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जेएनयू आतंकवाद रोधी पाठ्यक्रम: दबे स्वरों में होने वाली बेहूदा बकवास अब मुख्यधारा शिक्षा में शामिल

एक मुस्लिम-विरोधी और इस्लाम-विरोधी आख्यान को संस्थाबद्ध करने का काम जिसे अतीत में सिर्फ खुस-फुसाहट वाली बातचीत या कट्टर व्हाट्सएप्प ग्रुपों में ही सुना जाता था, एक प्रकार से मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सुरक्षित स्थान के एक और क्षरण को अंजाम दिया जा रहा है, जो आजादी के बाद से ही बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रह से जूझ रहा है, और अब किसी न किसी बहानों से अपने ऊपर होने वाले प्रत्यक्ष शारीरिक हमलों को होते देख रहा है।
जेएनयू आतंकवाद रोधी पाठ्यक्रम: दबे स्वरों में होने वाली बेहूदा बकवास अब मुख्यधारा शिक्षा में शामिल
चित्र साभार: द इंडियन एक्सप्रेस 

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 2021-22 के शैक्षणिक सत्र से आतंकवाद-रोधी विषय पर नया पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा और इसने कुछ हल्कों में खलबली मचा दी है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के लब्ध-प्रतिष्ठ संस्थान में इस नए पाठ्यक्रम में सिखाया जायेगा कि “जिहादी आतंकवाद” “कट्टरपंथी-धार्मिक आतंकवाद” का एकमात्र स्वरूप है। पाठ्यक्रम में यह भी पढ़ाया जायेगा कि तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में कम्युनिस्ट शासन “आतंकवाद के प्रमुख राज्य-प्रायोजक” थे जिन्होंने “कट्टरपंथी इस्लामिक राज्यों” को प्रभाव में लिया हुआ था।

पाठ्यक्रम की ये दोनों प्रस्थापनाएं गहन विश्लेषण के आगे भरभरा कर गिर जाती हैं और बिना किसी जांच के इन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना सत्तारूढ़ सरकार की देश में मौजूद शैक्षणिक संस्थाओं पर उनकी मजबूत पकड़ के बारे में बताता है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके वैचारिक माता-पिता, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) का भारतीय मुसलमानों के साथ इस भूमि के लिए सर्वथा पराये के तौर पर बर्ताव करने का एक लंबा इतिहास रहा है, जो सिर्फ उसी सूरत में योग्य नागरिक होने का दावा कर सकते हैं यदि वे अपने धर्म का परित्याग कर हिन्दू बन जाएँ। 

इसके अलावा, भाजपा द्वारा वामपंथी विचारधारा को नकारना भी एक नीतिगत मसला है, जिसमें तथाकथित नेहरूवादी समाजवाद के प्रति उनकी नापसंदगी के साथ 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही राज्य संपत्तियों की थोक बिकवाली में बेहद साफ़-साफ नजर आता है। किन्तु सरकार की कोशिशें अब बेकाबू हो रही हैं। हाल ही में घोषित “मुद्रीकरण” पर जोर, जिससे पूंजीपति वर्ग की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहने वाला है, से राष्ट्रीय संपत्तियों की और भी बड़ी संख्या में बिकवाली देखने को मिलेगी।

एक मुस्लिम-विरोधी और इस्लाम-विरोधी आख्यान को संस्थाबद्ध करने का काम, जिसे अतीत में सिर्फ खुस-फुसाहट वाली बातचीत या कट्टर व्हाट्सएप्प ग्रुपों में ही सुना जाता था, एक प्रकार से मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सुरक्षित स्थान के एक और क्षरण को अंजाम दिया जा रहा है, जो आजादी के बाद से ही बहुसंख्यकवादी पूर्वाग्रह से पीड़ित है, और अब किसी न किसी बहानों से अपने ऊपर होने वाले प्रत्यक्ष शारीरिक हमलों को होते देख रहा है। मुसलमानों को चूड़ियाँ बेचने, कबाड़ इकट्ठा करने या सिर्फ अपने वजूद में बने रहने जैसी वजहों से पीट-पीटकर मार डाला जा रहा है—और हमले के दौरान इस सबका फिल्मांकन किया जाता है, और हर कुछ साल बाद होने वाली सामूहिक हत्याओं के बारे में तो कुछ भी कहना फिजूल है।

अब इस पूर्वाग्रह को देश के सर्वश्रेष्ठ उदारवादी संस्थान में एक अधम पाठ्यक्रम के रूप में संस्थागत स्वरुप दिया जा रहा है।

कट्टरपंथ को परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता  

अपनी किताब गुड मुस्लिम, बैड मुस्लिम में कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महमूद ममदानी कट्टरपंथ की उत्पत्ति को 1920 के दशक के संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रोटेस्टेंट हलकों से उत्पन्न होने के रूप में निरुपित करते हैं। वे धार्मिक कट्टरपंथ को एक राजनीतिक आंदोलन नहीं बल्कि प्रति-सांस्कृतिक के रूप में देखते हैं, और इसे “धर्मनिरपेक्ष आधुनिकता को लागू किये जाने की प्रतिक्रिया” करार देते हैं, पूर्व-आधुनिक संस्कृति को पीछे छोड़ देने के खिलाफ - जैसा कि इसे विशिष्ट रूप में समझा जाता है।

