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मिल्खा सिंह : एक हीरो जिसे देश ने चाहा, लेकिन दूसरों की कीमत पर

भारतीय खेल के इतिहास में रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह के चौथे पायदान पर आने की उपलब्धि को खूब तराशा गया है। इस उपलब्धि पर कई किताबें और लेख लिखे गए, फ़िल्में बनाई गईं। लेकिन इसी दौरान केडी जाधव को फ्लाइंग सिख की तरह की प्रसिद्धि हासिल नहीं हुई। जबकि उन्होंने ओलंपिक में आज़ाद भारत का पहला व्यक्तिगत पदक जीता था। यह मिल्खा के साथ-साथ उस दौर की हक़ीक़त को भी बताता है, जब नतीजों से ज़्यादा बिना सवाल किए कड़ी मेहनत को ज़्यादा मूल्य दिया जाता था।
मिल्खा सिंह
मिल्खा सिंह की कहानी जितनी आकर्षक है, उतनी ही तत्कालीन भारत के लिए जरूरी भी थी। उस वक़्त भारत एक ऐसा युवा देश था, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान और साख बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था।

6 सितंबर, 1960 को जब मिल्खा सिं रोम ओलंपिक में थोड़े से फासले से मेडल जीतने से रह गए थे। उस दिन से 18 जून, 2021 को चंडीगढ़ में आखिरी सांस लेने तक मिल्खा सिंह ने अपनी बड़ी पहचान का भार ढोया। इन दो तारीख़ों के बीच, मिल्खा सिंह को जिंददी में जैसे किरदार मिले, जिनकी शुरुआत रोम से हुई थी, उसे उन्होंने बखूबी निभाया। मिल्खा सिंह ने लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत् बनने का काम किया। एक ऐसा इंसान, जिसने अपनी कड़ी मेहनत के दम पर दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों के कंधों से कंधे मिलाकर मुकाबला किया।

मिल्खा एक उम्मीद थे, लेकिन भारतीयों के लिए वे उस दौर की सच्चाई भी थे। इन दो अलग-अलग सिरों के सहारे, उनकी उपलब्धियों की कहानियों के धागे, कई बड़े उद्देश्यों के लिए पिरोए गए थे। इसके बावजूद मिल्खा हमेशा अपने मिशन और विश्वास पर ईमानदारी के साथ कायम रहे। उनका मिशन उत्कृष्टता और कड़ी मेहनत के आसपास केंद्रित था। एक ऐसा मिशन जिसमें जीत की चाहत थी। ऐसा मिशन जो तेजी के साथ जीत की तरफ बढ़ता था। लेकिन विडंबना यह रही कि भारत में उन्हें एक हार के लिए याद किया जाता है। महान लोग हमेशा भार के साथ यात्रा करते हैं।

मिल्खा सिंह की कहानी जितनी आकर्षक है, वह तत्कालीन भारत के लिए उतनी जरूरी भी थी। तब भारत एक युवा देश था, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख और पहचान स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। आज़ाद होने के बाद, शुरुआती 25 सालों में खेल एक विलासिता था। लेकिन यह एक ऐसी विलासिता थी, जिसमें देश के आत्मविश्वास बढ़ाने की क्षमता थी। इस विलासिता में लोगों को खुशियां मनाने का मौका देने और खेल संस्कृति का आधार बनाने की ताकत थी। लेकिन दुखद है कि आज भी इस आधार की कमी बनी हुई है।

इस तरह मिल्खा असल मायनों में भारत के बेटे थे। वह लोगों की प्रेरणा के लिए बिल्कुल सटीक आदर्श थे। सिर्फ़ खेल की दुनिया में नहीं, बल्कि हर क्षेत्र के लोगों के लिए मिल्खा आदर्श बनने के लिए मुफ़ीद थे। अपनी तमाम चूकों के बावजूद, मिल्खा पूरे देश के लिए आदर्श थे। यह वह दौर था, जब लोगों से यह नहीं पूछा जाता था कि "आपके देश ने आपके लिए क्या किया", उनसे पूछा जाता था कि "आपने अपने देश के लिए क्या किया।" 

मौजूदा दौर में हमें देश से जवाबदेही की मांग करनी चाहिए। यह आज सबसे जरूरी है, लेकिन 1950 और 60 के दशक में इससे ठीक विपरीत चीज को प्रोत्साहन दिया जाता था। शायद तब उस दौर के लिए सबसे बेहतर वही समझा जाता होगा। मिल्खा अपने वक़्त की पैदाईश थे और उन्हें जो किरदार मिले थे, चाहे कर्तव्यनिष्ठ सेनाधिकारी या तेजतर्रार प्रतिस्पर्धी या फिर एक आदर्श धावक का, उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से उनको निभाया।

