फ़हमीदा की ‘वसीयत’- “मुझे कोई सनद न देना दीनदारी की…”
“यारों बस इतना करम करना
पसे मर्ग न मुझ पे सितम करना
मुझे कोई सनद न देना दीनदारी की
मत कहना जोशे खिताबत में
दरअसल ये औरत मोमिन थी
मत उठना साबित करने को
मुल्को मिल्लत से वफ़ादारी
मत कोशिश करना अपना लें
हुक्काम कम अज़ कम लाश मेरी
यारां, यारां!
कमज़रफ़ों के दुश्नाम तो हैं एज़ाज़ मेरे
मिम्बर तक ख़्वाह वो आ न सकें
कुछ कम तो नहीं दिलबर मेरे
दमसाज़ मेरे
हर सर्रे हक़ीक़त जाँ में निहां
और खाको सबा हमराज़ मेरे
तौहीन न इनकी कर जाना
खुश्नूदी-ए-मोहतसिबां के लिए
मय्यत से ना माफ़ी मंगवाना
तदफ़ीन मेरी गर हो न सके
मत घबराना
जंगल में लाश को छोड़ आना
ये ख़्याल है कितना सुकूं अफ़ज़ां
जंगल में दरिंदे आयेंगे
बिन जांचे मेरे ख़्यालों को
वो हाड़ मेरे और माँस मेरा
और मेरा लाले बदख़शां दिल
सब कुछ ख़ुश होकर खालेंगे
वो सेर शिकम
होंठों पे ज़बानें फेरेंगे
और उनकी बे असियां आँखों में चमकेगी
तुम जिसको शायद कह न सको, वो सच्चाई
ये लाश है ऐसी औरत की
जो अपनी कहनी कह गुज़री
ताउम्र न उस पर पछताई।”
‘ताजियती क़रारदादें’ शीर्षक से ये नज़्म फ़हमीदा रियाज़ ने दिल्ली में कही थी।
फ़हमीदा की बहुत करीबी रहीं पत्रकार फरहत रिज़वी बताती हैं कि ये नज़्म उन्होंने अपने दोस्त लेखक-पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता सिब्ते हसन की मौत पर कही थी। वो पाकिस्तान सरकार की मुजरिम थीं, जला वतन थी, एम्बेसी जाकर सिब्ते हसन का आख़िरी दीदार भी नही कर पाईं थीं। फिर ग़ालिब एकेडमी में आयोजित ताजियती जलसे में उन्होंने ये नज़्म पढ़ी थी। फरहत के मुताबिक ये नज़्म एक तरह से फहमीदा की वसीयत थी। और इसे इसी तरह पढ़ा और समझा जाना चाहिए।
पाकिस्तान की मशहूर शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़ भारतीय उपमहाद्वीप की एक बेबाक और बुलंद आवाज़ थीं। उनका लंबी बीमारी के बाद बुधवार रात लाहौर में निधन हो गया। वे 72 वर्ष की थीं।
फ़हमीदा का जन्म 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में हुआ था। बाद के दिनों में उनका परिवार पाकिस्तान जाकर बस गया। अपने राजनीतिक विचारों के लिए फ़हमीदा हमेशा पाकिस्तानी हुकूमत के आंख की किरकरी बनी रहीं। उनके ऊपर 10 से ज़्यादा केस चलाए गए। सैनिक तानाशाह जिआउल हक़ के ज़माने में उन्हें जला वतन कर दिया गया यानी पाकिस्तान से देश निकाला दे दिया गया। जिसके बाद उन्होंने भारत में शरण ली। बताया जाता है कि उस समय भारत की मशहूर कवि और लेखिका अमृता प्रीतम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बात कर उनके लिए भारत में रहने की व्यवस्था करवाई थी। पाकिस्तान लौटने से पहले फ़हमीदा और उनके परिवार ने लगभग 7 साल निर्वासन की स्थिति में भारत में बिताए। इस दौरान वह दिल्ली के कई इलाकों में रहीं। जामिया विश्वविद्यालय में रहने के दौरान उन्होंने हिन्दी पढ़ना सीखा।
उन्होंने ग़ज़लों-नज़्मों के अलावा कुछ कहानियां भी लिखीं। दफ़्तर में एक दिन, फ़ेअल-ए-मुतअद्दी और तैरन अबाबील उनकी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। वे चाहती थीं कि लोग उनकी शायरी के अलावा कहानियों पर भी गौर करें। 31 जनवरी, 2013 को दिल्ली में जन संस्कृति मंच (जसम) की ओर से किए गए कार्यक्रम में उन्होंने ग़ज़लों-नज़्मों की जगह अपनी कहानियों को तरजीह दी और उन्हें मंच से सुनाया।
उनके निधन से पूरे साहित्य जगत में शोक की लहर है। बुधवार देर रात जैसे ही उनकी मृत्यु की ख़बर आई सोशल मीडिया पर उन्हें याद करने और श्रद्धाजंलि देने वालों की बाढ़ आ गई। उनके चाहनों वालों ने उनकी नज़्मों के साथ उन्हें याद किया। भारत में सबसे ज़्यादा उनकी वो नज़्म जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के खराब हालात से तुलना करते हुए भारत को आगाह किया है, सबसे ज़्यादा शेयर की जा रही है।
इसके अलावा भी फ़हमीदा की कई नज़्में और शेर उनके जाने के बाद शिद्दत से याद किए जा रहे हैं, दोहराए जा रहे हैं। दिल्ली के लिए उन्होंने एक बेहद ख़ास नज़्म कही थी ‘दिल्ली! तिरी छाँव’। इसमें वे कहती हैं-
दिल्ली! तिरी छाँव बड़ी क़हरी
मिरी पूरी काया पिघल रही
मुझे गले लगा कर गली गली
धीरे से कहे'' तू कौन है री?''
