Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

उत्तराखंड के ग्राम विकास पर भ्रष्टाचार, सरकारी उदासीनता के बादल

सिमगांव के निवासी पंचायत और जिला प्रशासन स्तर पर शोषित हो रहे हैं।
uttarakhand
कौसानी (उत्तराखंड) के करीब स्थित सिमगांव के लोग।

प्रमोद उत्तराखंड के हिल स्टेशन कौसानी के करीब सिमगांव के निवासी हैं। वे अपने पैतृक गांव के प्रति राज्य सरकार की उदासीनता और पूरे सूबे में भ्रष्टाचार से निराश हैं। 30 वर्षीय प्रमोद चायबगान में काम करते हैं। उनका कहना है,“मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को हमेशा सरकारी मदद मिल जाती है, जबकि यहां सब कुछ धीमा और बेहद थकाऊ है।"

पंचायत के स्तर पर और इसके भी अधिक उच्च प्रशासन पर भ्रष्टाचार गांव के लिए एक बड़ी समस्या बन गया है, लेकिन इसके विरुद्ध ग्रामीणों की लामबंदी न होने की वजह वे राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ पाने के लिए अपनी मांगों पर जोर नहीं दे पा रहे हैं। चाय बागान के श्रमिकों की कोई यूनियन नहीं है। इस वजह से वहां कामगारों को बहुत मामूली दर पर काम करना पड़ रहा है।

प्रमोद कहते हैं,"पहाड़ी लोग निष्क्रिय और बेहद विनम्र हैं; वे ग्राम पंचायत स्तर पर या इससे उच्चतर स्तर से अपने अधिकारों की पूर्ति की मांग नहीं करते हैं।" वे इसी रौ में भ्रष्टाचार से लड़ने और बुनियादी अधिकारों की मांग करने के लिए आवश्यक लामबंदी की कमी का रोना रोते हैं। प्रमोद कहते हैं,“अब जैसे कि मेरे समेत कई ग्रामवासियों के पास एपीएल राशन कार्ड ही हैं, जबकि हम सब बीपीएल कोटि के कार्ड पाने की सभी पात्रता रखते हैं। मैं अपने कार्ड को अपग्रेड करने के लिए कई दफा स्थानीय दफ्तर के चक्कर काटे लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। सरकारी अधिकारी हमें दूर भगा देते हैं।”

घरों और पॉलीहाउस में शौचालय निर्माण के लिए सरकार द्वारा धन और सामग्री मुहैय्या कराने के बावजूद, उन्हें ग्रामीणों के बीच समान रूप से वितरित नहीं किया जा सका। अलबत्ता, ग्राम प्रधान ने इन्हें अपने करीबी रिश्तेदारों और अन्य प्रभावशाली लोगों के बीच बंदरबांट कर लिया,” प्रमोद ने आरोप लगाया,“जिला मजिस्ट्रेट और स्थानीय विधायक सहित अन्य अधिकारी कहीं मिलते नहीं हैं। इस बाबत वे हमसे मिलने भी नहीं आए। मुझे नहीं लगता कि गांव के लोगों को यह मालूम भी होगा कि उनके विधायक कौन हैं।"

प्रमोद ज्योंहि अपने प्रदेश की खराब दशा की कहानी बयां करते हैं,उनके भाई पुष्कर बोल पड़ते हैं,यहां भ्रष्टाचार नासूर बन गया है। हालांकि प्रमोद ने प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए ग्रामीणों को लामबंद करने की भरपूर कोशिश की थी। पर उनका कहना है, “वे मेरी एक नहीं सुनते और कहते हैं,' चीजों को जस की तस रहने दीजिए।‘”

पुष्कर कहते हैं,“उत्तराखंड में स्वास्थ्य और शिक्षा ढ़ांचा ध्वस्त होने की कगार पर है और यह यहां से बड़े पैमाने पर लोगों के बाहर जाने जैसी समस्या को जन्म दे रहा है।" पुष्कर मुंबई में दो साल तक एक शेफ के रूप में अनुभव हासिल करने के बाद एक छोटा सा भोजनालय चलाते हैं। उनका कहना है,“भ्रष्टाचार के कारण मूलभूत सुविधाओं के अभाव में लोगों का अपने इलाकों से पलायन होना तय है। स्थिति यह है कि चुनाव जीतने के बाद स्थानीय राजनेता फिर कहीं नजर नहीं आते। वे देहरादून और हल्द्वानी जैसे राज्य के मैदानी हिस्सों में भव्य घर बनाते हैं और हमारी असुविधाओं की अनदेखी करते हुए ठाठ से अपनी जिंदगी जीते हैं।”

पुष्कर ने यह सोचकर मुंबई में शेफ की नौकरी छोड़ दी कि कौसानी पर्यटक स्थल है, सो वहां उनके गुजारे लायक रोजगार के बेहतर अवसर मिल जाएंगे। पर जल्द ही उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। निराश-हताश पुष्कर कहते हैं,“शहर में कई गेस्टहाउस और होमस्टे हैं, जो यहां के लोगों को बहुत कम मजदूरी पर काम पर रखते हैं। वे यह जानकर कि मैं कोई काम-धंधा पाने के लिए बेताब हूं,एक होटल ने मुझे कुक के रूप में काम करने के लिए केवल 8,000 रुपये की पेशकश की।”

