रफ़ाल सौदा: एक और भंडाफोड़
फ्रांसीसी खोजी वैब पोर्टल, मीडियापार्ट ने पिछले पखवाड़े तीन किस्तों में एक लेख प्रकाशित किया है जिसमें, विवादास्पद रफ़ाल सौदे से जुड़ी बहुत ही सनसनीखेज, नयी सामग्री है। इस सामग्री ने एक बार इस सौदे से जुड़े संदेहास्पद कदमों, संभावित संदिग्ध लेन-देनों और भारत व फ्रांस दोनों में, कथित रूप से स्वतंत्र एजेंसियों तथा शीर्ष शासकीय व कार्पोरेट अधिकारियों के असहयोगात्मक प्रत्युत्तर को, चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
2016 के सितंबर में नये रफ़ाल सौदे पर दस्तखत होने के बाद से, भारत में इस सौदे की कोई जांच होने ही नहीं दी गयी है। यह इस सौदे की जांच की सार्वजनिक मांगों के बावजूद और इसके बावजूद हुआ है कि प्रेस ने, रक्षा विश्लेषणकर्ताओं ने तथा कानून के विशेषज्ञों तथा अन्य लोगों ने, बड़ी मात्रा में इस सौदे से जुड़ी सामग्री प्रकाशित कर, गंभीर सवाल उठाए हैं। जैसी की उम्मीद की जाती थी, मीडियापार्ट के रहस्योद्घाटनों का भी शासक पार्टी तथा उससे जुड़ी हुई ताकतों के प्रवक्ताओं ने सीधे-सीधे इंकार करने, एक सिरे से खारिज करने तथा हिकारत से पेश आने के रूप में ही जवाब दिया है।
लेकिन, समस्या यह है कि इन नयी जानकारियों के आने के बाद, रफ़ाल सौदे के गिर्द धुंधलका और भी बढ़ गया है और इस सौदे पर पहले ही मंडरा रहे संदेह के काले बादल और भी बढ़ गए हैं। कोई भी विवेकवान व्यक्ति यही कहेगा कि जब इतना सारा धुआं है, तो कहीं न कहीं तो आग होगी ही और तब क्या यही बेहतर नहीं होगा कि कम से कम इस आग का पता लगाया जाए, न कि सिर्फ इसके इंतजार में बैठे रहा जाए कि वक्त गुजरने के साथ तथा इधर से गुजरती हवाओं से, धुआं खुद ही बिखर जाएगा।
मीडियापार्ट के रहस्योद्घाटन
इस रहस्योद्घाटन शृंखला के पहले खंड में मीडियापार्ट ने यह उजागर किया कि 2018 के अप्रैल में, दस्सां एविएशन का ऑडिट करने के दौरान, फ्रांसीसी एंटी-करप्शन एजेंसी (एएफए, जो कि भारतीय सीएजी जैसी ही है लेकिन निजी फर्मों के भी ऑडिट करती है) की नजर में 2017 में किया गया एक असामान्य भुगतान पड़ा। लगभग 5 लाख यूरो (करीब 4.5 करोड़ रुपये) का यह भुगतान, भारत की डेफसिस सिस्टम्स के लिए, ‘क्लाइंट के लिए उपहार के तौर पर’ रफ़ाल लड़ाकू विमान के 50 छोटे मॉडल बनाने के लिए किया गया था। दस्सां ने 10 लाख यूरो (9 करोड़ रुपये से ज्यादा) का प्रोफार्मा इन्वोइस तो ऑडिट एजेंसी के सामने पेश किया था, लेकिन वह न तो इन मॉडलों के वास्तव में तैयार किए जाने या डिलीवर किए जाने के साक्ष्य के रूप में कोई अन्य दस्तावेज या फोटोग्राफ पेश कर सका और न ऑडीटरों को और कोई ब्यौरा ही दे सका। दस्सां इसका औचित्य भी नहीं सिद्ध कर सका कि ये मॉडल बनाने के लिए भारतीय फर्म को ही क्यों काम दिया गया और क्यों उसे इन मॉडलों की इतनी ऊंची कीमत दी गयी। ऐसा लगता है कि एएफए को इसमें दाल में कुछ काला दिखाई दिया था और इसका ऑडिट रिपोर्ट में दो पैरों में जिक्र भी किया गया था। लेकिन, उसने इसकी रिपोर्ट अधिकारियों से नहीं की। ऑडीटर तथा दस्सां दोनों ने ही, मीडियापार्ट से इस संबंध में आगे कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।
मीडियापार्ट के रहस्योद्घाटन के दूसरे खंड में इसे कुछ विस्तार से उजागर किया गया है कि इस तथा अन्य लेन-देनों के मामले में, जिनकी चर्चा बाद में की गयी है, हरेक छानबीन को किस तरह फ्रांसीसी अधिकारियों तथा जांच एजेंसियों द्वारा रोका गया है। यह किया गया है ‘फ्रांस के हितों’ और ‘संस्थाओं के काम-करने’ की दुहाई देकर। ये अधिकारीगण, इतने हड़बड़ाए हुए क्यों हैं?
