूटी में जा रहे थे। इसी दौरान उदवंत नगर इलाके के आरा-अरवल मार्ग पर एकौना मध्य विद्यालय के पास अनियंत्रित रफ़्तार से आ रहे बालू लदा ट्रैकर उन्हें रौंदते हुए फरार हो गया। हादसे में दोनों युवा शिक्षकों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। 

इस ह्रदय विदारक काण्ड की खबर मिलते ही दोनों के परिजनों समेत भाकपा माले विधायक व पार्टी के वरिष्ठ नेता-कार्यकर्त्ताओं के अलावे नागरिक समाज के गणमान्य लोग घटनास्थल और अस्पताल पहुँचने लगे। अस्पताल के डॉक्टर ने दोनों को मृत घोषित कर पुलिस के निर्देशनुसार उनके शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया।

उधर घटना की खबर सुनकर पुरे इलाके के शोकाकुल लोगों का जुटान होने लगा। अंतिम संस्कार के समय राकेश दिवाकर जी को एक कम्युनिष्ट कॉमरेड का सम्मान देते हुए पार्टी का लाल झंडा ओढ़ाकर श्रद्धांजली दी गयी। भाकपा माले संस्थापकों में प्रमुख रहे पार्टी पोलित ब्यूरो सदस्य कॉमरेड स्वदेश भट्टाचार्य, माले विधायक सुदामा प्रसाद,अजित कुशवाहा व मनोज मंजिल, युवा नेता राजू यादव, पार्टी मुखपत्र संपादक व राकेश दिवाकर के घनिष्ठ रहे संतोष शहर समेत कई अन्य वरिष्ठ लेखक-कलाकारों  ने अंतिम संस्कार में भागीदारी निभायी। स्थिति और भी भावुकता भरी हो गयी जब दिवाकर जी के छोटे बच्चों ने भी अपने पिता के शव पर शोक के फूल चढ़ाये।

सोशल मीडिया में तो इस हादसे से शोकाकुल वामपंथी दलों के नेताओं व जन संस्कृति मंच समेत सभी वाम सांस्कृतिक संगठनों के अलावे अशोक भौमिक समेत कई जाने माने चित्रकारों और लेखक-कवि-कलाकारों की शोक संवेदनाएं लगातार आती रहीं। जिनमें राकेश दिवाकर जी की कलाकृतियों की तस्वीरों के साथ सबों ने उनसे जुड़े संस्मरण-अनुभवों को साझा किया। दूसरे दिन सभी अखबारों ने भी दोनों युवा शिक्षकों के असामयिक मौत की खबर को प्रमुखता दी।

19 मई को राजधानी पटना स्थित ललित कला अकादमी ने भी अपने कार्यालय में शोक सभा का आयोजन कर श्रद्धांजलि दी। 20 मई को बेगूसराय में जसम की ओर राकेश दिवाकर जी की स्मृति में शोक सभा की गयी।  

भाकपा माले के राष्ट्रिय माहासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने गहरी पीड़ा के साथ याद करते हुए अपने सोशल मिडिया पोस्ट में लिखा है कि- भोजपुर के क्रांतिकारी संघर्षों को अपनी चित्रकला से अभिव्यक्त करनेवाले पार्टी के सक्रिय संस्कृतिकर्मी राकेश दिवाकर ने ‘चित्रकला जनता के आन्दोलनों की मुखर आवाज़ हो सकती है’ को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर संभव कर दिखाया। इसके पीछे पार्टी के संघर्षों से उनका आत्मिक संवेदनात्मक जुड़ाव के साथ साथ आधुनिक चित्रकला के गहन अध्ययन की भूमिका रही। उन्होंने चित्रकला के इतिहास से खोजकर उसके आन्दोलान्त्मक पहलू से लोगों को अवगत कराया। आधुनिक चित्रकला व खासकर जनपक्षीय चित्रकला की गहरी समझ रखनेवाले बिहार के वे महत्वपूर्ण कलाकार थे। हाल के समय में समकालीन युवा कलाकारों की कला पर लगातार समीक्षाएं लिखकर राष्ट्रिय स्तर पर सबका ध्यान खींचा। वे एक अच्छे सांस्कृतिक संगठक और कलाकार भी रहे। भोजपुर में जब सामंती-सांप्रदायिक शक्तियां जनसंहारों को अंजाम दे रहीं थीं तब राकेश ने जगह जगह चित्र प्रदर्शनी लगाकर उसका विरोध किया था। जनता के हर संघर्ष के मौकों पर वे ‘रंग और कूची’ के साथ हाज़िर रहते थे।

बिहार के चर्चित चित्रकार रविन्द्र दास ने लिखा है कि- देश में कला पर लिखनेवाले बहुत कम हैं और हिंदी में तो बिलकुल नहीं के बराबर। ऐसे में अगर किसी प्रतिभावान कवि, रंगकर्मी, कला लेखक और चित्रकार की असमय मौत हो जाती है तो समूचे हिंदी प्रदेश के कलाकार दुखी हो जाते हैं। वे आरा आर्ट कॉलेज से प्रशिक्षित एक बेहतरीन कलाकार थे जो आरा में ही रहे और एक स्कूल में कला शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे। एक चित्रकार के रूप में वे कई वर्षों से लगातर मोटी,तीव्र और लयात्मक रेखाओं पर आधारित रेखांकन व उन्हीं में चटख रंगों का प्रयोग कर अपनी एक ख़ास शैली बना ली थी।

