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कोलंबिया में महिलाओं का प्रजनन अधिकारों के लिए संघर्ष जारी

"राउंडटेबल फॉर लाइफ़ एंड हेल्थ ऑफ़ वीमेन" की एना गोंजालेज़ वेलेज़ ने पीपल्स डिस्पैच से संवैधानिक न्यायालय के उस फ़ैसले पर बातचीत की, जो कोलंबिया में गर्भपात के अपराधीकरण के खात्मे का ऐलान कर चुका है। 
COlombia
8 मार्च को बोगोटा में हुए विरोध प्रदर्शन। फोटो: कोलंबिया इंफॉर्मा

कोलंबिया में गर्भपात को लेकर संवैधानिक न्यायालय ने एक अहम फ़ैसला दिया है। इस फ़ैसले की पृष्ठभूमि में "पीपल्स हेल्थ मूवमेंट थेमेटिक ऑन जेंडर जस्टिस एंड हेल्थ" की मार्ता जिमनेज़ ने "राउंडटेबल फॉर लाइफ़ एंड हेल्थ ऑफ वीमेन" की सह-संस्थापक एना क्रिस्टीना गोंजालेज़ वेलेज़ से बात की, जो एक स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी हैं। इस संगठन ने "जस्ट काज़" आंदोलन की शुरुआत की, जो कोलंबिया में पिछले दशक के दौरान प्रजनन अधिकारों को लेकर महिलाओं को एकजुट करने वाला बड़ा आंदोलन रहा है।

पीपल्स हेल्थ डिस्पैच (पीएचडी): चलिए व्यापक तस्वीर से शुरुआत करते हैं- क्या आप उसके पृष्ठभूमि के बारे में बता सकती हैं, जिसके तहत संवैधानिक न्यायालय का हालिया फ़ैसला आया है और आंदोलन शुरू हुआ है?

एना गोंजालेज़ वेलेज़ (एजी): पहली बात हम साफ कर देना चाहते हैं कि कोलंबिया में फरवरी में कोई विधायी बदलाव नहीं हुआ था। हम विधान परिषद में कोई विधेयक नहीं ले गए थे। वहां जो हुआ, वो कोलंबियाई संवैधानिक न्यायालय के चलते हुआ। यह अहम है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि जैसा लोग बोलते हैं कि यह पहले से ही कानून था। कोलंबिया में 2006 तक गर्भपात पूरी तरह से प्रतिबंधित था। तब एक महिला द्वारा लाए गए मुक़दमे के बाद पहला संवैधानिक संशोधन लाया गया। उस वक़्त कोर्ट ने बुनियादी तौर पर यह कहा था कि गर्भपात को पूरी तरह आपराधिक बनाना संवैधानिक नहीं है, फिर कोर्ट ने तीन स्थितियां बताईं थी जिनमें गर्भपात किया जा सकता है- जब महिला की जिंदगी को ख़तरा हो, जब भ्रूण में कोई त्रुटि आ जाए या जब रेप किया गया हो।

तबसे ही हम लोग, "राउंडटेबल फॉर लाइफ़ एंड हेल्थ" इसे प्रायोगिक तौर पर ज़मीन पर लागू करवाने की कोशिश कर रहे हैं। हम इसके पहले से ही, 1998 में इसकी स्थापना के बाद से ही गर्भपात तक आसान पहुंच के मुद्दे पर काम कर रहे हैं। लेकिन 2006 के बाद से हमारा खास ध्यान कोर्ट के आदेश को लागू करवाने पर केंद्रित हो गया। करीब़ चार साल पहले हमने "जस्ट काज़ मूवमेंट" शुरू करने में मदद की, जिसमें महिलाओं को गर्भपात की प्रक्रिया में मदद दी जाती थी, लेकिन उन्हें अब भी इसमें बाधाओं का सामना करना पड़ता है। बल्कि धरातल पर अब भी गर्भपात ज़्यादातर गैरकानूनी ही है। ज़्यादातर बार यह स्वास्थ्य ढांचे के बाहर ही होता है, मतलब अब भी इसका आपराधिकरण है, इस प्रक्रिया तक पहुंच गैर बराबरी वाली है, बल्कि कोर्ट ने जो आधार तय किए हैं, वे भी असल जरूरत की तुलना में अपर्याप्त हैं। इसलिए हम अपनी मूल रणनीति, दंड संहिता से गर्भपात को हटाने की बात पर वापस लौटे। मतलब इसका अपराधीकरण पूरी तरह खत्म करना। हमने इसे "जस्ट कॉज़" के तौर पर नाम दिया। जल्द ही यह आंदोलन बन गया। क्योंकि शुरुआत से ही कई संगठन इसकी तरफ खिंच रहे थे। इसलिए आज जस्ट काज़ में 115 से ज़्यादा संगठन और सैकड़ों लोग हैं, जिनमें जन नीतियों में मत बनाने वाले नेतृत्वकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं।