मैं कौन हूँ माँ तिरी जाई हूँ
पर भेस नए से आई हूँ
मैं रमती पहुँची अपनों तक
पर प्रीत पराई लाई हूँ
तारीख़ की घोर गुफाओं में
शायद पाए पहचान मिरी
था बीज में देस का प्यार घुला
परदेस में क्या क्या बेल चढ़ी
नस नस में लहू तो तेरा है
पर आँसू मेरे अपने हैं
होंटों पर रही तिरी बोली
पर नैन में सिंध के सपने हैं
मन माटी जमुना घाट की थी
पर समझ ज़रा उस की धड़कन
इस में कारूंझर की सिसकी
इस में हो के डालता चलतन!
तिरे आँगन मीठा कुआँ हँसे
क्या फल पाए मिरा मन रोगी
इक रीत नगर से मोह मिरा
बसते हैं जहाँ प्यासे जोगी
तिरा मुझ से कोख का नाता है
मिरे मन की पीड़ा जान ज़रा
वो रूप दिखाऊँ तुझे कैसे
जिस पर सब तन मन वार दिया
..…”
इसी तरह पूर्वांचल के लिए फ़हमीदा लिखती हैं-
“मशरिक़ी यूपी कर्फ़्यू में
ये धरती कितनी सुंदर है
ये सुंदर और दुखी धरती
ये धानी आँचल पूरब का
तेज़ रफ़्तार रेल के साथ
हवा में उड़ता जाता है
पड़ा झिल-मिल लहराता है
दूर तक हरे खेत खलियान
ये धरती औरत कोई किसान
सँभाले सर पर भारी बोझ
चली है खेत से घर की ओर
वही घर जिस की छत पर आज
क्रोध का गिद्ध मंडराता है
झपट कर पर फैलाता है
ओस से गीला है सब्ज़ा
कि गीले हैं मेरे दो नैन
पड़े माटी पत्थर के ढेर
वही मस्जिद मंदिर के फेर
तने लोगों के तेवर देख
इसी धरती पर सोया पूत
जाग कर तुम्हें मनाता है
'कबीरा' कुछ समझाता है
जहाँ हों नफ़रत के घमसान
नहीं रहते उस जा भगवान
नहीं करता है नज़र रहीम
नहीं करते हैं फेरा राम
तुम्हारी मिन्नत करता है
ख़ाक पर सीस झुकाता है
'कबीरा' कुछ समझाता है
….”
फ़हमीदा स्त्री अधिकारों की प्रखर प्रवक्ता थीं। ‘एक लड़की से’ शीर्षक से लिखी अपनी एक नज़्म में वे कहती हैं-
“संग-दिल रिवाजों की
ये इमारत-ए-कोहना
अपने आप पर नादिम
अपने बोझ से लर्ज़ां
जिस का ज़र्रा ज़र्रा है
ख़ुद-शिकस्तगी सामाँ
सब ख़मीदा दीवारें
सब झुकी हुई गुड़ियाँ
संग-दिल रिवाजों के
ख़स्ता-हाल ज़िंदाँ में
इक सदा-ए-मस्ताना
एक रक़्स-ए-रिंदाना
ये इमारत-ए-कोहना टूट भी तो सकती है
ये असीर-ए-शहज़ादी छूट भी तो सकती है
ये असीर-ए-शहज़ादी”
फ़हमीदा को पाकिस्तानी महिलाओं की स्थिति के बारे में आवाज़ उठाने पर ही देश निकाला दिया गया था। उन्होंने 'चादर और चहारदीवारी' कविता में बड़ी सच्चाई के साथ महिलाओं के हालात का बयान किया था।
‘इंक़िलाबी औरत’ शीर्षक कविता में वे कहती हैं-
“रणभूमी में लड़ते लड़ते मैं ने कितने साल
इक दिन जल में छाया देखी चट्टे हो गए बाल
पापड़ जैसी हुईं हड्डियाँ जलने लगे हैं दाँत
जगह जगह झुर्रियों से भर गई सारे तन की खाल
…”
‘कब तक’ शीर्षक से अपनी एक कविता में फ़हमीदा कहती हैं
“कब तक मुझ से प्यार करोगे
कब तक?
जब तक मेरे रहम से बच्चे की तख़्लीक़ का ख़ून बहेगा
जब तक मेरा रंग है ताज़ा
जब तक मेरा अंग तना है
पर इस के आगे भी तो कुछ है
वो सब क्या है
किसे पता है
वहीं की एक मुसाफ़िर मैं भी
अनजाने का शौक़ बड़ा है
पर तुम मेरे साथ न होगे तब तक”
फ़हमीदा भारत से बहुत प्यार करती थीं और भारत और पाकिस्तान को एक ही मां के दो बेटे कहती थीं। जो सन् 47 में बिछड़ गए। जैसे हमने ऊपर जिक्र किया कि भारत-पाक के हालात पर लिखी गई उनकी नज़्म 'तुम भी बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छिपे थे भाई' आज सबसे ज्यादा शेयर की जा रही है। इस नज़्म को जब उन्होंने भारत के एक कार्यक्रम में पढ़ा तो कुछ लोगों ने हंगामा भी किया। यानी साफ है कि फ़हमीदा पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों जगह के कट्टरवादी तत्वों की आंखों में खटकती थीं। आइए अंत में उनकी यही नज़्म पढ़ते हैं कि शायद उनके जाने के बाद हमें (भारत और पाकिस्तान दोनों को) उनकी ये बात समझ आ सके-
“तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नज़र जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना।”
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