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“सच जानने के लिए हमें अपना मीडिया खुद बनाना होगा”

“आज बाज़ार हम क्या खाएं, क्या पहनें ही नहीं बल्कि हम कैसे सपने देखें , यह भी तय कर रहा है। बाज़ार के इसी एकाधिपत्य से मुक्ति के लिए जरूरी है कि सिनेमा जैसे माध्यम को जन सहयोग से बनाने और दिखाने के माध्यम विकसित किए जाएँ।”
छठा उदयपुर फिल्म फेस्टिवल

बीते दिसंबर के आख़िरी तीन दिन नए सिनेमा की गरमाहट से लबरेज थे। मौका था प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के 67वें सालाना सिनेमा जलसे और उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी के छठवें सालाना सिनेमा उत्सव का।

28 दिसंबर की सुबह से ही शहर के पंचवटी इलाके में स्थित राणा कुम्भा संगीत सभागार को उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी, जयपुर से फेस्टिवल में शामिल हुए जे ई सीआर सी विश्विद्यालय और किशनगढ़ केन्द्रीय विश्विद्यालय के युवा छात्रों की टीम पूरे आयोजन स्थल को एक मुकम्मल सिनेमा हाल में तब्दील करने के लिए जी जान से जुटी थी। 28 दिसंबर को 20 मिनट देरी से जब आयोजन शुरू हुआ तो थोड़ी ही देर में नए सिनेमा का जादू धीरे-धीरे माहौल में छाने लगा जिसमे व्यक्ति नहीं बल्कि विचार का सेलीब्रेशन ज्यादा था। माहौल को अर्थवान बनाने में जन संस्कृति मंच के ‘घुमंत्तू पुस्तक मेला’ ने भी महती भूमिका निभाई जिसके युवा संचालक प्रीतम कर्मकार मुस्तैदी से अपना स्टाल जमाये हुए थे।

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“ सिनेमा  जैसे माध्यम पर दुर्भाग्य से चंद लोगों का कब्जा है”

उदयपुर के महाराणा कुंभा संगीत सभागार में छठे उदयपुर फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए युवा फिल्मकार पवन श्रीवास्तव ने सिनेमा माध्यम की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा कि आज दुर्भाग्य से सिनेमा जैसे माध्यम पर चंद लोगों का कब्जा है जबकि सिनेमा को आम लोगों की समझदारी विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर मुक्त करने की जरूरत है। उन्होने कहा कि आज बाज़ार हम क्या खाएं, क्या पहनें ही नहीं बल्कि हम कैसे सपने देखें , यह भी तय कर रहा है। बाज़ार के इसी एकाधिपत्य से मुक्ति के लिए जरूरी है कि सिनेमा जैसे माध्यम को जन सहयोग से बनाने और दिखाने के माध्यम विकसित किए जाएँ। उन्होंने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा ऐसा ही मंच है। पवन श्रीवास्तव ने  मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा को सिर्फ शहर का सिनेमा कहा जिसमे गाँव और हाशिये का नाममात्र का प्रतिनिधित्त्व है।   उनकी फिल्म लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट ऐसे ही हाशिये के लोगों की कथा कहने वाली थी जिसमें समाज में फैले जातिगत वैमस्य को दिखाया गया है। उद्घाटन समारोह के तत्काल बाद ये फिल्म दिखाई गई। फिल्म के बाद के सवाल जवाब सत्र में एक दर्शक के सवाल के जवाब में उन्होने मंथरता के आयामों पर चर्चा की। प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने इस अवसर पर अच्छे सिनेमा को घर घर पहुँचाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा दरअसल आप सबका यानी जनता का ही सिनेमा है। आज का युवा सिर्फ दर्शक नहीं है, सोशल मीडिया के विस्तार और तकनीक की सुलभता के इस दौर में वह प्रतिभागी है या होना चाहता है। यही कारण है कि उदयपुर फिल्म फेस्टिवल में हमेशा युवा वर्ग की सर्वाधिक भागीदारी होती है। ये युवा वे हैं जो एक नए भारत के निर्माण में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। ये वे युवा हैं जो समता और प्रेम की नींव पर टिका नया भारत बनाएँगे। उन्होंने देश में फैलाई जा रही नफ़रत और भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि जब मुख्यधारा का मीडिया इनके बारे में चुनी हुई चुप्पियाँ धारण करता है तब नए दस्तावेजी फ़िल्मकार इन कहानियों को कहते हैं। हमारा फेस्टिवल इन्हीं आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करता है।