हमारा शुरुआती बिंदु यह था कि एक स्वास्थ्य सेवा के प्रशासन के लिए आपराधिक कानून का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। इस लक्ष्य को पाने के लिए हमने कई तरीके अपनाए। जैसे- सोशल मीडिया के ज़रिए लोगों को इकट्ठा करना, नेटवर्क मोबलाइजेशन, मीडिया, तर्कों को गढ़ा, शोध और सामूहिक काम किए। इसका एक वैधानिक आयाम भी है, हम एक विमर्श शुरू करवाना चाहते थे और देखना चाहते थे कि क्या विधेयक के लिए स्थितियां बनती हैं या इसके विरोध में न्यायालय में मुक़दमा चलता है। दो साल पहले हमने एक स्थिति को अपने अनुकूल पाया और जस्ट काज़ आंदोलन से पांच संगठनों ने गर्भपात के आपराधिकरण के खिलाफ़ कोर्ट में असंवैधानिक होने के आधार पर मुक़दमा लगाया। 

पीएचडी- आपने कोर्ट में क्या मांग रखी?

एजी- बुनियादी तौर पर हम कोर्ट से गर्भपात को एक अपराध के तौर पर माने जाने से रोकने की अपील कर रहे थे और इसे आपराधिक वृत्त के बाहर लाने की अपील कर रहे थे। यह 500 दिन से ज़्यादा का संघर्ष था, जिसमें हम संवैधानिक फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे थे और उसी दौरान जांच को जनता के सामने रख रहे थे, हमने अपने केस के पक्ष में 90 से ज़्यादा तर्क रखे। हमने सड़कों पर लोगों को इकट्ठा किया और आखिरकार कोर्ट ने अपना फ़ैसला दे ही दिया। मैं यहां बताना चाहती हूं कि यह आंदोलन ऐसा नहीं था कि यह कहीं से भी उपज गया हो। यह बेहद सटीकता से इस्तेमाल किए गए राजनीतिक अनुभव का परिणाम है। गर्भपात के संघर्ष में महिलावादी आंदोलन ने ऐसे ही किसी दिन जन्म नहीं ले लिया, इसके पास वह विचार है, जो सबकुछ बदल सकता है। यह राजनीतिक विशेषज्ञता का नतीज़ा है। यह कुछ खास पृष्ठभूमियों से उपजा है।  

जब हमने मुक़दमा दायर किया था और जब फ़ैसला आया, इस दौरान वक़्त में बहुत अंतर था। आज चुनावों के पहले का माहौल है। जैसे ही फ़ैसला आया, राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी, खासतौर पर दक्षिणपंथी समूहों से ताल्लुक रखने वाले, उन्होंने फ़ैसले का विरोध करना शुरू कर दिया। इस पूरे मुक़दमे को गलत पृष्ठभूमि बताकर पेश किया जाने लगा। इसके शांति समझौते पर हस्ताक्षर के साथ जोड़ा जाने लगा, जहां हमने कहा था कि महिला की पूर्ण नागरिकता और एक शांतिप्रिय समाज के लिए महिला की आज़ादी जरूरी है। फ़ैसले के साथ कुछ लोगों ने जो स्त्री विरोधी भावना का प्रदर्शन किया, उससे और भी ज़्यादा संख्या में 8 मार्च को महिलाएं अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर आईं। 

