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यूक्रेन-रूस युद्ध का संदर्भ और उसके मायने

2014 के बाद के यूक्रेन में रूसी अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न और धुर दक्षिणपंथी कार्रवाइयां इस युद्ध के लिए राजनीतिक संदर्भ प्रदान करती हैं, लेकिन पुतिन का झुकाव पहले से ही इस मसले के सैन्य समाधान की तरफ़ था, यही वजह है कि रूस ने राजनीतिक समाधान तलाशने की कोई कोशिश नहीं की और उसकी अनदेखी कर दी।
Russia Ukraine war
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

हर एक युद्ध का अपना एक संदर्भ होता है, घटनाओं और प्रक्रियाओं का एक पूर्व प्रवाह होता है, जो विरोधियों को किसी भौतिक संघर्ष की ओर ले जाता है। हालांकि, किसी युद्ध में मौजूद वह संदर्भ बिना किसी समस्या के सहज नतीजे के रूप में रूपांतरित नहीं होता। बिना किसी योजना के निर्माण और उसे लागू करने के लिए आगे बढ़े बिना कोई भी युद्ध नहीं होता। युद्ध अपने संदर्भ में गुणात्मक बदलाव ले आता है; जो कुछ मौजूद है, वह ख़त्म हो जाता है, और कुछ नया सामने आता है। उनके अंतर्निहित और आसपास के संदर्भों की सीमाओं के भीतर सभी गुणात्मक मोहलत अफ़रातफरी वाली होती हैं, उनके परिणाम अनिश्चित होते हैं। युद्ध कोई अलग सी चीज़ नहीं होते। यह बात उन्हें मुख्य लड़ाकों की एजेंसी, उनकी क्षमताओं और उनके वैश्विक दर्शन पर महत्वपूर्ण रूप से निर्भर बना देती है।

यूक्रेन का यह युद्ध दो हफ़्ते से ज़्यादा समय से चल रहा है, और इसका आख़िरी नतीजा अब भी भविष्य की गर्त में है। शीत युद्ध के बाद के युग में हुए सभी युद्धों में यह युद्ध मूलत: उस दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है, जिसमें हम रहते हैं। इसलिए,हैरत जैसी की बात नहीं कि इस युद्ध को लेकर तेज़ी से बंटी हुई प्रतिक्रियायें आ रही हैं। ये हालात इस युद्ध के पीछे के सन्दर्भ या उसकी मंशा पर अपने-अपने हिसाब से ज़ोर दिये जाने से उभरती हैं। पश्चिमी हुक़ूमत, साम्राज्यवादी मीडिया, उदार बुद्धिजीवी और कई देशों के अभिजात शासक वर्ग का ध्यान इसी मंश पर केंद्रित होता है। एक साफ़-सुथरी कल्पित नैतिक कथा के ज़रिये इस युद्ध को पूरी तरह से रूस के बुरे मंसूबे, या रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बेहद संकीर्ण इरादे के रूप से पैदा होने वाले युद्ध के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है, और इसे एक उपद्रवी गोलियत के ख़िलाफ़ एक बहादुर डेविड की लड़ाई के तौर पर पेश किया जा रहा है। इस पेश की जा रही तस्वरी में युद्ध का संदर्भ पूरी तरह से ग़ायब है।

दूसरी ओर, रूसी सरकार, रूस और पुतिन के मुखर और मौन समर्थक और साम्राज्यवाद-विरोधी वामपंथी तबक़ों ने इस युद्ध के संदर्भ पर ज़ोर दिया है, इसे पहले से जो कुछ चल रहा था, उसके स्वाभाविक नतीजे के रूप में पेश किया है। इन धारणाओं की बनावट न सिर्फ़ आत्म-सीमित हैं, बल्कि ये धारणायें इस बात पर ध्यान दे पाने में भी नाकाम हैं कि इस संघर्ष में वास्तव में क्या-क्या दांव पर लगा है।