ममदानी लिखते हैं, “इस प्रकार के सभी आंदोलनों का वर्णन करने के लिए ‘रुढ़िवाद’ को एक धार्मिक परिघटना के तौर पर उपयोग में लाने में एक समस्या यह है कि यह पूरी तरह से भिन्न ऐतिहासिक और राजनीतिक सन्दर्भों में गठित होने वाले आंदोलनों को एक समान बताने लगता है, और धार्मिक सिद्धांतों में हिंसा के स्थान सहित उनके सैद्धांतिक मतभेदों को छिपाने का काम करता है।” इसके बाद वह हर राजनीतिक आंदोलन की तुलना करने की कुलीनता पर सवाल खड़े करता है जो धर्म की भाषा को संभावित आतंकवादी के रूप में बोलता है।

इस प्रकार की बारीकियां जेएनयू के कट्टर पाठ्यक्रम की प्राथमिक दुर्घटना दूसरा हताहत होने वाला शिकार सत्य है। भले ही हम किसी मुसलमान द्वारा की गई हिंसा के प्रत्येक कृत्य को “जिहादी आतंकवाद” की अभिव्यक्ति के रूप में मान लें, तो भी जेएनयू के पाठ्यक्रम की पहली प्रस्थापना, कि कट्टरपंथी आतंकवाद सिर्फ इस्लामी है, से बड़ा ऐतिहासिक झूठ नहीं हो सकता है।

जबकि ममदानी 1920 के दशक में अमेरिका में ईसाई रुढ़िवाद की उत्पत्ति को रखते हैं, वहीँ यहूदी नए बसने वालों का कट्टरवाद मूल आबादी को आतंकित करने के एकमात्र उद्देश्य की खातिर जनादेश प्राप्त फिलिस्तीन में बाजार के चौराहों और बसों में बम विस्फोटों में इसे व्यक्त किया, ताकि वे उस भूमि को खाली कर दें जो 1948 में इजराइल बन गया था।

एक मशहूर टॉक, जिसका शीर्षक था आतंकवाद: उनका और हमारा, में दिवंगत राजनीतिक विज्ञानी इकबाल अहमद ने उनके कष्टों की अभिव्यक्ति के लिए किसी भी अन्य माध्यम के अभाव में फिलिस्तीनी प्रतिशोध से काफी पहले इस समस्या के मूल में यहूदी आतंकवाद को रखा है। इकबाल कहते हैं: “1942 तक, यहूदियों का नरसंहार हो रहा था, और पश्चिमी दुनिया में यहूदी लोगों के साथ एक निश्चित उदार सहानुभूति पैदा हो गई थी। उस बिंदु पर फिलिस्तीनी आतंकवादी, जो कि जियोनिस्ट थे, को अचानक से 1944-45 आते-आत्ते ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ के रूप में व्याख्यित किया जाने लगा।

“कम से कम दो इजरायली प्रधान मंत्री, जिसमें मेनाकेम बेगिन शामिल हैं, को वास्तव में आप पुस्तकों और पोस्टरों में उनकी तस्वीरों के साथ यह कहते हुए पा सकते हैं, ‘आतंकवादी, इसके उपर इतना ईनाम’। अभी तक मेरे देखने में आतंकवादी, मेनाकेम बेगिन के सिर पर सबसे बड़ा ईनाम 100,000 ब्रिटिश पाउंड का आया है।  

दूसरा इजरायली प्रधानमंत्री जिसके नाम के मोस्ट वांटेड पोस्टर लगे थे, यित्जाक शमीर था।

लेकिन इतिहास को मद्धिम रोशनी में पढ़ना उस शासन के लिए माकूल है जो अपने अधिकाँश राजनीतिक फायदे को मुसलमानों को किसी भी सूरत में कलंकित करने से प्राप्त करता है। 2019 के आखिरी दिनों में सीएए-विरोधी प्रदर्शनों के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की थी कि “हिंसक प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है”, जबकि तबके भाजपा प्रमुख और वर्तमान में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अप्रैल 2019 में खुलेआम बांग्लादेश से आये हुए मुस्लिम आप्रवासियों पर “दीमक” होने का ठप्पा लगाया था।

अब, हर दूसरे दिन, कोई न कोई नेता या यहाँ तक कि संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भी देश में किसी भी दुर्घटना की तुलना अफगानिस्तान में तालिबान के साथ करने लगता है, जिसका एकमात्र मकसद होता है कि किसी भी तरह से मुसलमानों को अब अफगानिस्तान में शासन कर रहे उनके सह-धर्मावलम्बियों के साथ जोड़ा जा सके। दिलचस्प बात यह है कि, सरकार को इस नए शासन से सौदेबाजी करने में कोई दिक्कत नहीं है, जबकि अपने घरेलू मैदान पर उसके खिलाफ खुलेआम उल्टी की जा रही है।