लेकिन अब हम वापस चलते हैं और देखते हैं कि कोर्ट ने क्या किया। इसने गर्भधारण के 24वें हफ़्ते तक गर्भपात करने को अपराध से बाहर कर दिया। मतलब तब तक महिलाएं अपनी खुद की मर्जी से गर्भपात करवा सकती हैं। उन्हें इसके लिए कोई तर्क नहीं देना होगा। फिर इस समय के बाद 2006 में बताई गई तीनों स्थितियां लागू होंगी। एक और अहम चीज यह है कि कोर्ट ने कांग्रेस और सरकार से एक समग्र नीति बनाने की अपील की है, ताकि यौन शिक्षा, गर्भ निरोधकों तक पहुंच और गर्भपात सेवाओं की समग्र नीति के ढांचे के तहत गर्भपात सेवाओं को उपलब्ध करवाया जा सके। 

उन्होंने 24 हफ़्ते की समय सीमा क्यों निश्चित की? दरअसल यह बिल्कुल साफ़ है कि 24 हफ़्ते तक का भ्रूण गर्भ के बाहर बचा नहीं रह सकता। बशर्ते इसे बेहद उन्नत तकनीक का सहारा न मिले और कोलंबिया में तो ऐसा नहीं है। कम से कम सारे शहरों में तो यह सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए यह एक तार्किक समयसीमा है। लेकिन कोर्ट के फ़ैसले से यह समझ भी दिखाई देती है कि छोटी समयसीमा तय करने से सबसे ज़्यादा जोख़िम में रहने वाली महिलाओं पर नकारात्मक असर पड़ेगा। बड़ी संख्या में महिलाओं को जल्दी गर्भपात होता है, लेकिन एक छोटी संख्या उन महिलाओं की भी है, जिन्हें गर्भपात करवाने के लिए 20वें हफ़्ते के बाद का समय चाहिए होता है, इसलिए कोर्ट के फ़ैसले द्वारा इनकी रक्षा करने की कोशिश की गई है। लेकिन इसके बावजूद भी दक्षिणपंथी कह रहे हैं कि कोर्ट ने बेहद भयावह चीज कर डाली है।

पीएचडी: आपने बताया कि जस्ट काज़ में 100 से ज़्यादा संगठन और लोग शामिल हैं। यह कैसे संगठन हैं, आप उनके साथ कैसे काम करती हैं?

एजी: हमारा संगठन वाकई में विविध संगठनों से मिलकर बना है। इसमें कई तरह के लोग शामिल हैं। जैसे- इसमें महिलावादी मानवाधिकार संगठन शामिल हैं, जो कोलंबिया के 20 से ज़्यादा शहरों से हैं। फिर कुछ लोग राष्ट्रीय संगठनों से हैं, बाकी कुछ लोग अकादमिक संगठन, कुछ लोग कानूनी मदद प्रदान करवाने वाले संगठनों या सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

लेकिन जहां कई संगठन ने जस्ट काज़ में शामिल होकर इसके विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन मुझे कहना होगा कि इनमें से 5 संगठनों का अतीत में ज़्यादा साझा अनुभव और स्वास्थ्य मुद्दों पर ज़्यादा कानूनी अनुभव रहा है। इनमें- वीमेंस लिंक, द सेंटर फॉर रिप्रोडक्टिव राइट्स, कैथोलिक्स फॉर द राइट टू डिसाइड, द मेडिकल ग्रुप फ्रॉम राइट टू डिसाइड, द राउंडटेबल फॉर लाइफ एंड हेल्थ ऑफ़ वीमेन शामिल हैं। हमारा हमेशा से मानना रहा है कि बड़े संघर्षों के लिए बड़े आंदोलनों की जरूरत होती है। इसलिए हम कानूनी मुक़दमे को लगाने के लिए साथ आए और दबाव बनाना जारी रखा, जिसके चलते हमारे मुक़दमे से कोर्ट को चार चीजें माननी पड़ीं।

कोर्ट ने माना है कि गर्भपात को अपराध मानना, वंचित समूहों में शामिल महिलाओं के समता के अधिकार का हनन है। कोर्ट ने लोगों के अंतरात्मा की स्वतंत्रता को भी मान्यता दी है और कहा है कि राज्य किसी भी महिला पर मां बनने जैसे मुद्दे पर अपना फ़ैसला नहीं थोप सकता। क्योंकि महिलाओं के पास अपना विवेक है और वे उसके आधार पर फ़ैसला कर सकती हैं।

