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ग्राउंड रिपोर्ट : ओडीएफ की हक़ीक़त

क्या ये मलिन बस्तियां हमारे राज्य, हमारे देश का हिस्सा हैं? जब रहने के लिए एक अदद छत ही नहीं है तो शौचालय कैसे होगा! फिर खुले में शौच करने वाले अपराधी नज़र आऩे लगेंगे!! ओडीएफ होने के लिए न्यू इंडिया के नक्शे से मलिन बस्तियों को रबर से घिस-घिस कर मिटाना होगा।
गोविंदनगर मलिन बस्ती
गोविंदनगर मलिन बस्ती में महिलाओं के लिए घेरबाड़ कर ये शौचालय बनाया गया है।

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती 2 अक्टूबर को देश खुले में शौच मुक्त यानी ओडीएफ घोषित किया जा सकता है। ये ठीक है पिछले पांच वर्षों में चलाए गए जागरुकता कार्यक्रमों के असर से लोगों ने शौचालयों का इस्तेमाल करना शुरू किया है। लोगों की सोच और व्यवहार में बदलाव आया है। लेकिन क्या वाकई देश खुले में शौच मुक्त हो गया है? क्या वाकई हर व्यक्ति के पास घर और घर में शौचालय की उपलब्धता है? मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में अविनाश और रोशनी की पीट-पीट कर हत्या क्यों की गई? क्या ओडीएफ होने के इन ख़तरों पर ध्यान दिया गया? 

देश खुले में शौच मुक्त हो रहा है। क्या इस देश में वो शहरी मलिन बस्तियां शामिल हैं, जो देश की सफाई व्यवस्था को बनाए रखने में सबसे अधिक योगदान देती हैं। घर-घर से, सड़क-सड़क से, कबाड़ बीनकर अपनी अवैध कही जाने वाली कॉलोनियों में ले जाने वालों की मलिन बस्तियां, क्या इस देश में शामिल हैं। इन मलिन बस्तियां के हालात गैर-मानवीय होते हैं। एक ओर चांद पर जाता देश है और दूसरी तरफ लाखों की आबादी समेटे मलिन बस्तियां।

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ऋषिकेश में गंगा तट से कुछ ही दूरी पर गोविंदनगर मलिन बस्ती के बच्चे खूब हंसते-मुस्कुराते नज़र आते हैं। दोपहर का समय था, इसलिए घर के बड़े अपने कामों पर निकले हुए थे। काली प्लास्टिक की चादरों से बनी छोटी-छोटी झुग्गियां और उनके अंदर ढेर सारा कबाड़ का सामान। कुछ छोटे बच्चे इन्हीं कबाड़ के बीच खेल रहे थे। वहीं एक पीपल के पेड़ की छांव में इनके देवता भी स्थापित थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक हैंडपंप लगा हुआ मिला। यहां कपड़ों की घेरेबंदी से बना शौचालय भी था। मैंने बच्चों से शौचालय के बारे में पूछा तो कुछ हंसने लगे। उन्होंने बताया कि बस्ती से लगते हुए ही शहर का कचरा समेटने वाला नाला गुजरता है। ज्यादातर लोग वहीं शौच के लिए जाते हैं। बस्ती की महिलाओं के लिए घेरबाड़ कर ये शौचालय बनाया गया है। लेकिन ये एक शौचालय काफी नहीं है। इस बस्ती की आबादी करीब दो हज़ार की है।
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ऋषिकेश में बीच शहर से चंद्रभागा नदी भी गुज़रती है। बरसात को छोड़कर नदी में आमतौर पर ज्यादा पानी नहीं रहता। इसके दोनों किनारों पर अनाधिकृत बस्ती बसी हुई है। इसी बरसात के मौसम में नगर निगम ने एनजीटी के आदेश का हवाला देकर 7 अगस्त को इस बस्ती पर कार्रवाई की, बस्ती उजाड़ दी और लोगों को बेघर कर दिया। उन बेघर लोगों के शौच की व्यवस्था कहां थी, जब उनके पास सिर छिपाने को छत ही नहीं थी? हालांकि मानवाधिकार आयोग के दखल के बाद जिलाधिकारी ने 29 सितंबर को बस्ती से हटाए गए लोगों को उचित सुविधा उपलब्ध कराने को कहा। इस दौरान बीमारी के चलते बस्ती के एक बच्चे की मौत भी हो गई।
ऋषिकेश में बीच शहर में कई जगह शौचालय भी बने हुए हैं। इनके आसपास सब्जी बेचने वाले और ठेली लगाने वालों ने बताया कि इनमें से कई सिर्फ इनके उदघाटन के समय ही खुले।


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देहरादून में अपने प्राण गंवा चुकी रिस्पना नदी को पुनर्जीवित कर ऋषिपर्णा नदी बनाने का अभियान चल रहा है। रिस्पना नदी के किनारे मलिन बस्तियों की एक अलग ही दुनिया बसी है। रिस्पना इन लोगों के लिए मां समान है, जिसके आंगन में उन्होंने अपनी दुनिया बनाई है। ये रिस्पना नदी के बच्चे हैं। ये ही असली स्वच्छाग्रही हैं। जो शहर में घूम-घूम कर कबाड़ जमा करते हैं। इस कबाड़ से ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। आम तौर पर सूखी रिस्पना में इस समय पानी तेज़ी से भाग रहा है। अगस्त के बाद सितंबर का पूरा महीना भी बारिश में भीगा हुआ रहा। इसका असर रिस्पना के किनारे बसी इन मलिन बस्तियों पर देखा जा सकता है। रेत-बजरी पर चलकर पैदल ही नदी पार करने वाले रिस्पना के लोग इस समय रेलवे के पुल से होकर नदी पार करते हैं। जो बेहद जोखिम भरा है। कभी तेज़ रफ्तार में ट्रेन आ गई तो पुल से लोगों को भागने का मौका नहीं मिलेगा और बिना पानी की नदी भी उनके काम न आएगी। मलिन बस्ती में किराये पर रहने वाली शोभा बताती हैं कि आधे लोग शौचालय का इस्तेमाल करते हैं, आधे लोग इधर-उधर जाते हैं।