उदयपुर फिल्म सोसाइटी की संयोजक रिंकू परिहार ने पिछले छह सालों की यात्रा का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि यह फिल्म फेस्टिवल किसी भी स्पोनसरशिप को नकारते हुए, सिर्फ जन सहयोग से चलता आया है और आगे भी जारी रहेगा। सह संयोजक एस एन एस  जिज्ञासु ने आशा जाहिर की कि अगले तीन दिन फिल्मों पर होने वाली जीवंत बहसें शहर के बौद्धिक वर्ग के लिए एक वैचारिक आलोड़न का कार्य करेंगी। समारोह का संचालन शैलेंद्र प्रताप सिंह भाटी ने किया।

समारोह की दूसरी फिल्म उत्तराखंड की लोकगायिका कबूतरी देवी के जीवन पर केन्द्रित थी। कबूतरी देवी पचास वर्ष पूर्व की बहुचर्चित लोकगायिका थी जो शनैः शनैः गुमनामी के अंधेरे में चली गईं। बीते दशक में उत्तराखंड के कुछ जागरूक संस्कृतिकर्मियों की पहल पर पुनः उनके कार्यक्रम हुए और इस भूली हुई विरासत की ओर लोगों का ध्यान गया। फिल्म के निर्देशक संजय मट्टू ने प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को धन्यवाद देते हुए फिल्म के निर्माण से जुड़े किस्से दर्शकों से साझा किए।

पहले दिन की दूसरी  दस्तावेजी फिल्म फातिमा निज़ारुद्दीन की परमाणु ऊर्जा बहुत ठगनी हम जानी का सफल प्रदर्शन हुआ । यह फिल्म देश में चल रहे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों  की व्यंग्यात्मक तरीके से समीक्षा करती है। इस फिल्म के बहाने परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर दर्शकों के साथ क्रिटिकल बातें हुई। राष्ट्र और सुरक्षा की अवधारणा पर भी तीखी बहस हुई ।

समारोह की पहले दिन की अंतिम फिल्म प्रख्यात निर्देशक तपन सिन्हा की क्लासिक फिल्म एक डॉक्टर की मौत थी।

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“हमें अपना मीडिया खुद बनाना होगा”

फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरुआत युवा फ़िल्मकारों अशफ़ाकफुरकान और विशु द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘लिंच नेशन से हुई। ‘लिंच नेशन’ पिछले वर्षों देश भर में धर्म और जाति के नाम पर हुई हिंसा से प्रभावित लोगों की आपबीती का बेहद जरुरी दस्तावेज़ है जो देश में चल रही नयी लहर को ठीक से रेखांकित कर पाती है।  सत्र के अंत में फिल्मकारों ने दर्शकों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि सच जानने के लिए हमें अपना मीडिया बनाना होगा.

दूसरे दिन की दूसरी लघु फ़िल्म ‘गुब्बारे’ मथुरा के स्वशिक्षित फिल्मकार मोहम्मद गनी की दूसरी कथा फिल्म थी। यह फिल्म 9 मिनट में मानवीयता के गुण को बहुत सुन्दर तरीके से पकड़ने में कामयाब रहती है और हमारी दुनिया को और सुन्दर बनाने में मददगार साबित होती है। यह गुब्बारा बेचने वाली एक छोटी बच्ची की कहानी है जो अपने खेलने के लिए भी एक भी गुब्बारा बचा नहीं पाती और जिसे उसका एक बुजुर्ग खरीददार फिर से हासिल करने की कोशिश करता है।

तीसरी फ़िल्म युवा फिल्मकार शिल्पी गुलाटी और जैनेद्र दोस्त द्वारा निर्मित दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘नाच भिखारी नाच थी’। यह फ़िल्म प्रसिद्ध लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के साथ काम किये चार नाच कलाकारों की कहानी के बहाने भिखारी ठाकुर की कला को समझने का बेहतर माध्यमबनती है।‘नाच भिखारी नाच’ सत्र का संचालन एस एन एस जिज्ञासु ने किया।

चौथी फ़िल्म उन्नीस सौ सत्तासी में बनी मशहूर दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘बाबू लाल भुइयां की कुरबानी’ थी जिसका निर्देशन मंजीरा दत्ता ने किया है।