इस युद्ध के संदर्भ के अलग-अलग पहलुओं को लेकर बेहतरीन विश्लेषण उपलब्ध हैं। जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के यथार्थवादी शाखा का मानना है और जॉन मियर्सहाइमर भी इसे दुनिया की ताक़त के एक बड़े बदलाव की रौशनी में देखते हैं। सभी व्याख्याओं (रूसी सरकार सहित) के पीछे इसी तरह के बदलाव की वह अंतर्निहित धारणा निहित है, जो पश्चिमी गठबंधन वाले नाटो के रूस की सीमाओं तक के विस्तार को लेकर रूसी विरोध के लगातार अनदेखी को सामने लाती रही है। मियर्सहाइमर के शब्दों में अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों के गठबंधन ने इस पर अपनी नज़रें गड़ायी हुई हैं। बहुत बड़ी ताक़त रूस चुपचाप उस दाबव में रहने के बजाय प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर है। विजय प्रसाद के मुताबिक़, यह युद्ध फ़रवरी 2022 में शुरू नहीं हुआ,बल्कि 2014 में तभी शुरू हो गया था, जब यूक्रेन के दक्षिणपंथी मिलिशिया ने मैडन के तख़्तापलट की सफलता के बाद डोनबास में रूसी नस्ल के लोगों पर हमला किया था। वहां चले गृहयुद्ध में 14,000 से ज़्यादा लोगों की जानें चली गयी हैं। यूक्रेन में रूसी अल्पसंख्यक का उत्पीड़न और 2014 के बाद की यूक्रेनी हुक़ूमत पर चरम दक्षिणपंथी की पकड़ इस युद्ध का राजनीतिक संदर्भ प्रदान करती है।

वैश्विक स्तर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद की बड़ी, मगर नज़रअंदाज़ होती समस्या

पूर्वी यूरोप में नाटो के विस्तार और रूस के हाथों लाल झंडा थामे जाने के बाद पश्चिमी सरकारों के फ़ैसलों की चर्चाओं में अक्सर इन कार्रवाइयों के एकध्रुवीय साम्राज्यवादी संदर्भों की कमी खलती है। सवाल है कि रूस की ओर से प्रस्तावित सुरक्षा गारंटी संधियों को लेकर तक़रीबन सभी पश्चिमी देशों की तरफ़ से की गयी अनदेखी क्या महज़ ग़लत फ़ैसला या मूर्खतापूर्ण अहंकार थी ? इसके अलावे, पश्चिमी देश दूसरे देशों के मुक़ाबले अपनी जगह को क्या इसी तरह देखते हैं ? क्या पश्चिमी शक्तियों से एक अलग तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, लगता है कि इसकी उम्मीद रूसियों को भी थी, सवाल है कि क्या यह कोई ग़लत उम्मीद थी ? आख़िरकार, अगर नाटो के विस्तार का मक़सद रूस को घेरना ही था, फिर तो इसे रोकने या पलट देने का कोई मतलब ही नहीं था, क्योंकि जिसे निशाने पर लिया गया था,उसने विरोध करना शुरू कर दिया था।

हालांकि, महाशक्तियों का यह ढांचा इस दुनिया को शक्तियों की बहुलता के संदर्भ में देखता है, ऐसे ही नहीं यह दुनिया एकध्रुवीय साम्राज्यवादी उपनिवेश वाले मूल देश के नज़रिये से दिखायी देती है। इस नज़रिये से दुनिया में महज़ दो तरह के देश हैं; एक तो उसी तरह के उपनिवेश वाले मूल देश और दूसरा उस परिधि के बाहर वाले देश। उपनिवेश वाले देशों की हुक़ूमतों के लिए बाक़ी देशों के समूह मौलिक रूप से हीनतर हैं। उपनिवेश वाले मूल देश अपने हित में यह तय करते रहते हैं कि उनके साथ कैसा बर्ताव किया जाये। जिनके लिए यह तय किया जाता है,वे देश यह मांग नहीं कर सकते कि उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाये। असल में यही पश्चिमी साम्राज्यवादी विचारधारा और उनके वैश्विक नज़रिये की जड़ है। अगर पश्चिमी गठबंधन ने रूस को जानबूझकर नाराज़ या ठेस पहुंचाने की कोशिश की है, तो यूक्रेन पर रूसी हमला इस साम्राज्यवादी देशों के बनायी अपनी ख़ुद की छवि वाले इस चेहरे पर एक क़रारा तमाचा है। यह आंशिक रूप से रूस पर लगाये गये "सख़्त प्रतिबंध" की उन्मादी रक्त-पिपासा की व्याख्या कर देता है।