डेफसिस सिस्टम्स कोई संदिग्ध, रातों-रात प्रकट हुई कंपनी नहीं है। यह तो एक सुस्थापित प्रतिरक्षा कारोबारी कंपनी है और भारत में रफ़ाल सौदे के अनेक उप-कांट्रैक्टरों में से एक है। इस कंपनी को रफ़ाल के सिमुलेटरों के रख-रखाव का ठेका दिया गया। ये सिमुलेटर, दस्सां की सब्सीडियरी, सोजिटेक से आए हैं और वायु सेना के अंबाला तथा हासीमारा अड्डों पर लगाए गए हैं, जहां रफ़ाल के स्क्वेड्रनों का बेस होने जा रहा है।
जैसा कि अब पता चला है, कम से कम जीएसटी की प्रविष्टियों, वे बिलों तथा ट्रांस्पोर्टेशन दस्तावेजों के अनुसार, डेफसिस ने वाकई अनेक किश्तों में हवाई जहाज के 50 छोटे मॉडल, 2017 के सितंबर से 2018 की जनवरी के बीच, बंगलौर से दस्सां के दिल्ली कार्यालय में भेजे थे! उसके बाद से ये छोटे मॉडल भारत में विभिन्न असैनिक व सैन्य संस्थानों में प्रदर्शित किए जाते रहे हैं। हथियारों के सौदों के मामले में यह एक आम रिवायत ही है, फिर इस मामले में इतनी गोपनीयता क्यों?
इस सवाल का जवाब एक हद तक तो इन मॉडलों के लिए लगायी गयी कीमत में ही छुपा हुआ है, जिस पर न तो फ्रांस में कोई बात करना चाहता है और न भारत में। इसे देखते हुए, मीडियापार्ट का यह इशारा काफी हद तक संभव लगता है डेफसिस के लिए उक्त भुगतान, वास्तव में किसी और ही चीज के लिए भुगतान के लिए ओट का काम कर रहा हो। फिर भी, इस खास सौदे से छोटी सी राशि के जुड़े होने को देखते हुए, इसके मामले में फ्रांस के अधिकारियों तथा दस्सां के अधिकारियों के अनुपातहीन तरीके से ज्यादा गोपनीयता बरतने वाले प्रत्युत्तर से, कम से कम ऐसा तो लगता ही है कि ये अधिकारीगण इसके लिए बहुत ही ज्यादा परेशान हैं कि कोई भी इस सौदे को लेकर किसी तरह की पूछताछ नहीं करने पाए और इस तरह सूंघते-सूंघते किसी बड़ी गड़बड़ी तक नहीं पहुंच जाए।
दूसरे बड़े भुगतान
मीडियापार्ट की रिपोर्ट के तीसरे खंड में यह आरोप लगाया गया है कि दस्सां तथा थालेस ने, जो रफ़ाल के निर्माण में एक महत्वपूर्ण साझीदार है, सुषेण गुप्ता नाम के एक शख्स को, 2004 से 2013 के बीच कई मिलियन यूरो का भुगतान किया था तथा बाद में चलकर अन्य भुगतान किए थे। सुषेण गुप्ता, हथियारों की खरीद-फरोख्त की दुनिया का एक जाना-माना नाम है और इस समय अगस्ता वैस्टलेंड हैलीकोप्टर सौदे में दलाली खिलाए जाने में अपनी कथित भूमिका के लिए, गिरफ्तार होने के बाद, जमानत पर छूटा हुआ है। मीडियापार्ट की रिपोर्ट में, ऐसे दस्तावेजों को उद्यृत किया गया है, जो उसके दावे के अनुसार सुषेण गुप्ता ने प्रवर्तन निदेशालय तथा सरकार के विभिन्न विभागों को दिए थे और इसके आधार पर बताया गया है कि वह पैसा विभिन्न खोखा कंपनियों तथा समुद्र पारीय खातों के जरिए भेजा गया था। ऐसा माना जाता है कि भुगतान का ऐसा ही रास्ता, जिसमें सॉफ्टवेयर सेवाओं के लिए बढ़े-चढ़े इन्वाइसों की आड़ में दलाली का भुगतान किया गया था, ऑगस्ता वेस्टलैंड सौदे में भी आजमाया गया था।
