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ग़ैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) क़ानून और न्याय की एक लंबी लड़ाई

ग़ैरक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) क़ानून, 1967 [यूएपीए] को 14 सितंबर, 2020 को हुए दिल्ली दंगों में कथित साज़िशकर्ताओं के ख़िलाफ़ इस्तेमाल गया है।
UAPA

तब क्या होता है, जब झूठी कार्यकुशलता और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, कानून की बुनियादी प्रक्रियाओं को कुचल दिया जाता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, हुकूमत और उसकी एजेंसियों के हाथों उनका एकाधिकार बन जाता है?

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अप्रैल की 24 तारीख़ को कड़कड़डूमा कोर्ट ने कार्यकर्ता और स्कॉलर उमर खालिद की ज़मानत याचिका खारिज़ करने का आदेश दिया। यह सब दर्जनों सुनवाई, अदालत की तारीखों में देरी, तीन आदेश स्थगन और आठ महीने के बाद हुआ है। खालिद ने दस महीने की न्यायिक हिरासत के बाद यह याचिका दायर की थी, जिन्हे 14 सितंबर, 2020 को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 [यूएपीए] के तहत 2020 के दिल्ली दंगों में एक कथित साजिशकर्ता के रूप में गिरफ़्तार किया गया था।

अदालत का जल्द आदेश न देने का प्राथमिक कारण यह था कि बचाव और अभियोजन पक्ष  दोनों आरोपपत्र और साथ में सबूतों की गहराई से जांच कर रहे थे।

निचली अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए खालिद ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की है। लेकिन घटनाओं के दिलचस्प मोड़ में, उच्च न्यायालय ने उनकी जमानत याचिका की सुनवाई 6 मई तक के लिए टाल दी है क्योंकि भारतीय दंड संहिता [IPC] की धारा 124ए  (देशद्रोह) की संवैधानिकता पर सुनवाई 5 मई को सुप्रीम कोर्ट में होनी है। उच्च न्यायालय ने जमानत की सुनवाई अब 19 मई के लिए तय की है)।

2014 से 2020 के बीच हर साल यूएपीए के तहत 985 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि लंबित मामलों की संख्या में हर साल 14.38 फीसद की बढ़ोतरी हुई। औसतन 40.58 प्रतिशत मामलों को सुनवाई के लिए भेजा गया, जिनमें से केवल 4.5 प्रतिशत ही पूरी हुई हैं।

खालिद अब 19 महीने से हिरासत में है, लेकिन वह अकेला नहीं है जो अदालत में अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। 2014 से 2020 के बीच हर साल यूएपीए के तहत 985 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि लंबित मामलों की संख्या में हर साल 14.38 फीसद की बढ़ोतरी हुई। औसतन 40.58 प्रतिशत मामलों को सुनवाई के लिए भेजा गया, जिनमें से केवल 4.5 प्रतिशत ही पूरे हुए।

यूएपीए: एक अवलोकन

यूएपीए को व्यक्तियों और एसोसिएशन्स की कुछ गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने और आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करने के लिए कानून बनाया गया था। इसके माध्यम से व्यक्तिगत गैरकानूनी गतिविधि और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया गया है, जिससे केंद्र सरकार अपने विवेक पर किसी भी एसोसिएशन को गैरकानूनी घोषित कर सकती है। ऐसी कोई निश्चित गतिविधि नहीं हैं जिन्हें इस में गैरकानूनी के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को खतरे में डालने या खतरे में डालने के इरादे से किसी भी कार्य को आतंकवादी कार्य कहा जाता है।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 में प्रावधान है कि किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को 15 दिनों से अधिक पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता है, और किसी भी परिस्थिति में उन्हें अधिकतम 90 दिनों से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। लेकिन यूएपीए में इसे बदल दिया गया और हिरासत के न्यूनतम दिनों की संख्या 30 दिनों तक बढ़ा दी गई, जबकि अधिकतम अवधि 180 दिन कर दी गई।

2008 में, संसद ने यूएपीए संशोधन अधिनियम, 2008 अधिनियमित किया था, जिसने धारा 43(डी)(5) को इसके दायरे में ला दिया था। इस प्रावधान के अनुसार कोई अदालत इस अधिनियम के तहत हिरासत में लिए गए या गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को जमानत देने से इनकार कर सकती है, अगर इस बात को मानने का उचित आधार हैं कि आरोपी के खिलाफ मामला प्रथम दृष्टया सच है। दरअसल, एक्ट की धारा 43(डी)(4) के तहत अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं है।

यूएपीए उन लोगों पर मुकदमा चलाने का एक तरीका बन गया है जो कथित तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं और आपराधिक न्याय प्रणाली की जांच और संतुलन से बेपरवाह हैं, और इसके दायरे को पिछले कुछ वर्षों में काफी आगे बढ़ा दिया गया है। जिसमें सार्वजनिक रूप से भाषण देने और सार्वजनिक सभाओं में भाग लेने जैसी गतिविधियों को अपराध माना जाने लगा है, क्योंकि इरादे को अधिनियम से अधिक महत्व दिया गया है।

भारत का आपराधिक कानून न्यायशास्त्र 'दोषी साबित होने तक निर्दोष' की मूल अवधारणा के साथ काम करता है, जहां निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार, सुनवाई का अधिकार और त्वरित सुनवाई का अधिकार इस सिद्धांत के मूल तत्व हैं। तो, तब क्या होता है, जब कार्यकुशलता और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, कानून की बुनियादी प्रक्रियाओं को रौंद दिया जाता है? और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, हुकूमत और उसकी एजेंसियों के हाथों में उनका एकाधिकार बन जाता है या यह उनके विवेक पर काम करता है?

अनुच्छेद 21 और त्वरित सुनवाई का अधिकार

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। यह निर्धारित करता है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किसी को भी उनके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है। वर्षों से, न्यायिक सक्रियता के दायरे में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसके दायरे का विस्तार किया है, जहां आज हमारे पास मौजूद कई अधिकारों को मूल अधिकारों और व्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 21 के तहत शामिल किया गया है। त्वरित सुनवाई का अधिकार एक ऐसा अधिकार है, जो उचित प्रक्रिया और व्यक्तिगत स्वायत्तता के संरक्षण में सर्वोपरि हो गया है। न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने, हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार सरकार बिहार, पटना (1979) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में पाया कि अनुच्छेद 21 का उल्लंघन तब होता है जब किसी आरोपी को त्वरित और न्यायसंगत सुनवाई नहीं दी जाती है। और उन्होंने लिखा कि, 

“त्वरित सुनवाई/जांच प्रदान करने के लिए हुकूमत का संवैधानिक दायित्व है। हुकूमत तेजी से जांच को सुनिश्चित करने के लिए एक संवैधानिक जनादेश के तहत बाध्य है और इस उद्देश्य के लिए जो कुछ भी आवश्यक है वह हुकूमत द्वारा किया जाना चाहिए।

यूएपीए के मामले में, यहां तक कि जमानत हासिल करने के लिए, किसी को भी जमानत की सुनवाई में अपनी बेगुनाही साबित करनी होती है, जो कि जमानत के सामान्य दर्शन के मामले में अपवाद है, क्योंकि जब कोई भी मामला तब तक जांच के दायरे में है, तो कोई कैसे साबित कर सकता है कि उनकी मंशा अधिनियम के प्रति क्या है जिसे हुकूमत उनके खिलाफ इस्तेमाल किया है? खासकर, जब उनके कृत्य के प्रति वह पहले से काल्पनिक पूर्वाग्रह जुड़ा हो।

यह भी देखा गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का भी, "जिसे लोगों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक माना जाता है" हुकूमत को आवश्यक निर्देश जारी करके अभियुक्त के मौलिक अधिकार को ज़िंदा रखने में त्वरित सुनवाई को लागू करने का दायित्व बन जाता है। इस तरह के निर्देशों में जांच तंत्र को मजबूत करना, नई अदालतें स्थापित करना, अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति और ऐसे अन्य उपाय शामिल हो सकते हैं जो त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करेंगे।

इस निर्णय ने विचाराधीन कैदियों के त्वरित सुनवाई के अधिकार को पुख्ता किया, और इसे भारत में एक मौलिक अधिकार और आपराधिक मुकदमे का एक अनिवार्य हिस्सा बना दिया था। लेकिन यह एकमात्र समय नहीं था जब सुप्रीम कोर्ट ने निमोन संगमा बनाम गृह सचिव, मेघालय सरकार (1979) में इसके महत्व पर जोर दिया था और कहा था कि जब एक त्वरित सुनवाई का प्रयास नहीं किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप आरोपी जेल में बंद हो जाते हैं, तो यह आपराधिक न्याय के टूटने का एक बिंदु बन जाता है। यहां, अदालत ने हुकूमत को ऐसे सभी व्यक्तियों को रिहा करने पर सहमति देने का भी निर्देश दिया है, जो बिना किसी मुकदमे के छह महीने से अधिक समय से हिरासत में हैं।

लेकिन फिर कोर्ट के सामने ए.आर. अंतुले बनाम आर.एस. नायक (1988), इस पर सवाल खड़ा करती है कि क्या विलंबित जांच एक अनुचित जांच है? यह माना गया कि जब इस तरह की देरी आरोपी की किसी रणनीति या आचरण के कारण हुई है, तो इस तरह की देरी को आरोपी के प्रतिकूल नहीं माना जाएगा। लेकिन अगर कार्यवाही, अभियुक्तों के प्रति वास्तव में पूर्वाग्रह से ग्रसित है, तो यह एक अनुचित सुनवाई होगी, खासकर जब उनके बचाव के दौरान उनके साथ ऐसा पूर्वाग्रह हुआ हो। यह आगे कहता है कि आरोपी को सभी चरणों में त्वरित सुनवाई का अधिकार उपलब्ध है, यानी जांच, पूछताछ, मुकदमे की अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विचार के चरण में यह जरूरी है।

लेकिन रघुबीर सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य (1986) का निर्णय एक दिलचस्प मिसाल कायम करता है। इस मामले में, यह आग्रह किया गया था कि अभियोजन पक्ष द्वारा याचिकाकर्ता की त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा था। याचिकाकर्ता पर आईपीसी की धारा 121ए (भारत सरकार के खिलाफ साजिश, या युद्ध छेड़ने का प्रयास, या युद्ध छेड़ने के लिए उकसाना) और 124ए के तहत आरोप लगाए गए थे। दोनों धाराएं हुकूमत के खिलाफ अपराध बनाती हैं। अदालत ने कहा, "यह सवाल कि क्या त्वरित सुनवाई का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है, का उल्लंघन किया गया है, अंततः आपराधिक न्याय के प्रशासन में निष्पक्षता का सवाल है, यहां तक ​​कि 'निष्पक्ष रूप से कार्य करना नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का सार है और एक निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया वह है जो 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' में अभिव्यक्ति है।

वर्षों से, सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार अभियुक्तों की त्वरित सुनवाई के अधिकार पर जोर दिया है। फिर भी, इसकी विडंबना उन विचाराधीन कैदियों पर नहीं खोई जा सकती है जो यूएपीए के तहत आरोपित होने के कारण जेल में बंद हैं। इस अधिनियम के तहत, यहां तक कि जमानत पाने के लिए, किसी को जमानत की सुनवाई में अपनी बेगुनाही साबित करनी होती है, जो कि जमानत के सामान्य दर्शन का अपवाद है, क्योंकि जब कोई मामला अभी भी जांच के चरण में है, तो कोई कैसे साबित कर सकता है कि उनका अधिनियम के प्रति वह इरादा नहीं था जो हुकूमत इसे बना रहा है? खासकर, जब उनके कृत्य से पूर्व-कल्पित पूर्वाग्रह जुड़ा हो।

यूएपीए एक विफल कानून रहा है

यूएपीए मामलों में जमानत और सुनवाई केवल स्थगन और जांच में देरी के विशाल मामलों का अपवाद बन गई है, जिसमें 2,000-पृष्ठ चार्जशीट और बिना जांच वाले गवाह हैं। सुप्रीम कोर्ट, भारत यूनियन बनाम के.ए. नजीब (2021) ने माना कि यूएपीए की धारा 43डी(5) जैसे वैधानिक प्रतिबंधों की उपस्थिति में भी, संवैधानिक अदालतें संविधान के भाग III के उल्लंघन के आधार पर जमानत देने की क्षमता रखती हैं, और यह कि त्वरित सुनवाई का अधिकार है। यदि मुकदमा जल्द ही किसी भी समय शुरू होने की संभावना नहीं है तो अभियुक्तों के प्रति इसे स्पष्ट रूप से उल्लंघन माना जाएगा।

इस मामले में, केरल उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिवादी नजीब की जमानत का आदेश उसके पांच साल जेल में बिताने के बाद आया था, जबकि उसके अधिकांश साथी अभी भी मुकदमा झेल रहे थे। हाईकोर्ट के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने दखल नहीं दिया था। पिछले महीने जहीर हक बनाम. राजस्थान राज्य, सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए-आरोपी याचिकाकर्ता को जमानत दी थी, यह देखते हुए कि मुकदमे में देरी यूएपीए में जमानत का आधार हो सकती है। याचिकाकर्ता हक करीब आठ साल से हिरासत में था।

यूएपीए जवाबदेही और उचित प्रक्रिया के मामले में पूरी तरह से विफल रहा है, और कार्यकारी मनमानी को आगे बढ़ाता है। इससे उत्पन्न खतरा स्पष्ट है, क्योंकि जब कोई समाज किसी विशेष प्रकार की गतिविधि को करने से दूसरों को रोकने के लिए विभिन्न वर्गों के अपराधियों के बीच भेद करता है, तो यह ऐसे कार्यों के आरोपी अपराधियों के प्रति पूर्वाग्रह को कायम रखता है। और जांच प्रक्रियाओं के एक ईमानदार रास्ते बच जाता है, जिससे वे संवैधानिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति उदासीन हो जाते हैं,  जो लंबे समय में सभी निर्दोष नागरिकों को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाते हैं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2014 और 2020 के बीच हर साल औसतन 4,250 यूएपीए मामले जांच के लिए सामने आए हैं, जिनमें से औसतन 3,579 मामले अभी भी लंबित पड़े हैं। 2020 के अंत तक, 4,101 मामले अभी भी लंबित पड़े थे, जिनमें से 1,818 मामले तीन साल से अधिक समय से जांच की प्रतीक्षा कर रहे थे। 2020 में, यूएपीए के तहत 398 मामले चार्जशीट किए गए थे, जिनमें से 63.56 फीसदी एक साल के भीतर और 27.88 फीसदी एक से दो साल में दायर किए गए थे। इसी तरह 2017 से 43.02 फीसदी ऐसे मामले हैं जो एक से तीन साल से फैसले का इंतजार कर रहे हैं।

जबकि संख्याएं चौंकाने वाली हो सकती हैं, इस मामले में वे इस तथ्य के लिए भी एक वसीयतनामा हैं कि कैसे यूएपीए जवाबदेही और उचित प्रक्रिया के मामले में पूरी तरह से विफल रहा है, और यह प्रशासनिक/कार्यकारी मनमानी को आगे बढ़ाता है। इससे उत्पन्न खतरा स्पष्ट है, क्योंकि जब कोई समाज किसी विशेष प्रकार की गतिविधि को करने से दूसरों को रोकने के लिए विभिन्न वर्गों के अपराधियों के बीच भेद करता है, तो यह ऐसे कार्यों के आरोपी अपराधियों के प्रति पूर्वाग्रह को कायम रखता है। यह जांच प्रक्रियाओं के एक ईमानदार रास्ते से बच जाता है, जिससे वे संवैधानिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति उदासीन हो जाते हैं, जो लंबे समय में सभी निर्दोष नागरिकों को संभावित रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। यह उचित प्रक्रिया और प्रशासनिक कार्यों में चूक की वैधता का एक लबादा औढे रहता है, और सबसे तुच्छ कार्यों के लिए अपराधीकरण का द्वार खोलता है, जिन्हे यूएपीए में हाल ही में किए संशोधनों के जरिए शामिल किया गया था। 

शाओनी दास लॉ ग्रेजुएट हैं और इंडियन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन की सदस्य हैं।

सौजन्य: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Unlawful Activities (Prevention) Act And a Long Way to Justice

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