सवाल है कि साम्राज्यवादी पश्चिमी देशों का यह वैश्विक नज़रिया ज़मीनी यथार्थ से कितना मेल खाता है ? पहली बार 1980 के दशक में बड़े पश्चिमी देशों में उभरने वाला और सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया भर में फैल जाने वाला नव-उदारवादी पूंजीवाद अब एक वैश्विक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था बन गया है। यह प्रौद्योगिकी, अंतर्राष्ट्रीय वित्त, विश्व बैंक, आईएमएफ़ और विश्व व्यापार संगठन जैसे संस्थानों, विश्व भर में फैले उनके विशाल एनजीओ नेटवर्क और युद्ध-क्षमताओं पर नियंत्रण के ज़रिये पश्चिमी पूंजीवादी देशों के आधिपत्य के तहत उभरा है। उत्तरी अटलांटिक और उनके क़रीबी सहयोगियों,यानी जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया के आसपास के साम्राज्यवादी पश्चिम देशों में तक़रीबन 12% लोग रहते हैं। वे वैश्विक ख़र्च के 56% से ज़्यादा का ख़र्च हथियारों और युद्ध सामग्रियों पर करते हैं। अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका इस ख़र्च का 40% खर्च करता है,जबकि यहां कि आबादी दुनिया की आबादी का महज़ 4.2% है। नाममात्र डॉलर के लिहाज़ से इन देशों का संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का तक़रीबन 50% है। विश्व वित्त में उनकी स्थिति तो और भी ज़्यादा प्रभावशाली है। तमाम देशों के केंद्रीय बैंकों के विदेशी मुद्रा भंडार का 80% से ज़्यादा डॉलर और यूरो में है।

चूंकि ये पश्चिमी साम्राज्यवादी देश अपने प्रभुत्व को बनाये रखने को लेकर दृढ़ हैं,यही वजह है कि संघर्ष और युद्ध मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के अभिन्न हिस्से हैं । यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद पश्चिम ख़ुद को राष्ट्रीय संप्रभुता और अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के समर्थक के तौर पर पेश कर रहा है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि नाटो या उसके सदस्यों ने पिछले तीन दशकों के सभी बड़े संघर्षों में सक्रिय रूप से भाग लिया है। तक़रीबन सभी पश्चिमी देश और नाटो सदस्य यूगोस्लाविया, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया और सीरिया पर किये गये हमलों में शामिल हुए हैं। क्यूबा, वेनेज़ुएला, या ईरान जैसे अन्य देश, जो इनके बनाये मानकों पर चलने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता रहा है और उनके यहां अस्थिरता फैलाने के अभियान चलाये जाते रहे हैं। ये पश्चिमी साम्राज्यवादी देश नियमित रूप से अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और संधियों का उल्लंघन करते पाये जाते हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका का इकतरफ़ा तौर पर ईरान के साथ-साथ ईरान परमाणु सम्झौते (Joint Comprehensive Plan of Action- JCPOA) का तबाह किया जाना सबसे हालिया उदाहरण है। यूगोस्लाविया और लीबिया पर की जाने वाली बमबारी अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के ख़िलाफ़ थी। लीबिया के मामले में संयुक्त राष्ट्र की ओर से अनिवार्य रूप से नो-फ़्लाई ज़ोन घोषित किया जाना सही मायने में एक रक्षात्मक उपाय था,लेकिन उसका इस्तेमाल पश्चिमी देशों ने इस देश पर बमबारी करने के लिए किया था। नस्लीय रूप से अपने रूसी नागरिकों के लिहाज़ से आंतरिक सुरक्षा वाले एक संघीय यूक्रेन के लिए 2015 के उचित मिन्स्क -2 समझौतों ने इस मौजूदा संघर्ष के सिलसिले में एक ज़रूरी संदर्भ को हटा दिया होता, लेकिन इसे भी उसी तरह के नतीजों का सामना करना पड़ा। जहां संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस समझौते को यूक्रेन की हुक़ूमत को कभी भी नेकनीयती से लागू नहीं करने के लिए प्रोत्साहित किया था, वहीं इन समझौतों के पक्षों,यानी फ़्रांस और जर्मनी के पास न तो रणनीतिक दृष्टि थी और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने खड़े हो पाने की हिम्मत थी।