मीडियापार्ट की रिपोर्ट कहती है कि इस भुगतान के बदले में सुषेण गुप्ता ने, मीडियम मल्टीरोल कॉम्बैट एअरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) सौदे के लिए चली लंबी वार्ताओं में दस्सां की मदद करने के लिए, उसे महत्वपूर्ण जानकारियां दी थीं और सरकार के आंतरिक दस्तावेज तक मुहैया कराए थे। बेशक, सुषेण गुप्ता ने इन सभी आरोपों से इंकार किया है।
मीडियापार्ट की रिपोर्ट के अनुसार सुषेण गुप्ता ने दस्सां को खासतौर पर विमानों की कीमतों के संबंध में रक्षा मंत्रालय के आंतरिक दस्तावेज, भारतीय नेगोशिएटिंग टीम (आइएनटी) की अपनी चर्चा के विवरण, कीमत तय करने की पद्धति, फ्रांसीसी पक्ष के सामने रखने के लिए तैयार किए गए तर्कों का विवरण और प्रतिद्वंद्वी यूरोफाइटर की जवाबी पेशकश का पूरा विवरण, मुहैया कराए थे। मीडियापार्ट के अनुसार गुप्ता ने दस्सां को कुल 7.87 अरब यूरो की कीमत सुझायी थी और फ्रांसीसी टीम ने ठीक इतनी ही राशि की पेशकश की थी और आइएनटी की आपत्तियों के बावजूद, भारत और फ्रांस के बीच अंतत: ठीक इतनी ही कीमत पर सहमति हुई थी।
चारों तरफ़ चुप्पी
भारत में सत्ता प्रतिष्ठान के सभी प्रवक्ताओं तथा समर्थकों ने, इस मामले में जांच कराने की हरेक पुकार पर इस दलील के सहारे हमला किया है कि सीएजी और सुप्रीम कोर्ट, दोनों ने रफ़ाल सौदे को ‘‘ क्लीन चिट’’ दी है। लेकिन, अपनी छानबीन में अंत में सीएजी और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने ही चाहे इस सौदे के खिलाफ फैसला नहीं सुनाया हो, फिर भी दोनों की जांचों में ऐसा बहुत कुछ सामने आया है, जो इसका साफ तौर पर इसका इशारा करता है कि इस सौदे में सब कुछ पाक-साफ नहीं था।
जैसा कि सीएजी रिपोर्ट के प्रकाशन होने के बाद ही हमने लिखा था, यह रिपोर्ट इस सौदे में देखने को मिली अनियमितताओं से पटी पड़ी है। मसलन यही कि यूरोफाइटर को पहले एल-1 या सबसे कम कीमत मांगने वाला बोलीदाता ठहराया गया था। इसी प्रकार, लक्ष्यों या मानकों को बदला जाता रहा था और असमान चीजों की तुलना की जा रही थी, जिनकी तुलना नहीं की जा सकती थी। कीमतों पर वार्ताएं बहुत ही संदेहास्पद थीं और कीमतों से संबंधित विवरणों को पूरी तरह से छुपाया जा रहा था। सीएजी की रिपोर्ट में यह नतीजा पेश