चंदन सिंह भंडारी (40) एक प्रसिद्ध स्थानीय कार्यकर्ता हैं,जिन्होंने प्रशासन के खिलाफ कई प्रदर्शन किए हैं, कई आरटीआई दायर किए हैं और पिछले कुछ दशकों में प्रभावशाली अधिकारियों और विधायकों को भ्रष्टाचार के बारे में पत्र लिखे हैं।

इसके बावजूद भंडारी बहुत निराश हैं और उन्होंने किसी बेहतरी की उम्मीद छोड़ दी है। उनका कहना है,“मैंने लोगों को इकट्ठा किया और अपनी आवाज उठाई। लेकिन ज्यादातर समय, उनके बहरे कानों पर कोई असर नहीं हुआ। मैं अपने लोगों के लिए इंसाफ हासिल करने में सक्षम नहीं हूं।" वे अफसोस जताते कहते हैं कि सिस्टम बदलने वाला नहीं है और गुंडे उन्हें धमकी देते हैं। भंडारी कहते हैं कि “स्थानीय नेता इतनी ताकत हासिल किए हुए हैं कि वे अपनी हनक से किसी को भी चुप करा देते हैं। मैंने भी उम्मीदें छोड़ दी हैं।”

कौसानी के चाय बागान

उत्तराखंड की सरकार ने यहां से लोगों के पलायन रोकने के लिए चाय बागानों में ग्रामवासियों को रोजगार देने सहित कई पहल की हैं। इन चायबगानों में कौसानी के आसपास के गांवों के कई लोग काम करते हैं। हालांकि, इसके लिए निर्धारित 8,000 से लेकर 10,000 रुपये की मजदूरी से बहुत कम राशि दी जाती है।

“तय मजदूरी के हिसाब से हमें रोजाना 316 रुपये की दर से हर महीने 8,000 रुपये मिलने चाहिए। लेकिन चाय बगान के मैनेजर और उनके सुपरवाइजर हमारी छुट्टियों की एवज में हमारी पगार काट लेते हैं,जिसके बाद केवल 4,000 रुपये 5,000 रुपये ही हर महीने मिल रहे हैं,”विनोद कहते हैं, जो चाय बगान में काम करते हैं।

यहां काम करने वाले प्रत्येक कामगार को पहले 6 -12 महीने तक इसकी ट्रेनिंग लेनी होती है। प्रमोद कहते हैं "वे हमें बगान को बनाए रखने और उसमें सहायता करने के लिए जरूर हुनर देते हैं, इसके लिए कुछ टूल्स होते हैं, जिनका हमें इस्तेमाल करना होता है और चाय की पत्तियों को ठीक से तोड़ना होता हैं। लेकिन इस काम के हिसाब से मजदूरी नहीं मिलती है।” उनके साथ विनोद भी कहते हैं कि अल्प मजदूरी परिवारों को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि "हमें बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और रोजमर्रे के राशन पर खर्च करना पड़ता है। इसकी भरपाई के लिए हमारी महिलाएं भी चाय बगानों में काम करती हैं, लेकिन हम दोनों की मजदूरी भी गुजारे के लिए पूरी नहीं होती।

चाय बागान कर्मी दुर्गा देवी और मीना देवी

चाय बागान में काम करने वाली दुर्गा देवी और मीना देवी का कहना है कि एस्टेट के प्रबंधन से केवल सुपरवाइजर और मैनेजर जैसे बाहरी लोग ही लाभान्वित होते हैं। “एक पर्यवेक्षक को लगभग 15,000 -20,000 रुपये वेतन में मिलता है और उसकी स्थायी सरकारी नौकरी होती है। मैनेजर को वैसे ही लाभ मिलते हैं। उन्हें रहने के लिए सरकारी आवास भी दिया जाता है,”दुर्गा ने कहा। "केवल स्थानीय लोगों को इतनी कम मजदूरी देकर उनका शोषण किया जाता है," मीना कहती हैं।

चाय बागान में काम करना काफी कठिन है। दुर्गा बताती हैं,“चाय की पत्तियों को तोड़ना और बगानों को साफ-सुथरा रखना हमारे काम का एक अहम हिस्सा है। यह काम बरसात के मौसम और कठोर सर्दियों में विशेष रूप से कठिन हो जाता है। ” उन्होंने कहा कि “आप कई महिलाओं को चाय के बगानों में काम करते हुए पाएंगे क्योंकि हमारे पति को काम की तलाश में शहरों में पलायन करना पड़ा है। तो अब हमें भी तो अपना पेट भरना है न?”

चाय बागानों में एक श्रमिक संघ की दरकार है। लेकिन प्रशासन की तरह मजदूर संघ भी इससे चिंतित नजर नहीं आ रहा है। कई मजदूरों को तो इसके बारे में मालूम भी नहीं है। प्रमोद इस पर अफसोस जताते हुए कहते हैं, "यूनियन कमजोर हो गई है और इसके अधिकारी कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। हम उचित मजदूरी के पाने के लायक हैं लेकिन हमारे पास अपने जायज अधिकारों की मांग के लिए हमारा समर्थन करने वाला कोई नहीं है।”

लेखकद्वय स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Corruption, Official Apathy Cloud Uttarakhand Village’s Development

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest