कोविड-19 वक्र को समतल करने के लिए टेस्टिंग बढ़ानी होगी
19 अप्रैल 2020 तक 24 घंटे में कोविड-19 मामलों में 1400 का उछाल, फिर 20 को 1500 की बढ़त ने हमारी सारी गणित और अपेक्षाओं को धता बता दिया। कई राज्यों में तो 20 अप्रैल को लॉकडाउन में आंशिक ढील इस अपेक्षा पर आधरित थी कि इस दिन तक कोवड वक्र दब जाएगा, यानी बढ़ने की जगह, केस कम होंगे। परन्तु दिन-ब-दिन मामले नई ऊंचाई छू रहे हैं।
क्या भारत का कोविड-19 वक्र अगले दो हफ्तों में दबेगा, ताकि मोदी आंशिक रूप से लॉकडाउन खोलने की घोषणा करेंगे, कम-से-कम उन जिलों में जहां संक्रमण के नए केस सामने नहीं आ रहे? जो भी हो, लॉकडाउन के प्रथम 29 दिनों तक 1000 केस प्रतिदिन की रफ्तार से मामलों की बढ़त ने बखूबी साबित कर दिया है कि केवल लॉकडाउन से कोविड केस की संख्या अपने आप कम नहीं होगी, यदि साथ-साथ आक्रामक टेस्टिंग, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और हाई-रिस्क ग्रुप्स पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता।
तो हम समझ लें कि लॉकडाउन से ज्यादा-से-ज्यादा नए केसों में कमी आ सकती है, पर उससे संक्रमण के फैलने को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता, या केस व मृत्यु के बीच अनुपात कम नहीं किया जा सकता। फिर, केवल अस्पतालों में बेड, आईसीयू सुविधाएं, बेहतर नर्सिंग और अधिक वेंटिलेटरों से मृत्यु की संख्या घट सकती है, केस नहीं। इसलिए चौतरफा प्रयास अनिवार्य है, और मुख्य बात होनी चाहिये-अधिक टेस्टिंग।
आख़िर हम ऐसा क्यों कह रहे? टेस्टिंग बढ़ना इसलिए अनिवार्य है कि एपिडेमियोलॉजिस्टों का मानना है कि प्रत्येक चिह्नित केस के लिए तीन अचिह्नित केस होते हैं। इसके मायने हैं कि भारत में आज की तारीख़ में 20,471 नहीं, बल्कि 81,884 केस होंगे। सरकार ट्रेस कर रही है कि 20,471लोगों के संपर्क में कितने थे, पर वह यह नहीं देख रही कि बाकी अदृश्य 61,413 के संपर्क में कितने थे और उन्होंने कितनों को संक्रमित किया होगा।
उदाहरण के लिए, कर्नाटक में टेस्टिंग बढ़ाई गई तो पता चला कि चिह्नित केसों में से 60 प्रतिशत के अंदर कोई लक्षण नहीं थे और लक्षण वाले लोग अल्पमत में थे। टेस्टिंग न होना एक बड़ा कारण हो सकता है कि देश में अचिह्नित केस अधिक हैं।
सरकार के अनुसार, ट्रेन्ड दिखाते हैं कि मृतकों में 14.4 प्रतिशत 0-45 आयु के थे, 10.3 प्रतिशत 45-60 आयु के थे, 33.1 प्रतिशत 60-75 आयु के थे और 42.2 प्रतिशत 75 वर्ष से अधिक उम्र के थे। इसके अलावा 83 प्रतिशत कोमॉर्बिडिटीज़ वाले थे, यानी उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और श्वास रोग वाले थे (अस्थमा, सीओपीडी) 75 साल से ज्यादा उम्र के लोगों में, कोरोनावायरस वालों सहित कई तो अन्य स्वास्थ्य संकटों के कारण मरे होंगे। या इनमें से कई, खासकर छोटे शहरों व कस्बों में अन्य स्वास्थ्य-संबंधी जटिलताओं से मरे हैं, ऐसा माना गया होगा (यहां टेस्टिंग की सुविधा लगभग गायब है)।
60 वर्ष से अधिक आयु के लोग भारतीय जनसंख्या का 8.5 प्रतिशत हिस्सा हैं, पर वे करोना मृतकों के 75 प्रतिशत हैं। यदि इन्हें विशेष शील्डिंग की सुविधा दी गई हाती तो मृतकों की संख्या में भारी गिरावट आती। और, हॉटस्पॉट्स में व्यापक टेस्टिंग, खासकर हाई रिस्क ऑकुपेश्नल ग्रुप्स में, किया जाता तो इससे भी मृतकों की संख्या घट सकती थी।
मार्च अंत तक केवल 15,000 टेस्ट किये गए थे, पर अप्रैल में इस संख्या को बढ़ाकर 17,000 प्रतिदिन कर दिया गया; फिर भी कर्व को समतल करने के लिए जितनी टेस्टिंग की जरूरत है, उससे यह काफी कम है। मोदी सरकार ने स्वयं प्रतिदिन 1 लाख टेस्ट का लक्ष्य लिया है।पर वर्तमान संख्या को 5-गुना भी बढ़ाने के रास्ते में कुछ अड़चनें आ रही हैं।
यद्यपि करोनावायरस के लिए 1 दर्जन से अधिक किस्म के टेस्ट हैं, इनको 2 श्रेणियों में बांटा जा सकता है-ऐन्टीबॉडीज़ टेस्ट और पैथोजेन टेस्ट। ऐन्टिबॉडीज़ टेस्ट से पता चलता है कि किसी व्यक्ति के शरीर में मानव प्रतिरोधक तंत्र द्वारा पैदा किये गए ऐन्टिबॉडीज़ हैं या नहीं। पर इससे यह स्पष्ट नहीं होगा कि संक्रमण वर्तमान समय का है या पुराना था, जिसके कारण ऐन्टिबॉडीज़ बने। इसलिए इस टेस्ट में यदि किसी का परिणाम पॉजिटिव आया तो उसका पैथोजेन टेस्ट आवश्यक है, ताकि यह स्थापित हो सके कि उसके शरीर में जीवित करोनावायरास है या नहीं। पर ऐन्टिबाडीज़ टेस्ट रैपिड टेस्ट होते हैं, यानी चंद घंटों में परिणाम देते है। इसलिए ये टार्गेट जनसंख्या के प्राथमिक स्क्रीनिंग के लिये काफी प्रभावशाली हैं। इससे यह साफ हो जाएगा कि कितने लोगों को पैथोजेन टेस्ट करवाकर इलाज के लिए जाना चाहिये। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि संपूण जनसंख्या को पैथोजेन टेस्ट करवाकर संसाधनों की बर्बादी नहीं होगी।
यह देखते हुए लगता है कि भारत में टेस्टिंग सिनेरियो इतना बुरा नहीं है। कुछ अच्छी पहल देखने को मिल रही है। उदाहरण के लिए नोएडा के न्यूलाइफ कन्सलटैंट्स ऐण्ड डिस्ट्रिब्यूटर्स प्राइवेट लिमिटेड ने पहला देशी रैपिड ऐन्टिबॉडीज़ टेस्ट किट निर्मित किया है। इसके मालिक, बायोकेमिस्ट, डॉ. नदीम रहमान दावा करते हैं कि अब क्योंकि उनको राज्य सरकार और आईसीएमआर से हरी झंडी मिल गई है, वे प्रतिदिन एक लाख टेस्ट किट सरकार को देंगे। और इसका मूल्य होगा 500-600 रुपये। वे यह भी कहते हैं कि इसके दाम को और भी कम करने के प्रयास जारी हैं। इससे 15 मिनट के अंदर टेस्ट का परिणाम मिल जाता है।
दूसरी बात, कन्फर्मेटरी टेस्टिंग क्षमता को लेकर भी सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं। इन्हें आरटी-पीसीआर टेस्ट कहा जाता है। मोदी सरकार ने पूने की कम्पनी माईलैब को 10 लाख टेस्ट किट का ऑर्डर दिया है। इसके अलावा अहमदाबाद की एक कम्पनी को-सेरा को भी अनिश्चित संख्या में टेस्ट किट्स का ऑर्डर दिया गया है। यह कम्पनी 10 लाख किट प्रतिदिन निर्मित करने की क्षमता रखती है। इसके अलावा सरकार ने रोशे और ऐबट लैब्स जैसे विदेशी कम्पनियों को भी ऑर्डर दिये हैं। पर कई कम्पनियां, जिनमें कई भारतीय हैं, विशेषकर स्टार्टअप्स, ने अपने प्रस्ताव भेजे हैं पर उन्हें अनुमोदन नहीं मिला। ऑर्डर देने में पारदर्शिता न होना और अनुमोदन देने में विलंब के कारण कुछ हल्कों में सवाल उठ रहे हैं-राजनीतिक कारणों से क्या किसी किस्म का पक्षपात चल रहा है?
जो भी हो, इस किस्म के विलम्ब को पचाया नहीं जा सकता। इसके अलावा, अल्ओना डायग्नॉस्टिक्स, जर्मनी, सीजीन और बायोमेरियक्स, दक्षिण कोरिया, जो विदेशी कम्पनियां हैं; और अपने देश में ट्रिविट्रॉन ऐण्ड सीपीसी डायग्नॉस्टिक्स तथा याथुम बायोटेक, चेन्नई, डा. लाल पैथ लैब्स, एसआरएल डायग्नॉस्टिक्स और मेट्रोपॉलिस हेल्थकेयर कुछ ऐसी कम्पनियां हैं जो व्यवसायिक उत्पादन के लिए अनुमोदन के इंतज़ार में हैं। यद्यपि वैक्सीन ट्रायल के मामले में दुष्प्रभाव देखने में काफी समय लग सकता है, टेस्ट किट्स की गुणवत्ता को कुछ ही दिनों में जांचा जा सकता है, और यदि गलत नेगेटिव परिणाम शून्य है और गलत पॉजिटिव परिणाम शून्य दिखते हैं तो उन्हें तत्काल अनुमोदन दिया जा सकता है। जांच के लिए करोनावायरस मरीजों और नेगेटिव परिणाम वाले मरीजों से सैंपल लिए जाएंगे। पर देखा जा रहा है कि सिंगल-विंडो क्लियरेंस की सुविधा नहीं है। किसी भी कम्पनी के द्वारा निर्मित टेस्ट किट्स को पहले नैश्नल इंस्टिटियूट ऑफ वायरॉलाजी से मान्यता प्राप्त करनी होगी। फिर उसके व्यवसायिक निर्माण के लिए ड्रग कन्ट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से अनुमोदन लेना होता है। जबकि तकनीकी और आधारित संरचना सहित सारे मानदंडों को प्रस्वाव में ही जोड़ दिया जाता है, क्या कारण है कि आपातकालीन स्थितियों में भी टेस्ट प्रदर्शन के बावजूद अनुमोदन के लिए इतना समय लगाया जा रहा है। एक तकनीकी रुकावट यह जरूर है कि निर्माण के लिए कुछ आवश्यक सामग्री भारत में उपलब्ध नहीं है, इसलिए उन्हें आयातित करना होता है, पर महामारी की व्यापकता की वजह से विदेशी कम्पनियां इन्हें भेजने में देर करती हैं। सरकार को इन तमाम दिक्कतों का हल निकालना चाहिये।
हालांकि भारत में टेस्टिंग के परिदृष्य को देखने पर कुछ सकारात्मक पहलू भी दिखते हैं। नदीम रहमान के न्यूलाइफ कंपनी ने ढाई हफ्ते में टेस्ट किट बनाए। चेन्नई के ट्रिविट्रॉन के मालिक श्री वेलु कहते हैं कि वे 7 लाख टेस्ट किट प्रतिदिन सप्लाई कर सकते हैं, यदि लॉकडाउन में भी उन्हें 3 पाली काम करने की अनुमति मिले। उनके स्टार्टअप को अब तक हरी झंडी नहीं मिली। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए याथुम बायोटेक की एम.डी और बायोसाइन्टिस्ट अनिता राजगोपाल कहती हैं कि उनकी कम्पनी ने आरटी-पीसीआर टेस्ट का नया संस्करण इजाद किया है जिसे रियलटाइम क्वांटिटेटिव पॉलिमरेज़ चेन रिऐक्शन (आरटीक्यू-पीसीआर) कहा जाता है और ये डब्लूएचओ द्वारा प्रस्तावित आरटी-पीसीआर टेस्ट या ‘गोल्ड स्टैंडर्ड टेस्ट’ से अधिक सटीक है। दरअसल आरटी-पीसीआर टेस्ट ने चीन में गलत निगेटिव परिणाम दिये थे। अनिता कहती हैं कि 2 घंटों में फाइनल कनफर्मेशन हो जाएगा। ऐसे सभी स्टार्टअप्स को लिबरल वेन्चर कैपिटल फंडिंग और सरकारी सब्सिडी देकर प्रोत्साहित करना चाहिये ताकि भारत में व्यापक टेस्टिंग के जरिये महामारी का मुकबला किया जा सके।
(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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