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ना शौचालय, ना सुरक्षा: स्वतंत्र क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं से कंपनियों के कोरे वायदे

भारत में गिग इकोनॉमी (छोटी अर्थव्यवस्था) में काम करने वाले कामगारों को आने वाली दिक्कतों पर कुछ समय से काम किया जा रहा है, लेकिन महिला कर्मचारियों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है।
ना शौचालय, ना सुरक्षा

भारत में गिग इकोनॉमी (स्वतंत्र तरीके से काम करने वाले लोगों से बनने वाली अर्थव्यवस्था) में काम करने वाले कामगारों को आने वाली दिक्कतों पर कुछ समय से काम किया जा रहा है, लेकिन महिला कर्मचारियों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है। सबा गुरमत इस तरह की महिला कर्मचारियों के सामने आने वाली सबसे बड़ी दिक्कतों को उठा रही हैं, जिनमें शौचालय सुविधा तक पहुंच की कमी और व्यक्तिगत सुरक्षा जैसे मुद्दे शामिल हैं।

45 साल की कैब चालक शीतल ने कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद नियमित व्यावसायिक चालक के बजाए ओला में काम करना शुरू कर दिया था। यह पहले उनके लिए एक सपने जैसा था। 2010 के बाद ओला और उबर जैसे मोबाइल आधारित मंचों ने चालकों के लिए ज्यादा स्वतंत्रता और अच्छे भुगतान की उम्मीद जताई। जबकि जिन प्रोत्साहनों का वायदा किया गया था, वे 2015 के बाद से कम होते चले गए।

लेकिन शीतल जैसी चालकों के लिए प्रोत्साहनों की कमी को इन कंपनियों द्वारा महिलाओं के साथ किए जाने वाले व्यवहार ने और भी बदतर के दिया।

वह कहती हैं, "इस लाइन में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं एकल माताएं और अपने परिवार की कमाई सदस्य हैं। मेरे जैसी महिलाएं इसलिए यहां आईं, क्योंकि यहां यह विचार था कि कोई भी अपने घरेलू काम खत्म करने के बाद किसी भी वक़्त एप में लॉगिन कर अपना काम शुरू कर सकता था।" शीतल नाराजगी जताते हुए कहती हैं, "कंपनियां अब भी पुरुषों और महिलाओं में सकारात्मक अंतर नहीं करतीं।"

ओला, उबर, स्विजी, जोमाटो और अर्बन कंपनी उन डिजिटल मंचों में शामिल हैं, जो भारत की बढ़ती गिग इकनॉमी का बड़ा हिस्सा बनती हैं। ASSOCHAM (एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया) के मुताबिक़, भारत में फिलहाल डेढ़ करोड़ गिग या स्वतंत्र कर्मचारी हैं। ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट की 2017 ऑनलाइन लेबर इंडेक्स के मुताबिक भारत ऑनलाइन श्रम उपलब्ध कराने वाला सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। भारत की इस तरह के वैश्विक श्रम में 24 फ़ीसदी की हिस्सेदारी है।

मोबाइल एप्र के जरिए अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने वाले गिग कर्मचारियों को मनमुताबिक बनाए गए रेटिंग सिस्टम के तहत काम करना होता है, जिसकी बहुत आलोचना भी हुई है। आज एप आधारित सिस्टम, काम की खराब स्थितियां, सामाजिक कल्याण लाभ की गैर हाजिरी और इन कर्मचारियों को कानूनी तौर पर कर्मचारी का दर्जा ना मिला पाना, इसे कामगारों के सामने की बड़ी चुनौतियों में शामिल है। फिर लैंगिक आधार कि दिक्कतों ने महिलाओं के लिए स्थिति और भी चिंताजनक बना दी है।