पश्चिमी साम्राज्य के इस आधिपत्य को राजनीतिक आधार देने वाले पहलुओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, लेकिन इस पर ज़ोर दिये जाने की ज़रूरत है। सबसे पहला पहलू तो यह है कि सदियों से औपनिवेशिक शासन के दौरान जिस तरह से लोकप्रिय राजनीति और संस्कृति का विकास हुआ है,उस कारण से इस साम्राज्यवादी विश्व प्रभुत्व परियोजना को इन उपनिवेश वाले देशों में व्यापक समर्थन हासिल है। युद्ध-विरोधी,ख़ासकर इराक़ में हुए युद्ध के ख़िलाफ़ हुए बड़े आंदोलनों के बावजूद,इन समाजों का नैतिक ताना-बाना अन्य देशों और समाजों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को स्वीकार कर लेता है। ऐसे हस्तक्षेप को शुरू करने वाले नेताओं को क़रीब-क़रीब फिर से चुन लिया जाता हैं। दूसरा पहलू यह राजनीतिक हक़ीक़त है कि लगभग तमाम देशों के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से इस पश्चिमी साम्राज्यवादी परियोजना से फ़ायदा उठाते रहे हैं। हम इसे उसी सहजता से देखते हैं, जिस सहजता के साथ सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग पश्चिमी मीडिया और शिक्षा जगत में बाक़ी दुनिया की नुमाइंदगी को स्वीकार कर लेता है। मसलन, यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर भारत के अंग्रेज़ी ख़बरों का स्रोत नियमित रूप से सिर्फ़ और सिर्फ़ पश्चिमी मीडिया ही रहा है। यहां तक कि पश्चिमी मीडिया में कवर किये जा रहे नस्लवाद पर अरब और अफ़्रीका के पत्रकारों के संघों की प्रतिक्रिया क्या है,उस पर भी भारत में बहुत कम ध्यान दिया जाता है।

पश्चिम में अभिजात वर्ग की यह लामबंदी नव-उदार राजनीतिक अर्थव्यवस्था का एक ऐसा उत्पाद है, जिसने देशों के भीतर वर्गगत अंतर को धारदार बना दिया है और श्रम और पेशेवर स्तर के वैश्विक आंदोलन को बढ़ा दिया है।

एकध्रुवीयता के पार

पिछले तीन दशकों के पश्चिमी साम्राज्यवादी प्रभुत्व को हाल ही में आर्थिक और सैन्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। असद की हुक़ूमत को गिराने की पश्चिमी योजनाओं के ख़िलाफ़ 2015 में सीरिया में रूसी सैन्य हस्तक्षेप एक ऐतिहासिक घटना थी। इसने दिखा दिया कि पश्चिमी साम्राज्यवाद दुनिया पर अपने सैन्य वर्चस्व को हल्के में नहीं ले सकता। चीन, भारत, ब्राजील और इंडोनेशिया के औद्योगीकरण और उनके आर्थिक उत्थान ने इन उपनिवेश वाले देशों के आर्थिक वज़न को भी हल्का कर दिया है। क्रय शक्ति समानता के लिहाज़ से उपनिवेश वाले इन पश्चिमी देश और उसके सहयोगियों का हिस्सा वैश्विक उत्पादन के लिहाज़ से 34% तक गिर गया है। चीनी अर्थव्यवस्था पहले से ही संयुक्त राज्य अमेरिका से 20% बड़ी है। इसका बीआरआई यानी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव कार्यक्रम एक अहम अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप है।

