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दिल्ली दंगों से फैले ज़हर के शिकार हुए कारवां के तीन पत्रकार

यह पूरी घटना बताती है कि दिल्ली हिंसा के बाद भी दिल्ली की गलियां सांप्रदायिक ज़हर से अटी पड़ी हैं। इसमें कोई कमी नहीं आई है बल्कि इसे और अधिक बढ़ाया जा चुका है।
 कारवां के पत्रकार
साभार : जनचौक

कहने वाले कहते हैं कि जिस ज़मीन पर दंगा हुआ हो, वहां के बाशिंदे दंगाई समय के गुजर जाने के बाद ख़ुद को अफ़सोस में डुबोते हुए रोते हैं। लेकिन ऐसा तब होता है जब समाज का माहौल शांति की तरफ झुका हुआ है। हाल फिलहाल ऐसा नहीं है। भारतीय समाज में ज़हर घुला हुआ है। ज़हर घोलने का काम सत्ता में बैठे लोगों ने किया है जिसका शिकार वे सब हो रहे हैं जो इस ज़हर को काटने में दिन रात लगे हुए हैं।

11 अगस्त की दोपहर में दिल्ली हिंसा से जुड़ी शिकायतों  के आधार पर रिपोर्ट करने के लिए  अंग्रेजी पत्रिका ‘कारवां’ के तीन पत्रकार उत्तर पूर्वी दिल्ली पहुंचे। इन तीन पत्रकारों में एक महिला पत्रकार भी थी। इन सबके साथ तकरीबन डेढ़ घंटे तक कुछ स्थानीय लोगों द्वारा बदसलूकी की गई। सांप्रदायिक गालियां दी गई। मारने की धमकी दी गई। और महिला पत्रकार के साथ यौनिक बदसलूकी की गई।

उत्तर पूर्वी दिल्ली के सुभाष मोहल्ले के इलाके में भगवे रंग के झंडे बड़ी तादाद में लगे हुए थे। जहां इनकी तस्वीर कारवां के पत्रकार उतार रहे थे, वहीं से इन पत्रकारों के साथ बदसलूकी की शुरुआत हुई। 

कुछ लोगों ने आकर इन्हें रोक दिया। इनमें से एक व्यक्ति ने भगवे रंग का कुर्ता पहना हुआ था। इसने खुद को भाजपा का जनरल सेक्रेटरी बताया। पत्रकारों से आईडी कार्ड मांगा। जब पत्रकार शाहिद तांत्रे ने अपना नाम बताया तो शाहिद तांत्रे को मुस्लिम समझ कर भीड़ मारने उमड़ पड़ी। भीड़ से बचाने की कोशिश में जब कारवां की महिला पत्रकार बीच में आई तो उनके साथ यौनिक बदसलूकी हुई।

इस दुर्घटना के बाद पत्रकारों ने पुलिस से शिकायत की। महिला पत्रकार ने पुलिस से शिकायत करने के दौरान बताया कि जब  मैंने अपने साथियों को बचाने के लिए भीड़ से गुहार लगाई तो उसी भीड़ में से हाथ में राखी बांधा हुआ एक शख्स सामने आया और उसने मेरे कपड़े को पकड़ते हुए मुझे अंदर खींचने की कोशिश की। वह भागकर नजदीक में रखें एक पत्थर के टुकड़े पर बैठ गईं। वह खुद को शांत कर रही थी तभी अचानक तकरीबन 20 साल का एक लड़का आकर मेरी तस्वीर और वीडियो लेने लगा। और कहने लगा की दिखाओ दिखाओ।

जब वहां से उठ कर खड़ी हुई और आगे जाने लगी तब धोती कुर्ता पहने एक अधेड़ उम्र के मर्द ने मेरे साथ बदसलूकी की। मेरे सामने अपनी धोती खोल दी। जननांगों को मुझे दिखाने लगा और चेहरे पर अश्लीलता का भाव लेकर मेरी तरफ देख कर हंस रहा था। मैं वहां से भागी। 

साथी पत्रकार प्रभजीत सिंह ने घटना के बारे में बताते हुए कहा कि  शाहिद तांत्रे का आईडी कार्ड के बारे में पूछते समय ही तकरीबन 20 लोग इकट्ठा हो गए। हमने कहा कि हम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं। हम पत्रकार हैं। इतने सारे भगवा रंग के झंडे इकट्ठा हैं। हम केवल इनकी तस्वीर ले रहे हैं। भीड़ ने उन पर भरोसा नहीं किया। भगवा रंग का कुर्ता पहने उस शख्स ने कहा कि तुम्हारी तरह फटीचर पत्रकार बहुत देखे हैं। मैं भाजपा का जनरल सेक्रेटरी हूं। हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते तुम।