मौजूद नहीं है शौचालय, सुविधाओं की कमी

23 सितंबर 2021 को न्यू यॉर्क सिटी काउंसिल ने 6 अहम विधेयक पारित किए, जो गिग इकनॉमी से संबंधित हैं। इनमें यह प्रावधान किया गया है कि डिलीवरी पहुंचाने वालों को रेस्टोरेंट में शौचालय की व्यवस्था हो, उन्हें कितनी दूरी तक डिलीवरी देने के लिए भेजा जा सकता है, उनका न्यूनतम भत्ता कितना हो और उन्हें दूसरे फायदे कैसे मिल सकते हों।

इस बीच जून 2021 में जोमाटो ने घोषणा करते हुए कि वो अपनी श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 0.5 से 10 बढ़ाने की योजना बना रहा है। कंपनी ने सीईओ दीपिंदर गोयल ने अपनी श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए चार योजनाओं के बारे में बताया। इनमें सुरक्षा आधारित उपकरण जैसे सुरक्षा किट और प्रशिक्षण, स्पर्श रहित सेवा, एप पर अपात उपयोग  शामिल हैं। साथ ही कंपनी के साझेदार रेस्टोरेंट से उनके शौचालयों तक पहुंच जैसी सुविधाएं शामिल हैं।

पिछले हफ्ते ही स्विजी ने अपने ब्लॉग पर एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी करते हुए ऐसी ही सुविधाओं के  बारे में बताया जिनके जरिए महिलाओं की भागेदारी बढ़ाई जानी थी। जोमाटो की तरह कदम उठाने के साथ ही स्विजी ने मासिक धर्म के समय दो दिन की छुट्टी दिए जाने का ऐलान किया था।

इन वायदों के बावजूद महिला गिग कर्मचारियों को ऐसी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है। जोमाटो में काम करने वाली अनीता (बदला हुआ नाम) के लिए साझेदार रेस्टोरेंट में शौचालय का उपयोग एक ऐसी सुविधा है, जिसके बारे में वे कोशिश तक नहीं कर सकतीं। इस सबके बावजूद एक महीने पहले अनीता ने जोमाटो में सेवा शुरू कर दी।

अनीता कहती हैं, "हम कामगारों के लिए कोई सुविधाएं मौजूद नहीं हैं, मैंने कभी रेस्टोरेंट से पूछा भी नहीं. जिस भी इलाके में हमें मिले, हम पेट्रोल पंप पर निर्भर होते हैं।

लीफलेट से बात करते हुए अज्ञात ट्विटर अकाउंट @deliveryboy कामगारों की समस्याओं की तरफ  ध्यान दिलाते हुए कहा कि शौचालय तक पहुंच को कोई समस्या नहीं माना जाता, क्योंकि ज्यादातर कामगार पुरुष हैं। वह कहते हैं, "विदेशों में अपने सुना होगा कि कई गिग कामगार बोतलों में पेशाब कर रहे हैं और बीटेक में पेशाब लेकर चक रहे हैं, तो इसलिए वहां कानून बनाए जाने की जरूरत थी। जबकि भारत में पुरुष कहीं भी पेशाब कर सकते हैं। जबकि महिलाओं के लिए यह बाधा है।

स्विगी, ओला और उबर से किसी भी प्रवक्ता ने शौचालय सुविधाओं के बारे में  लीफलेट को जवाब नहीं दिया। प्रतिक्रिया आने ले इस लेख में शामिल कर ली जाएगी।

महाराष्ट्र में एप आधारित ट्रांसपोर्ट यूनियन की उपाध्यक्ष और इंडियन फेडरेशन ऑफ एप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स की सदस्य सोनू शर्मा ने कहा कि यह बिल्कुल सही है कि रेस्टोरेंट में शौचालय उपयोग की अनुमति नहीं  होती। भले ही सरकार उन्हें उपयोग करने देने के बारे में बोल चुकी हो।