अगगर यूएसएसआर के विघटन के बाद एकध्रुवीयता का दौर शुरू हुआ था, तो यह दौर बढ़ती बहुध्रुवीयता का है। हालांकि, यह जो कुछ बदल रहा है,उसे लेकर जो राजनीति और विचारधारा है,उसके बारे में बहुत कम स्पष्टता है। इस बार पश्चिमी साम्राज्यवाद के सामने जो चुनौती है,वह दूसरे विश्व युद्ध से पहले और बाद में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों से मौलिक रूप से अलग है। इन सभी संघर्षों की पीछे की प्रेरणा राष्ट्रीय स्वायत्तता की आकांक्षा है; कई देशों के भीतर अपने देश की अर्थव्यवस्था और संस्कृति को ठोस कार्यक्रमों के ज़रिये पुनर्जीवित करने को लेकर छटपटाहट रही है। इनमें से कई देशों ने संसाधन के फिर से बांटे जाने की नीति और आर्थिक विकास के वर्ग-आधारित समाजवादी कार्यक्रमों को भी अपना लिया है। लेकिन, इस बार इस चुनौती में आम राजनीतिक लामबंदी और बेहतर दुनिया के लिए वैकल्पिक नज़रिये का अभाव है।

पुतिन का युद्ध

पूर्वी यूरोप में पश्चिमी साम्राज्य के हस्तक्षेप ने सैन्य संघर्ष को लेकर एक ज़मीन तैयार कर दी थी। रूस की राजनीतिक रूप से दूरदर्शी हुक़ूमत ने शायद महसूस कर लिया होगा कि असली मुद्दा सैन्य ख़तरा नहीं, बल्कि रूस को राजनीतिक रूप से घेरने के पश्चिमी प्रयास हैं। पुतिन सरकार ने कब और कैसे इस संघर्ष को सैन्य रूप से हल करने का फ़ैसला कर लिया था, यह विवादास्पद है। रूस का नेतृत्व इस युद्ध को साफ़ तौर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ राष्ट्रवादी नज़रिये से देखता है। इसके अलावा, यह परिप्रेक्ष्य रूसी राष्ट्र-राज्य के सुरक्षा हितों तक ही सीमित है और इसमें रूस के लोगों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं के लिहाज़ से बहुत कम जगह है।

अगर पश्चिमी साम्राज्यवाद ने अपने अहंकार में रूस की महान शक्ति की हैसियत को खारिज कर भी दिया, तो रूस के ध्यान में यह बात बिल्कुल ही नहीं रही कि पश्चिमी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ असल संघर्ष सैन्य के बजाय राजनीतिक होना चाहिए था। इसलिए, जिस घटनाक्रम की वजह से यूगोस्लाविया, लीबिया, अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया की तबाही हुई और पश्चिमी हमले के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक राय बनाने की कोशिश की जाती रही, उस घटना से रूस के ख़ुद के घेरे जाने के अहम हिस्से के रूप में देखने के बजाय रूस की सरकार मुख्य रूप से इस स्थिति के सैन्य तर्कों से पेश किये जाने वाले मौक़ों से प्रेरित रहा है।

यह एकदम साफ़ होता जा रहा था कि नाटो की सदस्यता के साथ या उसके बिना यूक्रेनी हुक़ूमत सैन्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो देशों के साथ लामबंद हो रहा था। यूक्रेन नवंबर, 2021 में संयुक्त राज्य अमेरिका का रणनीतिक भागीदार बन गया। यूक्रेन ने जुलाई 2021 में नाटो के सदस्यों-लिथुआनिया और पोलैंड के साथ थ्री स्वॉर्ड्स सैन्य अभ्यास में भाग लिया था। इसे मिन्स्क -2 समझौते या यूरोपीय शक्तियों को इस महाद्वीप के लिहाज़ से बनाये जाने वाले एक सुरक्षा ढांचे से सहमत करते हुए उसे लागू करने की राजनयिक कोशिश भी अपने आख़िरी रूप ले रही थी। यहां तक कि कूटनीति को मजबूर करने के लिए यूक्रेन की सीमा पर बड़ी ताक़तों को इकट्ठा करने के झांसे का भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया। रूसी सैन्य रणनीतिकारों ने शायद इस बात का अंदाज़ा लगा लिया होगा कि यूक्रेन पर सैन्य जीत हासिल करने में कम से कम क़ीमत चुकानी होगी और इसका विस्तार भी सीमित होगा। अगर यह ख़त्म हो जाता, तो मज़बूत यूक्रेनी सेनायें डोनबास में गृह युद्ध के सिलसिले में एक सैन्य समाधान के लिए मजबूर कर रही होती और रूस के ख़िलाफ़ हर तरह के अभियानों के लिए ख़ुद को पश्चिमी शक्तियों के सामने पेश कर रहा होता। इस तरह के क़यास सही भी हो सकते है या फिर सही नहीं भी हो सकते हैं। हालांकि, पुतिन की हक़ूमत यूक्रेन की हुक़ूमत की नीतियों के बनाये राजनीतिक अंतर्विरोधों का फ़ायदा उठाने में नाकाम रही। डोनबास के गृहयुद्ध को महज़ सैन्य नज़रियों से देखा गया। इसने यूक्रेन की हुक़ूमत की रूसी अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों और इन नीतियों के भीतर मौजूद नाज़ी तत्वों के ख़िलाफ़ आम राजनीति के किसी भी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की। यूक्रेन के उन तमाम लोगों को एक साथ लाने का कोई प्रयास भी नहीं किया गया, जिन्होंने अपने देश को रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी साज़िशों का रंगमंच बनने का विरोध किया था।