रिस्पना किनारे ही दीपनगर की इस अनाधिकृत मलिन बस्ती के छोर पर छोटे-छोटे पक्के घर बन गए हैं। जिन पर हमेशा ही अतिक्रमण हटाओ अभियान की तलवार लटकी रहती है। पक्के घरों में लोगों ने शौचालय भी बनवाए हैं। ज्यादातर लोग यहां उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हैं। यहां कानपुर से आए और सब्जी बेचकर गुजारा कर रहे रमेश ने बताया कि वे शौचालय का इस्तेमाल करते हैं।


वर्ष 2011 के जन गणना आंकड़ों के मुताबिक 6.5 करोड़ लोग शहरी मलिन बस्तियों में रहते हैं। इसके अतिरिक्त 13 लाख 60 हज़ार लोग बेघर हैं। अब हम वर्ष 2019 में आ गए हैं और मलिन बस्तियां सिकुड़ी नहीं हैं, बल्कि और फैली हैं।

उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार के समय मलिन बस्तियों को रेग्यूलराइज़ करने की बात उठी। इसके लिए उत्तराखंड स्लम रिफॉर्म्स कमेटी गठित की गई। कमेटी ने की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 582 शहरी मलिन बस्तियां हैं, जिसमें करीब 7.7 लाख लोग रहते हैं। इनमें तकरीबन 46 प्रतिशत नगरी निकाय, राज्य या केंद्र सरकार की ज़मीन पर बसे हैं। हालांकि मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों की संख्या इससे कहीं अधिक बतायी जाती है। कमेटी ने कहा कि जिन बस्तियों में पानी और बिजली की सप्लाई है, जहां आधारभूत चीजें उपलब्ध हैं, उन्हें तत्काल रेग्यूलराइज किया जा सकता है। ये मलिन बस्तियों अभी तक रेग्यूलराइज नहीं की जा सकी हैं। पिछले वर्ष नैनीताल हाईकोर्ट के आदेश के बाद इन बस्तियों को भी अवैध अतिक्रमण के तहत हटाए जाने की योजना थी। लेकिन सरकार के अपने ही विधायक बस्ती वालों के पक्ष में खड़े हो गए। तब एक बार फिर मलिन बस्तियों को नियमित करने का मुद्दा उठा। दरअसल ये मलिन बस्तियां भी एक बड़ा वोट बैंक हैं। इस वोट बैंक को ख़ुश करने के लिए कहीं बिजली पहुंचा दी गई, कहीं पानी पहुंच गया, कहीं शौचालय पहुंच गया, कहीं कुछ भी नहीं। एक मकान में मालिक समेत किराये पर रहने वाले 10-12 लोग रह रहे हैं तो क्या ही एक ही शौचालय से काम चलेगा? खुले में शौच मुक्त भारत यहां सवाल की तरह नज़र आता है।

पिछले वर्ष सितंबर महीने में कैग की रिपोर्ट में उत्तराखंड को ओडीएफ घोषित करने पर सवाल उठाए गए थे। कैग ने अपनी रिपोर्ट में शौचालय निर्माण से जुड़ी गड़बड़ियों की ओर इशारा किया था। एक ही व्यक्ति के नाम से कई शौचालय बनाए गए। कैग ने गंगा किनारे सात जनपदों में स्थित 132 पंचायतों के 265 गांवों को खुले में शौचमुक्त का दावा गलत पाया गया था। 

युनाइटेड नेशंस, डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड सोशल अफेयर्स, 2014 के मुताबिक इस समय विश्व की आधी से अधिक आबादी शहरी क्षेत्र में रह रही है, जिसमें से 31.2 प्रतिशत मलिन बस्तियों में रहते हैं, इसमें 43 प्रतिशत मलिन बस्तियां विकासशील देशों में हैं। 

हम फिर उसी बात की ओर लौट आते हैं कि क्या ये मलिन बस्तियां हमारे राज्य, हमारे देश का हिस्सा हैं। दो वक्त की रोजी-रोटी की खातिर जहां बेहद खराब हालात में लोग रहने को विवश हैं। जब रहने के लिए एक अदद छत ही नहीं है तो शौचालय कैसे होगा। फिर खुले में शौच करने वाले अपराधी नज़र आऩे लगेंगे। ऐसे ही दो बच्चों को पीट-पीट कर मार दिया गया। ओडीएफ होने के लिए न्यू इंडिया के नक्शे से मलिन बस्तियों को रबर से घिस-घिस कर मिटाना होगा।

ओडीएफ के साथ ये भी दिक्कत है कि पानी की आपूर्ति हर घर तक नहीं है। जलस्रोतों के प्रदूषित होने और भूजल में गिरावट के साथ ही जल संकट भी गहराता जा रहा है। इसलिए जहां शौचालय बन भी गए हैं, वे इस्तेमाल में आएं, इसके लिए पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करानी होगी। पेयजल और स्वच्छता विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष अप्रैल तक 18.3 प्रतिशत घरों तक पाइप के जरिए पानी पहुंच रहा है। जबकि 54 प्रतिशत घरों तक पानी के पाइप लगे हैं।

(सभी तस्वीरें वर्षा सिंह)

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