मिल्खा सिंह की प्रसिद्धि बढ़ती गई। रोम ओलंपिक में उनके पदक जीतते-जीतते रह जाने से मिल्खा सिंह के व्यक्तित्व में वह आकर्षण आ गया, जिसके चलते उन्हें कई पीढ़ियों तक भारतीय एथलेटिक्स का प्रथम नागरिक माना जाता रहा। यह वह ओहदा है, जिसका पदकों से शायद कोई लेना-देना नहीं है।

लेकिन उनकी मौत के बाद मेरे दिमाग में एक सवाल लगातार आ रहा है। आखिर किस चीज ने विख्यात मिल्खा सिंह को बनाया? आखिर क्यों एक देश के तौर पर हमने रोम ओलंपिक में मिल्खा के चौथे पायदान पर आने का इतना जश्न मनाया, जबकि उनसे पहले उनके जितने ही मेहनती और प्रतिबद्ध, मिट्टी के लाल के डी जाधव ओलंपिक में व्यक्तिगत पदक जीत चुके थे। 

यह लेख मिल्खा सिंह के योगदान को कम करके दिखाने के लिए कतई नहीं है। यह बस उन परिस्थितियों को समझने की कोशिश है, जिनमें हमने एक राष्ट्र के तौर पर हमने उनके चौथे पायदान का अथक जश्न मनाया। जबकि 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में केडी जाधव का जीता कांस्य पदक उतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाया। 

इसका लेना-देना शायद उस आदर्शवाद (जिसके जाल से भी हम लोग परिचित हैं) से है, जो उस वक़्त भारतीय नागरिकों में भरा जा रहा था। मिल्खा सिंह की सफलता ने एक युवा देश के उद्देश्यों की पूर्ति की। नागरिक, राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा थे, लेकिन नतीज़ा दिखना अभी बाकी था। भारतीय तब संघर्ष कर रहे थे और भूख से जूझ रहे थे। हमें एक ऐसे हीरो को दिखाने की जरूरत थी, जिसकी मेहनत अलग ही दिखती थी, अब भी दिखती है। इसका अच्छे या बुरे नतीज़ों से कोई लेना-देना नहीं था। यह बात उस तथ्य से मेल खाती थी कि व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंक एक या दूसरे रूप में वह कभी न कभी सामने आ ही जाएगा। हो सकता है किसी की मेहनत का फल भविष्य की पीढ़ियों को मिले। एक आदर्श नागरिक से बड़े उद्देश्य को पूरा करने के लिए काम करने की अपेक्षा की जाती थी, जिसके लिए मेहनत, वफ़ादारी, नतीज़ों और असफलता के बावजूद मजबूत इच्छा बनाए रखना जरूरी था।

किसी लक्ष्य से करीब़ से चूक जाने की कहानी के साथ भारतीय आकर्षण की दिलचस्प अवधारणा का यह सिर्फ़ एक पहलू है। मिल्खा सिंह की जड़ों और उनके अतीत ने उनकी कहानी में, उनके आसपास के लोगों से ज़्यादा रुहानियत पैदा कर दी। यहां एक इंसान था, जो पाकिस्तान में पैदा हुआ, लेकिन उसे भारत ने "फ्लाइंग सिख" बनाया। जबकि महाराष्ट्र के पहलवान केडी जाधव की कहानी, सीमा विवाद और विभाजन से पैदा हुए पहचान के संकट से काफ़ी दूर थी। जाधव पहलवानों के परिवार में पैदा हुए, जहां उन्हें खिलाड़ी और एक विजेता बनने के लिए ढाला गया। उनकी जिंदगी के शुरुआती सालों में कहीं भी संघर्ष या अंग्रेजों के चलते पैदा हुए सांप्रदायिक विवाद से ऊपजी पीड़ा की कहानी दिखाई नहीं पड़ती। 

इन बातों का यह मतलब कतई नहीं है कि मिल्खा की कहानी को जानबूझकर गढ़ा गया, क्योंकि इससे एक उद्देश्य की पूर्ति होती थी। यह सच्ची कहानी थी। उनकी पसीने की हर एक बूंद, हर वह दौड़ जिसमें मिल्खा दौड़े, आगे रहे और जीते, उसने एक बड़ा पहाड़ खड़ा किया। यहां बस यह समझने की कोशिश की जा रही है कि पसीने-पसीने में बराबरी क्यों नहीं दिखाई पड़ती। पहलवान जाधव ने भी बहुत मेहनत की। अखाड़े में अपना पसीना, कई बार शायद खून भी बहाया होगा। उन्होंने तब कांस्य पदक जीता, जब देश के लिए हॉकी टीम को छोड़कर शायद ही कोई कुछ जीत रहा था। खुद जाधव 1948 के खेलों में पदक से चूक गए थे। 