शाहिद तांत्रे ने अपने साथ हुई बदसलूकी के बारे में थाने में शिकायत करते हुए बताया कि उस भगवे रंग के शख्स ने आईडी कार्ड देखते हुए कहा कि तू तो मुल्ला है। वह शख्स दूसरे लोगों को बुलाने लगा कुछ मिनटों में ही भीड़ 20 से 50 में तब्दील हो गई। तकरीबन 90 मिनट तक भीड़ मेरे और प्रभजीत सिंह के आसपास रही। उन्होंने हमें सांप्रदायिक गालियां दीं, हमें थप्पड़ मारा, हमें पैरों से मारा। भीड़ हमारा कैमरा तोड़ने जा रही थी, तब शाहिद तांत्रे ने कहा कि हम सारे फोटो डिलीट कर देंगे। यहां तक कहा कि वह मेमोरी कार्ड निकाल देंगे। लेकिन फिर भी भीड़ नहीं मानी। भीड़ ने हमें पीटा। भीड़ विद्वेष में चिल्ला रही थी और जान से मारने की धमकी दे रही थी।

उसी समय दो पुलिस वाले आ गए। एक एडिश्नल सब इंस्पेक्टर जाकिर खान और दूसरे कांस्टेबल अरविंद कुमार। इन लोगों ने भीड़ को शांत कराने की कोशिश की। लेकिन भीड़ फिर भी शांत नहीं हुई। उस भगवे रंग के शख्स ने आसपास की औरतों को बुला लिया। भीड़ उग्र होती चली गई। तब कुछ और पुलिस वाले भी आए और उसके बाद दोनों पत्रकारों को उस भीड़ से छुटकारा मिल पाया। पुलिस वालों के होने के बावजूद भी भीड़ उग्र रही। पुलिस वालों और दोनों पत्रकारों के जाने के बाद भी भीड़ नारे लगाते रही। प्रभजीत सिंह ने कहा कि अगर मैं नहीं होता तो पत्रकार शाहिद तांत्रे की मुस्लिम पहचान की वजह से लिंचिंग हो जाती। 

शाहिद तांत्रे ने भजनपुरा पुलिस थाने पहुंचकर अपनी महिला साथी को कॉल किया और भजनपुरा पुलिस थाने आने को कहा। महिला पत्रकार ने जब लोगों से भजनपुरा जाने के लिए रास्ता पूछा तो महिला पत्रकार पर फिर से हमला हुआ। महिला पत्रकार ने अपनी शिकायत में बताया की भीड़ ने उसकी पीठ छाती और शरीर के कई हिस्सों पर हमला किया। अचानक से जब एक पुलिस वाला सामने आया तो महिला पत्रकार ने पुलिस वाले से खुद को बचाने की गुहार लगाई। लेकिन पुलिस वाले ने कहा कि इसका फैसला यहीं पर आपसी बातचीत के द्वारा हो जाएगा। महिला पत्रकार के लिए स्थिति और खराब होने वाले थी, तभी अचानक दूसरा पुलिस वाला आया और उसने महिला पत्रकार की जान बचाई। 

यह पूरी घटना बताती है कि दिल्ली हिंसा के बाद भी दिल्ली की गलियां सांप्रदायिक ज़हर से अटी पड़ी हैं। इसमें कोई कमी नहीं आई है बल्कि इसे और अधिक बढ़ाया जा चुका है। तीन पत्रकारों के साथ खुलेआम भीड़ ने बदसलूकी हुई लेकिन अन्य लोग मूक दर्शक बनकर देखते रहे। लोगों ने उन्मादी भीड़ को रोकने की कोशिश नहीं की बल्कि बहुत लोग भीड़ का ही हिस्सा बन गए। कारवां के संपादक हरतोष सिंह बल सही कहते हैं कि हिन्दुत्ववादियों की भीड़ ने ये हमला इसलिए किया क्योंकि वे सोचते हैं कि मौजूदा हालात में वे सुरक्षित रहेंगे, चाहे वे कुछ भी करें।

इन लोगों से ही पूछना चाहिए कि आखिरकर 3 पत्रकार अगर अपना काम कर रहे थे तो क्या गलत कर रहे थे? क्या दंगों का सच बाहर नहीं आना चाहिए? अगर दंगों का सच बाहर आने से हिंदू उन्माद में बहे लोग भीड़ बनकर हमला कर रहे हैं तो क्यों नहीं कहा जाए कि हिंदुत्व का रंग नहीं फैल रहा बल्कि हिंदुत्व का ज़हर फैल रहा है?

इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार भी सही कहते हैं कि जनता होती तो पूछती क्यों हुआ ऐसा, मगर जनता ही जनता नहीं है।

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