राकेश दिवाकर के इसी प्रयोगधर्मिता को रेखांकित करते हुए दशकों से उनके अन्तरंग साथी व भोजपुर के जन सांस्कृतिक सह्योद्धा रहे चर्चित युवा साहित्यकार सुधीर सुमन हर दिन के पोस्ट में अपने प्रिय मित्र की जन पक्षीय कला प्रतिभा को सामने ला रहे हैं। जिनमें उनकी बनायी कृतियों की तस्वीर साझा करते हुए लिखते हैं कि- जब बेगुनाह बच्चों, महिलाओं, दलित और खेत मजदूरों का कत्लेआम किया जा रहा था तब राकेश दिवाकर ने ‘कला कम्यून’ जैसा चित्रकारों का संगठन बनाकर उसके विरोध में जगह जगह चित्र प्रदर्शनियां लगायीं। खुद अपनी चित्रकला को जनता व जन संघर्षों से जोड़ा तथा युवा चित्रकारों की ऐसी ही नयी पीढ़ी का भी निर्माण किया। वर्तमान की कला जगत की स्थितियों पर राकेश दिवाकर जी उक्तियों की भी चर्चा सामने लाते हैं कि- समकालीन कला अपने जीवित रहने की चुनौती समाधान का रास्ता ढूँढती है भव्य सजावट वाली आर्ट गैलरियों और आर्ट डीलर मेट्रोपॉलिटन शहरों में केन्द्रित होकर। जन संस्कृति में जगह बनना चुनौतिपूर्ण है।

अपने एक अन्य पोस्ट में सुधीर सुमन राकेश दिवाकर के बेलौस-फक्कड़ अंदाज़ की चर्चा करते हैं कि- उम्दा आर्ट कागजों के अभाव में राकेश कई बार अखबार के पन्नों पर ही रंग और कूची लेकर काम करने लगते थे। पिछले साल के एक पोस्ट को दुबारा साझा करते हुए लिखते हैं कि- अभाव, दरिद्रता, कंगाली और बदहाली भरे घोर विषम समाज में कोई निम्न मध्यवर्गीय आदमी आखिर स्वस्थ और चिंतामुक्त रहे भी तो कैसे? बहरहाल, बात यह है कि आज मामला अपने शबाब पर था। रंग और ब्रश का जुगाड़ कर लिया गया था और कागज़ के लिए पुराना अखबार निकाला गया। बस, फिर क्या था, कमाल हो गया !

भोजपुर जिला स्थित संदेश प्रखंड के प्रतापपुर गाँव में २ अगस्त 1978 को जन्मे राकेश दिवाकर जी के पिता सेना में थे और अवकाशप्राप्त होकर पुनः भोजपुर आ गए। राकेश दिवाकर लम्बे समय से जन संस्कृति मंच के राष्ट्रिय पार्षद व मंच के चित्रकला विभाग के अगुवा सक्रीय कलाकार रहे।

अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी करने को उन्होंने कभी महत्व नहीं दिया। जबकि उनकी अनेकों कलाकृतियाँ ऐसी हैं जिन्हें ‘कथ्य और शिल्प’ के स्तर पर काफी महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। अनगिनत कविता-पोस्टर प्रदर्शनियों का आयोजन करते हुए कई युवा चित्रकारों को सामने लाने का काम किया। साथ ही दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के मुख्य पृष्ठ का आवरण बनाने व कला संपादन का भी काम किया।  

ये कोई अप्रासंगिक चर्चा नहीं होगी कि जिस प्रकार से बालू लदे ट्रैक्टर की अनियंत्रित रफ़्तार ने इन दो युवा प्रतिभाओं की जान ले ली, इसके पीछे इन दिनों भोजपुर समेत पुरे बिहार में बालू माफिया, सत्ता और प्रशासन के नापाक गंठजोड़ का जारी खेल ही है। जिसके तहत हर दिन किसी न किसी इलाके में पुलिस की अवैध वसूली से बचने के लिए अनियंत्रित रफ़्तार वाले ‘बालू लदे वाहन’ लोगों की जान ले रहें हैं। 

जन संस्कृति मंच बिहार ने राकेश दिवाकर व उनके साथी की दुर्घटना से हुई अकाल मौत पर बयान जारी करते हुआ कहा है कि- राज्य में सत्ता संरक्षण में बालू माफिया और पुलिस प्रशासन ने लोभ और स्वार्थ की जिस अराजक स्थिति को जन्म दिया है, उसी का नतीजा है कि आये दिन अनगिनत लोगों की असमय जान चली जा रही है। राकेश दिवाकर और उनके साथी राजेश कुमार की मौत भी उसी की दर्दनाक कड़ी है। बिहार की सरकार व  प्रशासन अविलम्ब इस पर रोक लगाए। साथ ही दोनों युवा शिक्षकों की मौत के लिए सभी दोषियों को कड़ी सज़ा व मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देने की भी मांग की है।

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