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भाजपा से मुक़ाबला करने के लिए विपक्षी दलों को रणनीति चाहिए या विचारधारा

भाजपा को अल्प बुद्धि के पूर्वाग्रहों और दिन प्रतिदिन की उत्कंठाओं में लगे रहने से प्रोत्साहन मिलता है। समुदायों के बीच स्थायी दीवार बनाने में मदद करने के लिए हिंसा रणनीतिक रूप से ऐसे रिवायत में समा जाती है।
भाजपा से मुक़ाबला करने के लिए विपक्षी दलों को रणनीति चाहिए या विचारधारा

भारतीय राजनीति में रणनीति (strategy), संचार (communication ) और विचारधारा (ideology) के बीच तनाव देखा जा रहा है। रणनीति जो कर सकती है विचारधारा नहीं कर सकती लेकिन यह सच है कि दोनों को एक दूसरे के स्थान पर रखा जा सकता है। मौजूदा सरकार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अकेले रणनीति, संचार और विचारधारा को जोड़ने में सक्षम हैं। अधिकांश क्षेत्रीय दल रणनीति या प्रभावी संचार तक सीमित हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी शायद एकमात्र ऐसी पार्टी है जो वैचारिक प्रतिबद्धता दिखाती है लेकिन कोई रणनीति और उपयुक्त संचार नहीं है।

प्रभावी संचार एक रिवायत को जीवंत करता है क्योंकि जीवंत अनुभव सामान्य ज्ञान, स्मृति और अवचेतन से जुड़ सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ ऐसी चीज़ें जो हम सोचते हैं उसे हम हल्के में लेते हैं या मानने से इंकार कर देते हैं, कुछ ऐसी चीज़ें जो हमेशा से अस्तित्व में रही हैं और कुछ ऐसा जो हमें कई अन्य पहलुओं को समझने में मदद करता है जिन्हें हम सीधे तौर पर नहीं समझ सकते हैं। ये बातें सोची-समझी नहीं हैं, लेकिन मान ली जाती हैं; पब से लेकर पान की दुकानों तक सार्वजनिक स्थानों पर पारिवारिक गपशप, फिल्मों और परिहास के ज़रिए क्या हम सामाजिक हैं।

हमारे अवचेतन को जीवंत करने और हमारे सामान्य ज्ञान का अनुभव करने की इस कला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महारत हासिल की है। नोटबंदी एक विशेष मामला था, लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके। गुजरात में पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने यह दावा किया था कि पूर्व विदेश मंत्री मणिशंकर अय्यर ने उनकी हत्या के लिए सीमा पार के दुश्मनों को सुपारी या फिरौती की पेशकश की थी। अभी हाल ही में भाजपा ने पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के एक जासूस को देश की गुप्त जानकारी देने के आरोप में एक अभियान चलाया।

पूरे भाजपा अभियान को सरल-दिमाग वाले पूर्वाग्रहों और रोज़मर्रा की चिंताओं से उभारा जाता है। उदाहरण के लिए, टीवी चैनलों ने दिखाया कि एक सूफी दरगाह के मुखिया ने पार्टी के प्रवक्ता नूपुर शर्मा का सिर काटने की धमकी दी, लेकिन बाद में खुलासा किया कि उन्हें मानसिक रोग है। जनता की भावनाओं का ग़लत इस्तेमाल करने के साथ साथ भाजपा की रणनीति ने बहुसंख्यक समुदाय को अपनेपन और सांस्कृतिक स्वामित्व की गहरी भावना दी है। यह न केवल हिंदू धार्मिक प्रतीकों बल्कि सभ्यता के लोकाचार और जीवन शैली का भी आह्वान करता है। इसमें कुछ का उल्लेख करने के लिए कर्तव्य, सेवा, त्याग, फकीर और तपस्या के विचार शामिल थे। वे हमारे अवचेतन के साथ आवाज़ मिलाते हैं और परिचित होने की भावना पेश करते हैं। अपनेपन की इस गहरी भावना के आधार पर वर्तमान सरकार आर्थिक संकट, कोविड -19 महामारी, मुद्रास्फीति और घरेलू बेरोज़गारी का सामना करने की अपनी क्षमता को दिखाता है। यह नेता की संवाद करने की क्षमता और लोगों की विश्वास करने की क्षमता दोनों का प्रतिरूप है। लोग घर वापसी की भावना पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं।

इसके अलावा, मौजूदा सरकार ने अपनेपन की भावना को रोज़मर्रा के जनमत संग्रह में बदल दिया है। ये एक ऐतिहासिक घटना के ख़िलाफ़ सामूहिक आंदोलन है। इस तरह यह लोगों को पूरी तरह ध्रुवीकरण करने और हिंसा के लिए सहमति पर ज़ोर देता है। हिंसा समुदायों के बीच की दीवारों को टिकाऊ, स्थायी और अटूट बनाने की रणनीति है। इसका प्रभावी संचार एक हिंदू राष्ट्र के निर्माण की रणनीति और इसकी विचारधारा से जुड़ा है।

भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच बयानबाजी के चल रहे युद्ध में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रभावी संचार और रणनीति को आगे बढ़ाया है। भ्रष्टाचार के आरोपों के विपरीत उन्होंने "ऑपरेशन लोटस" को "उजागर" किया है। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने आप के 40 विधायकों को ख़रीदने के लिए 800 करोड़ रुपये रखा है और पूछते हैं कि यह पैसा कहां से आया और इसे कहां रखा गया है। यह भ्रष्टाचार और काले धन की उसी कल्पना पर चलता है जिसे मोदी ने नोटबंदी के दौरान बढ़ावा दिया था।

आम आदमी पार्टी ने बिलक़ीस बानो के बलात्कारियों को रिहा करने, शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन और द कश्मीर फाइल्स पर एक सुविचारित रणनीति के तहत चुप्पी साधे रखी और हिंदुत्व वर्चस्व पर सवाल या समर्थन नहीं किया। आम आदमी पार्टी मुस्लिम विरोधी नहीं है लेकिन इस समुदाय की रक्षा करने के लिए मोर्चा भी नहीं लेती है। इस रणनीति ने उसे "हिंदू" वोट बैंक तोड़ने में मदद की है जिसे भाजपा ने संगठित किया है। आम आदमी पार्टी ने शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी मामलों को भी सुर्खियों में रखा है। यह राष्ट्रवाद को कल्याण से जोड़ने के लिए सही और प्रभावी ढंग से प्रयास भी कर रहा है। यह अमीर विरोधी न होकर ग़रीब समर्थक है। इसने आम आदमी पार्टी को भाजपा को उसके ध्रुवीकरण और साजिशों को चुनौती दी है। उदाहरण के लिए, इसने रोहिंग्या शरणार्थियों को घर उपलब्ध कराने का दावा करके सांप्रदायिक चिंताएं पैदा करने के प्रयास को ख़ारिज कर दिया।

आम आदमी पार्टी बहुसंख्यक आबादी में शामिल होने के परिणामों पर सवाल उठाए बिना भाजपा के हिंदू सामाजिक आधार में घुस रही है। पार्टी के नेता खामोश हैं और मुसलमानों के ख़िलाफ़ पुरानी क़ब्र खोदते हैं। भले ही उनकी बयानबाजी सांप्रदायिक सौहार्द की हो लेकिन भाजपा जिस तरह से 'सबका साथ' की बात करती है, वह मूल रूप से ऐसा ही है। यह आम आदमी पार्टी को प्रभावी ढंग से संवाद करने और चुनावी रूप से व्यवहार्य रणनीति का चयन करने में मदद करता है लेकिन इस दावे के साथ कि वे वैचारिक रूप से तटस्थ हैं। वे न तो वामपंथी बनना चाहते हैं और न ही दक्षिणपंथी, और न ही हिंदू समर्थक और न ही मुस्लिम समर्थक। इसने दिल्ली में काम किया। हम देखेंगे कि यह गुजरात में कैसे काम करती है। वास्तव में, यह बहुसंख्यकवाद के सहारे शिक्षा का एक सामाजिक एजेंडा ला रहा है।

अकेले राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी वैचारिक रूप से जुड़ने को तैयार है। राहुल अकेले ऐसे राजनेता हैं जो भाजपा के मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, संस्थानों के अधिग्रहण और इसके दीर्घकालिक परिणामों के ख़िलाफ़ सीधे तौर पर आलोचना करते हैं। गांधी ने हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत यह पूछकर करते हैं कि, "आप तानाशाही का आनंद कैसे ले रहे हैं?" वह बार-बार आरएसएस और उसकी एकरूपता की अखंड कल्पना की आलोचना करते हैं। उन्होंने लोकतंत्र, संवैधानिकता और धर्मनिरपेक्षता पर महत्वपूर्ण बहसों में भाग लिया लेकिन भाजपा के हिंदू वोट-बैंक में सेंध मारने में विफल रहे। ऐसा लगता है कि लोग वैचारिक या शुद्ध नैतिक आलोचना का जवाब नहीं देते हैं।

कांग्रेस के संचार के तरीक़े कमजोर हैं और कोई ठोस कल्पना या स्पष्ट भावनाओं को ज़िंदा करने में विफल हैं। इस विफलता का श्रेय अक्सर इसके जड़े हुए अभिजात्यवाद और इसके नेताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि को दिया जाता है, जिनकी स्थानीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति तक पहुंच नहीं होती है। कांग्रेस जो करती है उसमें कोई रणनीति नहीं है, क्योंकि उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की उनकी पसंद से यह स्पष्ट है। संचार के बिना विचारधारा संभ्रांतवादी है, लेकिन विचारधारा के बिना रणनीति क्या है?

2024 के लोकसभा चुनाव के लिए महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या विपक्ष विचारधारा, रणनीति और संचार को भाजपा की तरह प्रभावी ढंग से जोड़ सकता है या क्या आम आदमी पार्टी की तरह की व्यावहारिकता ने बढ़त हासिल कर ली है और शायद विपक्षी दलों के लिए यही एकमात्र रास्ता होगा? अल्पसंख्यकों के लिए इसका क्या अर्थ होगा? क्या वे समावेश के मूक लाभार्थी होंगे या मौन रह कर बहिष्कृत रहेंगे?

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी पुस्तक,पॉलिटिक्स, एथिक्स एंड इमोशंस इन 'न्यू इंडिया', 2022 में रूटलेज,लंदन द्वारा प्रकाशित की जाएगी। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

https://www.newsclick.in/do-opposition-parties-need-strategy-ideology-counter-BJP

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