ओला में 6 सालों तक ड्राइवर के तौर पर सेवा देने  वाली शर्मा ने इन महिलाओं के सामने आने वाले स्वास्थ्य खतरों की तरफ भी ध्यान दिलाया। "कई महिलाएं पेशाब को रोकने की कोशिश करती हैं। कई बार 10-12 घंटे भी गुजर जाते हैं। अगर किसी महिला का सीजर हुआ हो तो वे ऐसा नहीं कर सकतीं और उनके शरीर को दिक्कत होने लगेगी।" शर्मा ने यह भी बताया कि कैसे उनकी जानने वाली कई महिलाएं एयरपोर्ट तक सवारी लाने ले जाने को तरजीह देती हैं, ताकि वहां का शौचालय उपयोग किया जा सके।

ससेक्स यूनिवर्सिटी की शोधार्थी कावेरी मेडप्पा का शोध प्लेटफॉर्म कामगारों की काम की स्थितियों पर है।  उन्होंने पाया कि कैसे बुनियादी सेवाओं तक पहुंच ना होने से पुरुष कामगारों को भी खतरा होता है। वे कहती हैं, "मैंने अपने शोध में पाया कि कई महिलाएं जन बूझकर पानी नहीं पीती, ताकि उन्हें कम मल त्याग की इच्छा हो। कई तो नाश्ता भी नहीं करतीं, ताकि काम मिलने के अच्छे घंटे उनके हाथ से ना निकल जाएं।

उन्होंने पाया कि "चूंकि इस काम में पुरुषों का इतना ज्यादा प्रभुत्व है कि कभी मल त्याग को समस्या के तौर पर नहीं देखा गया। लेकिन यह लोग 12 से 15 घंटे काम करते हैं और मल संक्रमण, गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल बीमारियां, बवासीर जैसी कई स्वास्थ्य समस्याएं सामने आ जाती हैं। ऐसा इनकी काम की प्रवृत्ति के चलते होता है। इसका संबंध अनियमित खानपान की आदतों से भी है।"

सुरक्षा का ख़तरा

2010 के दशक के मध्य में उबर और ओला को भारत में लोकप्रियता हासिल हुई। दोनों ही कंपनियों ने महिलाओं की भर्ती के लिए कर कैंपेन चलाए। 2015 में ओला ने सिर्फ महिलाओं द्वारा चलाया जाने वाला पिंक कैब्स का विचार पेश किया। उबर ने भी भारत में 50000 महिलाओं के लिए 2020 तक नौकरियां लाने का वक्तव्य जारी किया था।

लीफलेट ने ओला और उबर को कई ईमेल भेजें ताकि महिलाओं द्वारा चलाए जाने वाहनों का आंकड़ा जाना जा सके। लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। 

शीतल ने हमें बताया कि सुरक्षा और रात को महिलाओं द्वारा चालन किए जाने से जुड़ी रूढ़ियों व परिवार की सुरक्षा संबंधी चिंताएं उनके और उनके साथियों के लिए सबसे बड़ी बाधा बनी रहीं। "हममें से कई सुरक्षा कारणों के चलते इंटरनेशनल एयरपोर्ट जैसी जगहों पर काम करना पसंद करते हैं । हमें एयरपोर्ट पर महिला चालकों के लिए भी अलग से जगह की जरूरत है।" शीतल ने कहा कि कंपनियां अपने सुरक्षा के वायदों को पूरा नहीं कर रही हैं।

शीतल कहती हैं, "हमें कंपनियों  से कुछ नहीं मिला। सिर्फ पेपर स्प्रे वाली एक किट। हम एप पर एक ऐसा फीचर चाहते हैं जो मुश्किल वक़्त में कंपनी से सीधा संपर्क करवा सके।" उबर कुछ समय के लिए यह सुविधा लाया था जो सायरन या कैमरा था, जो यात्रा पर निगरानी करना शुरू कर देता था। लेकिन महिला चालकों की नाराज़गी के बावजूद उसे हटा दिया गया।

आपात स्थिति में संपर्क और हेल्पलाइन तंत्र की मांग कई महिलाएं उठा चुकी हैं। सभी ने बताया कि हर कंपनी अपने काम में लैंगिक संवेदनशीलता लाने में नाकामयाब रही है।