समारोह का एक महत्वपूर्ण सत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रिय ‘चलचित्र अभियान’ के एक्टिविस्टों मोहम्मद शाकिब रंगरेज और विशाल कुमार की आडियो –विजुअल प्रस्तुति थी जिसमे उन्होंने अपने अभियान के वीडियो के माध्यम से नए सिनेमा के महत्व को रेखांकित करने की कोशिश की। गौरतलब है कि चलचित्र अभियान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किया जा रहा एक अनूठा  प्रयोग है जिसके तहत स्थानीय युवाओं को फ़िल्म निर्माण और फ़िल्म प्रदर्शन का व्यावहारिक प्रशिक्षण देकर अपने इलाके की वास्तविक खबरें और हलचलों को दर्ज करने के लिए तैयार किया जा रहा है। यह प्रयोग महत्वपूर्ण इसलिए भी हो जाता है क्योंकि कैराना , शामली,  मुज़फ़्फ़रनगर के ये इलाके पांच साल पहले अफवाह के चलते साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गए थे।

दूसरे दिन की आख़िरी फ़िल्म सईद मिर्ज़ा निर्देशित फीचर फ़िल्म ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ थी।

शस्य श्यामला धरती और बदहाल मजदूर : लैंडलेस की कहानी

फिल्म फेस्टिवल के तीसरे दिन पंजाब से आए दस्तावेजी फ़िल्मकार रणदीप मडडोके की फिल्म लैंडलेस का प्रीमियर हुआ जिसके बाद दर्शकों के साथ लंबा संवाद चला। यह फिल्म पंजाब के भूमिहीन दलित कृषि मजदूरों की व्यथा कथा और उनके संगठित होने की दास्तान को दर्ज करती है। फिल्म में पंजाब के हरे  भरे खेतों और उनके साथ साथ कृषि मजदूरों की बदहाली के समानान्तर दृश्य खड़े कर एक विडम्बना की सृष्टि करती है।

इसके पहले सुबह राणा कुम्भा संगीत सभागार का सभागार विभिन्न स्कूलों से आये बच्चों की खिलखिलाहट से लगातार गूंजता रहा। तीसरे दिन सुबह जैसे ही स्पानी कहानी फर्दीनांद पर इसी नाम से बनी फ़िल्म परदे पर उतरने शुरू हुई हाल में बच्चों और बड़ों के ठहाके गूंजने लगे। कार्लोस सलदान्हा द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म स्पेन में पैदा हुए एक ऐसे युवा होते बैल की कहानी है जिसे यहाँ की लोकप्रिय लेकिन क्रूर बुल फाइटिंग के लिए तैयार होते हुए बलिष्ठ बैल बनने की बजाय फूल-पत्तियों को निहारना ज्यादा पसंद है। लेकिन उसकी नियति उसे बुल फाइटिंग के कठघरे में ले आती है जहां से अंतत: निकलकर वह फिर से फूल-पत्तियों की नाज़ुक दुनिया में पहुँच जाता है। फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद आयोजकों ने बच्चों के साथ मजेदार बातचीत का सेशन भी आयोजित किया और सभागार के बाहर बच्चों ने अपने पसंद के चित्र और पोस्टर भी बनाये जिन्हें एक छोटी प्रदर्शनी की तरह तुरंत सजा भी दिया गया।

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दूसरे सत्र में नवारुण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता पुस्तक ‘नयी खेती’ का लोकार्पण सुधा चौधरी, असलम, माणिक, हिम्मत सेठ और लिंगम चिरंजीव राव ने किया जिसके तुरंत बाद कवि विद्रोही पर बनी दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूँ’ का प्रदर्शन किया गया। यह फ़िल्म मौखिक परंपरा के कवि विद्रोही के जीवन और कविता का बहुत गहरे से वर्णन करती है।

फ़िल्म के बाद फ़िल्म के निर्देशक नितिन पमनानी के साथ दर्शकों ने रोचक संवाद भी बनाया।

समारोह की अंतिम फिल्म केरल के सुप्रसिद्ध निर्देशक जॉन अब्राहम की फिल्म अम्मा आरियाँ थी जो भारत में फिल्म सोसाइटी गठन और और उसके जरिये फिल्म निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी जाती है।

समारोह प्रख्यात निर्देशक मृणाल सेन को श्रद्धांजलि के साथ सम्पन्न हुआ।

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