इसकी वज़ह बताई जा सकती है। आखिर वज़ह तो होनी ही चाहिए। शायद 1952 का साल आज़ादी के बहुत पास था और एक देश के तौर पर हम इसके लिए तैयार नहीं थे। हालांकि किसी युवा राष्ट्र के लिए ओलंपिक की कीमत समझी जा सकती है। जब 2012 में मुझे हॉकी के दिग्गज खिलाड़ी लेस्ली क्लॉडियस से उनकी मौत के कुछ दिन पहले मिलने का मौका मिला, तो उन्होंने बहुत साफ़गोई से बताया कि क्यों भारतीय हॉकी टीम 1948 में जीतना चाहती थी। वह पदक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पहचान के लिए बहुत जरूरी था। चार साल बाद हॉकी टीम ने फिर से स्वर्ण पदक और जाधव ने कांस्य पदक जीता। उस दौरान भले ही मीडिया- रेडियो और अख़बारों का उतना विस्तार नहीं हुआ था, लेकिन हॉकी टीम और जाधव की सफलता जनता के बीच खूब पहुंची थी। हेलसिंकी से लौटने पर बहुत बड़े हुजूम और बड़े कार्यक्रमों द्वारा जाधव के स्वागत की कहानी मौजूद है। लेकिन जाधव की जीत से उस दौरान लोगों में जो उन्माद और जोश आया था, वह लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाया। 

यहां खेल का दोहरा रवैया साफ़ दिखाई दे रहा है। इसका मिल्खा सिंह या के डी जाधव से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इसका संबंध तत्कालीन भारत में मौजूद सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल से है। यहां कुख्यात क्षेत्रीय फायदे-घाटे ने भी अपना किरदार निभाया। जिसमें उत्तर और मध्यक्षेत्र के इतिहास बताने वालों का मराठी और दक्षिण भारतीय इतिहासकारों से अपना टकराव है। हम सभी जानते हैं कि ऐसी अनियमित्ताएं मौजूद थीं। कई बार इनसे विवाद और संघर्ष भी पैदा हुए। चाहे तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की बात हो या महाराष्ट्र में मराठी मानुष आंदोलन की।

इस सब के बीच मिल्खा सिंह खुद को आदर्श के शिखर पर ले गए। उनकी सफलताएं 1960 के रोम ओलंपिक में उनके चौथे पायदान पर आने के परे जाती हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि उन्हें किसी भारतीय एथलीट के ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने और उनके पदक से करीब से चूक जाने के अजीबो-गरीब़ जश्न के खात्मे का इंतज़ार है। शायद वो खुद इसके बारे में याद करना नहीं चाहते थे।

उनसे हुई दो मुलाकातों में मैंने यह बात खूब महसूस की। सीधे शब्दों में नहीं, लेकिन उनकी आंखों और आवाज़ में आने वाले ठहराव से। जबकि आमतौर पर उनकी भारी आवाज़ धाराप्रवाह ही होती थी। ऐसा लगता जैसे वह कह रहे हों कि अगर उनसे रोम ओलंपिक पर सवाल ना पूछा जाता, तो उन्हें ज़्यादा अच्छा लगता। लेकिन हम सबने यह सवाल पूछा। ओलंपिक चक्र में हर चार साल में दूसरे महान ओलंपिक खिलाड़ियों के साथ-साथ महान मिल्खा को याद किया जाता। जब पूरा देश आने वाले ओलंपिक में एथलीट्स की संभावनाओं पर चर्चा कर रहा होता था कि क्या यह एथलीट मिल्खा सिंह से एक या दो पायदान ऊपर पहुंच सकेंगे, तभी मिल्खा सिंह से रोम ओलंपिक में पदक से करीब़ से चूक जाने से जुड़ी यादें पर सवाल किए जाते। 

रोम में टूटे दिल की कहानियां सुनाई जाती रहतीं, मिल्खा सिंह देश के लिए पदक ना लाने पर दुख जताते रहते, एक बार फिर उन्हें दर्द होता और उसके बाद वापस मिल्खा अपने व्यक्तित्व में चले जाते, जहां वो एक आदर्श हैं, प्रेरणा हैं, भारत के चहेते बेटे हैं और ऐसे विजेता हैं, जिन्हें हमेशा याद किया जाएगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Milkha Singh Retrospective: The Hero The Country Needed, At the Cost Of Others

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