वास्तव में, यह वही शासन है जो संसद सदस्य के तौर पर एक भगवा-धारी आतंकी आरोपी होने; और इसके मूल संगठन के एक सदस्य द्वारा 1948 में गाँधी की हत्या कर देने के बावजूद, भगवा आतंक का जिक्र मात्र हो जाने पर छटपटाने लगता है।

आतंकवादियों को समर्थन देने वाला राज्य 

जेएनयू पाठ्यक्रम की दूसरी प्रस्थापना इसकी हास्यास्पद बेवकूफी में देखी जा सकती है। प्रोफेसर अहमद ने अपने उपरोक्त वक्तव्य में इस बात का जिक्र किया था कि जिहाद एक अंतर्राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर कम से कम चार शताब्दियों के लिए बेमानी हो गया था, जब तक कि रोनाल्ड रीगन प्रशासन द्वारा सोवियत संघ को झटका देने के उद्देश्य से इसके भूत को पुनर्जीवित नहीं किया गया था। इसी के चलते तालिबान के साथ-साथ अल क़ायदा का जन्म हुआ। 

अहमद कहते हैं “इस्लामी इतिहास [में], जिहाद एक अंतर्राष्ट्रीय हिंसक परिघटना के रूप में पिछले चार सौ वर्षों से हर प्रकार से पूरी तरह से गायब हो गया था। 1980 के दशक में अमेरिकी मदद से इसे अचानक से पुनर्जीवित किया गया। जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, तो जिया उल हक़ जो कि पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह थे, जिसकी सीमा अफगानिस्तान से लगती है, को इसमें एक अवसर नजर आया और उन्होंने ईश्वर-विहीन साम्यवाद के खिलाफ एक जिहाद शुरू कर दिया।”

“अमेरिका को इसमें एक ईश्वर-प्रदत्त अवसर नजर आया, जिसमें एक अरब मुसलमानों को लाम्बंद किया जा सकता था, जिसे रीगन ने शैतानी साम्राज्य कहा था। सीआईए एजेंटों ने सारे मुस्लिम जगत में जाना शुरू कर दिया और लोगों को इस महान जिहाद में लड़ने के लिए भर्ती करने लगे। [ओसामा] बिन लादेन भी उन्हीं में से एक शुरूआती इनामी रंगरूट था। वह सिर्फ अरब ही नहीं था। वह एक सऊदी नागरिक भी था। वह केवल एक सऊदी ही नहीं था। वह एक करोड़पति भी था, जो इस मामले में अपना खुद का पैसा भी लगाने को तैयार था। बिन लादेन ने साम्यवाद के खिलाफ जिहाद के लिए लोगों को भर्ती करने का अभियान शुरू कर दिया।

अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप और कट्टरपंथियों की आर्थिक तौर पर फंडिंग करना तो सिर्फ एक उदाहरण है। इसका भाड़े के हत्यारों के वित्तपोषण का इतिहास तो काफी लंबा है और इसमें दुनिया का समूचा विस्तार शामिल है - पूर्व में दक्षिण विएतनाम से लेकर पश्चिम में निकारागुआ के कोंट्रा विद्रोहियों तक और किसी न किसी बहाने से ऐसे अनेकों आत्मघाती शासनों का इतिहास इसमें शामिल है। 

इसके विपरीत, सोवियत संघ – या चीनी समर्थित आतंक की सूची या अन्य देशों में सीधे हस्तक्षेप का इतिहास काफी बंजर है।

इसके विपरीत, सोवियत संघ- या चीनी समर्थित आतंक या अन्य देशों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की सूची काफी बंजर है।

प्रचलन में अनुदारवादी 

जहाँ एक तरफ देश भर में भारतीय मुसलमान लगभग लगातार हिंसा की चपेट में हैं, वहीँ राज्य इसके अपराधियों को मुक्त करने के मामले में अपनी सांठ-गाँठ दिखाने से गुरेज नहीं कर रहा है। असल में देखें तो, हिंसात्मक कृत्य का फिल्मांकन करना राजनीतिक सफलता का जैसे शर्तिया जरिया बन गया है, जिसे किसी पूर्व मंत्री द्वारा माला पहनाकर स्वागत करने, या सत्तारूढ़ दल में शामिल किये जाने के रूप में देखा जा सकता है।

अब भारत के लब्ध-प्रतिष्ठ उदार संस्थान में खुल्लमखुल्ला इस्लामोफोबिया को पढ़ाने की कवायद सिर्फ धर्मान्धता को और मजबूती देने के मकसद से की जा रही है और जो शायद इस प्रकार के अविवेकी एवं धूर्त पाठ्यक्रमों से स्नातक बनने वाले छात्रों के लिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का कहीं बेहतर परिष्कृत बचाव का स्वरुप होने जा रहा है, जिनका उद्देश्य शिक्षा देने के लिए है।

वास्तव में, इस प्रकार की दोषपूर्ण शिक्षा करदाताओं के पैसे की साफ़-साफ़ बर्बादी है जो देश के कुछ बेहतर मष्तिष्कों को पूरी तरह से गलत चीजों में प्रशिक्षित करने पर जाया की जाने वाली है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

JNU Counterterrorism Course: Hushed Drivel is Now Mainstream Education

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