राजनीतिक कल्पना की यह कमी आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह कमी पुतिन सरकार की प्रकृति का एक सह-उत्पाद है। पुतिन की लोकप्रियता उनके अपने लोगों के बीच ज़बरदस्त है, लेकिन पुतिन की हुक़ूमत सांस्कृतिक रूप से रूढ़िवादी, आर्थिक रूप से नव-उदार और राजनीतिक रूप से सत्तावादी है। अगर थोड़े में कहा जाये,तो जहां पूर्वी यूरोप में पश्चिमी साम्राज्यवादी हमले ने इस संघर्ष के लिए ज़मीन तैयार कर दी थी, वहीं पुतिन की हुक़ूमत इसे सैन्य रूप से हल करने को लेकर वैचारिक रूप से तैयार थी।

यूक्रेन में चल रहा यह युद्ध मौजूदा विश्व व्यवस्था की सबसे निकृष्टतम रूपों का नतीजा है। अपने राष्ट्रीय हितों की परवाह किये बिना पश्चिमी साम्राज्यवादी की चालों में फंसी कीव की हुक़ूमत अपने साम्राज्यवादी आकाओं के काम आने को लेकर बेचैन है, और सत्तावादी रूसी हुक़ूमत ने यूक्रेन के लोगों पर यह तबाही बरपायी है। अपमानित और घायल साम्राज्यवाद रूस से ज़्यादा से ज़्यादा क़ीमत वसूल करेगा और बाकी दुनिया को शांति से रहने नहीं देगा। यह दूसरे देशों की संप्रभुता को रौंद डालेगा और जिस तरह से रूस पर प्रतिबंध लगाये गये हैं,उन देशों को भी इसी तरह के प्रतिबंध की राह पर चलने पर मजबूर करने की कोशिश करेगा। इसी तरह, इस साम्राज्यवाद ने क्यूबा, वेनेज़ुएला और ईरान की अर्थव्यवस्थाओं को तहस-नहस कर दिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह साम्राज्यवाद रूस में कामयाब हो पायेगा और दुनिया को फिर से अपनी चपेट में ले लेगा ? इसकी संभावना तो नहीं दिखती है। इन साम्राज्यवादी ख़तरों के लिहाज़ से यह दुनिया कहीं ज़्यादा बड़ी है और एकरंगी नहीं,बल्कि विविधता से भरी हुई है।

पुतिन इस युद्ध को जीत तो सकते हैं, लेकिन यह जीत वैश्विक स्तर पर उनकी प्रतिष्ठा की क़ीमत पर मिलेगी और शायद रूस के भीतर भी उन्हें ऐसा ही कुछ भुगतना होगा। जहां इस युद्ध के मुख्य किरदार अपनी कार्रवाइयों से इस युद्ध के पीछे तबाही छोड़ जायेंगे, वहीं दुनिया के लोगों के बीच एक बड़ी चिंता पैदा करता यह सवाल मुंह बाये खड़ा है कि इस युद्ध का चाहे जो भी नतीजा निकले,मगर इसके बाद जो नयी विश्व व्यवस्था वजूद में आयेगी,आख़िर उसकी प्रकृति क्या होगी?

लेखक दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेस कॉलेज में भौतिकी शास्त्र पढ़ाते हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Context and Intent of Russia’s War on Ukraine

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