नाम।ना चलने की शर्त पर जोमेटो के साथ काम करने वाली एक महिला ने कहा कि अगर कंपनियां जानती हैं कि हम महिलाएं हैं, तो  उन्हें 2-3 किलोमीटर में ही डिलिवरी करवानी चाहिए। कम से कम रेट के वक़्त तो ऐसा होना चाहिए। हमें ज्यादा लंबे सफर ना करवाएं और सुनिश्चित करें कि एक महिला के तौर पर हमें सुरक्षित माहौल मिले।

शर्मा ने यह भी बताया कि कैसे महिला चालकों के लिए कोई लैंगिक संवेदनशील विशेष व्यवस्था भी नहीं है, जैसे महिला चालकों के लिए कोई अलग से एप्र या योजना। "मै दिल्ली में उबर काम करने वाली महिलाओं को जानती हूं जो यह शिकायत करती हैं कि उन्हें पुरुष चालकों की तरह ही सवारियां ( परिवार के बिना या अकेले पुरुष) मिलती है। हमारा संघ कंपनियों  की तरफ से महिला चालकों के लिए विशेष योजना और सुरक्षा व्यवस्था की जवाबदेही तय करने के लिए संघर्ष कर रहा है।"

 समाधान क्या है?

अक्टूबर 2022 की शुरुआत में एंट्रेकर ने बताया कि अर्बन कंपनी से जुड़ी 100 से ज्यादा महिलाओं ने हड़ताल कर दी, जो कंपनी द्वारा दिए जा रहे कम भत्ते, बड़ी मात्रा में कमिशन लेने और महिलाओं के लिए सुरक्षा और काम की खराब स्थितियों के खिलाफ थी। लगातार प्रदर्शन और मीडिया कवरेज के बाद कंपनी ने अपना कमिशन कम किया।

शर्मा का जहां मानना है कि कामगारों के संघ मजबूत होने चाहिए, वहीं  शीतल जैसे दूसरे लोगों ने यहां सरकार की जिम्मेदारी और कार्रवाई की जवाबदेही बताई।

शीतल कहती हैं, "हमारी सुरक्षा, हमारा शौचालय और उन तक पहुंच पर रोक सरकारी कार्रवाई से बदल सकती है। दूसरे देशों को देखिए। अगर सरकार कार्रवाई करती है तो यह कंपनियां भी सीधी ही जाती हैं और बेहतर भत्ते व सुविधाएं उपलब्ध करवाती हैं, जिनमें शौचालय भी शामिल हैं।"

मेडप्पा भी सहमति जताते हुए कहती हैं, "अगर आप महिलाओं के काम करने के लिए जरूरी स्थितियां नहीं बनाते, तो कोई भी शामिल नहीं होगा। अगर कोई शामिल हो भी गया तो उनका शोषण होगा।कंपनियां सिर्फ महिलाओं को बैनर की तरह इस्तेमाल करेंगी, जिससे उन्हें अच्छा प्रचार मिले। लेकिन इन कामगारों की स्थिति नहीं  सुधरेगी।"

इसके बाद वो मामले के केंद्र में आती हैं, "समस्या शौचालय की कमी की नहीं है। बात रेटिंग आधारित इस तंत्र, जिसमें कामगार के पास कोई ताकत नहीं बचती और एप आधारित कंपनियों द्वारा पेश की जाने वाली चाटुकारिता की आदत की है। जब कर्मचारियों  के पास वापस संघर्ष करने और मोलभवर करने की ताकत नहीं होगी, तो यही सब होगा। अगर कोई कर्मचारी आवाज उठाता है तो उनकी आईडी बंद कर दी जाती है। बड़ी समस्या इस तंत्र द्वारा बनाई गई बेबसी की है। शौचालय और दूसरी जगह तक पहुंच की समस्याएं बस इसके लक्षण मात्र हैं।

सबा गुरमत द लीफलेट में स्टाफ़ रिपोर्टर हैं 

साभार - द लीफ़लेट

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