किया गया था कि रफ़ाल आखिरकार किसी भारी छूट के साथ नहीं खरीदा गया था, जैसाकि सरकार का इशारा था बल्कि यह तो शुरूआत में जितनी कीमत की पेशकश की गयी थी, उससे जरा सी ही कम कीमत पर खरीदा गया था। रही सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात, तो उसका फैसला छांट-छांटकर दी गयी जानकारियों पर आधारित था। सुप्रीम कोर्ट ने इस सौदे के तकनीकी तथा कीमतों से संबंधित पहलुओं पर विचार करने से ही इंकार कर दिया था। उसने सरकार के इस दावे को स्वीकार कर लिया था कि इस सौदे में प्रक्रियाओं का पालन किया गया था, जबकि इस दावे के खिलाफ जाने वाले पर्याप्त साक्ष्य मौजूद थे। और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के लिए सरकार के उस नोट को आधार बनाया था, जो अदालत को एक ‘सीलबंद लिफाफे’ में दिया गया था और जो याचिकाकर्ताओं को दिखाया ही नहीं गया था। इसे क्लीन चिट तो नहीं ही कहा जा सकता है!
जैसा कि मीडियापार्ट की रिपोर्ट में दोहराया गया है, सरकारों के बीच के इस समझौते में, उस भ्रष्टाचार-विरोधी प्रावधान को हटा दिया गया था, तो रक्षा खरीद की अनुमोदित प्रक्रिया का हिस्सा रहा है और इस प्रावधान को आइएनटी के बार-बार विरोध करने के बावजूद हटाया गया है। इस प्रावधान का हटाया जाना, दोनों सरकारों को भ्रष्टाचार के मामले में जवाबदेही से बचाता है।
दस्सां ने बड़ी सावधानी से शब्दों का चुनाव करते हुए अपने बयान में कहा है कि, ‘आधिकारिक संगठनों द्वारा अनेक नियंत्रण लागू किए जाते हैं’, लेकिन उसने इसका जिक्र ही नहीं किया है कि एएफए ने खुद ही ‘राष्ट्रीय हित में’ इस मामले की आगे पड़ताल करने से इंकार कर दिया था। बयान में कहा गया है कि, ‘कांट्रैक्ट के दायरे में किसी उल्लंघन का पता नहीं चला है।’ इसलिए, अगर ‘कांट्रैक्ट के दायरे’ के बाहर कुछ हुआ हो, तो वह किसी की सिरदर्दी नहीं है।
मीडियापार्ट का कहना है कि भारत और फ्रांस, दोनों की सरकारों के पास विस्तृत विवरण मौजूद हैं, लेकिन दोनों ही पक्षों ने इस गड़बड़ी को दफ़्न कर दिया है। दोनों सरकारों और नियमनकारी एजेंसियों की चुप्पी वाकई बहुत कुछ कहती है। शर्लोक होम्स की एक प्रसिद्ध कहानी, जिसे अदालत के फैसलों तक में उद्धृत किया गया है, घर के पालतू कुत्ते के नहीं भौंकने पर केंद्रित है। कहानी में काल्पनिक प्रसिद्ध जासूस, पालतू कुत्ते के न भौंकने से यह निष्कर्ष निकालता है कि जुर्म में जरूर कोई जानकार, जैसे कि घर का मालिक शामिल होना चाहिए।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
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