कोर्ट ने माना है कि गर्भपात के अपराधीकरण से स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन होता है। क्योंकि इससे प्रसव स्वास्थ्य की रक्षा नहीं होती और गर्भपात, प्रसव स्वास्थ्य का हिस्सा है। ऐसे में हमारे पास स्वास्थ्य का अधिकार शेष नहीं रहता। आखिरी वाला थोड़ा तकनीकी है और मैं यहां उसमें खोना नहीं चाहती।

जब कोर्ट ने यह फ़ैसला सुनाया, तो उसके बाद यह चर्चा उठी कि क्या कोर्ट गर्भपात पर फ़ैसला सुना सकेगा, क्योंकि कोर्ट ने 2006 में ही इस पर फ़ैसला सुना दिया था। इसे कानूनी भाषा में रेस जूडिकाटा कहते हैं। दिलचस्प तौर पर यहां कोर्ट ने कहा कि रेस जूडिकाटा यहां लागू नहीं होता, क्योंकि 2006 के बाद से बहुत कुछ बदल चुका है और हमने देखा है कि धरातल पर यह कैसे काम कर रहा था, यह कितना अपर्याप्त था और इसे लागू करने में कितनी सारी बाधाएं आई थीं।

पीएचडी: यह देखना बेहद दिलचस्प था कि गर्भपात के अधिकार की लड़ाई में भौतिकशास्त्री भी शामिल थे। उदाहरण के लिए मैं जहां रहता हूं, स्पेन में, वहां कई स्वास्थ्य संगठनों ने इसका विरोध किया था। क्या आप इसे एक अहम बिंदु के आधार पर देखते हैं, मतलब अलग-अलग तरह के लोगों को साथ लाना और उनके साथ गर्भपात जैसे मुद्दे पर काम करना। आखिर धरातल पर इससे क्या बदलाव आता है?

ए़जी: चिंता मत करिए, यहां भी कई डॉक्टर हैं, जिन्होंने इसका विरोध किया है। बल्कि इस हफ़्ते एक मेडिकल गिल्ड का प्रवक्ता कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ अभियान चलाने के लिए सामने भी आया। और वे प्लास्टिक सर्जन हैं। उनका इस क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन आप सही हैं कि यह मायने रखता है कि जरूरत के वक़्त कौन आपका समर्थन करता है।

मैं कई सालों से स्वास्थ्य और कानून के मध्यवर्ती क्षेत्र में काम कर रही हूं। तकरीबन 15 साल से। मेरा मानना है कि जो लोग आज कानूनी फ़ैसले लेते हैं, उन्हें उनके फ़ैसलों की स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले असर की ज़्यादा व्यापक समझ बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह भी उतना ही जरूरी है कि हममें से जो लोग स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करते हैं, उन्हें भी कानून और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार ढांचे की समझ होनी चाहिए।

2006 के फ़ैसले में एक अधिकार यह था कि अगर किसी महिला का स्वास्थ्य या उनकी जिंदगी ख़तरे में है, तो वे गर्भपात करवा सकती हैं। तो सवाल उठता है कि इसका क्या मतलब है कि आपका स्वास्थ्य ख़तरे में है? आखिरकार विशेषज्ञ इसकी व्याख्या कैसे करेंगे? तब हमने कानून, स्वास्थ्य, जीव नैतिकता के लोगों के साथ बड़े प्रयास किए और सुनिश्चित किया कि इसका फ़ैसला करने वालों के पास व्याख्या करने वाले ढांचे तक सुलभता से पहुंच हो, मतलब वे इस व्यापक तौर पर मानवाधिकारों को ध्यान में रखें।

कम से कम अब के लिए, हमारी मुहिम में शामिल इन सारे विषयों में अंतर्संबंध बेहद उपयोगी रहा है। सीखने और अनुभव से सीखने का बहुत ज़्यादा काम रहा है, यह आपसी सीख का काम रहा है और मुझे लगता है यह सभी के लिए बेहद अच्छा रहा है। लेकिन सबसे ज़्यादा इससे अच्छे नतीज़े आए हैं। इससे वो फ़ैसला आया है, जिसे हमने दो हफ़्ते पहले देखा। यह फ़ैसला स्वास्थ्य क्षेत्र का फ़ैसला है, लेकिन इसमें कानूनी, न्यायिक क्षेत्र का योगदान रहा है। अब भी हमारा काम खत्म नहीं हुआ है, हम लगातार काम करते रहेंगे ताकि एक दिन गर्भपात अपराध के तौर पर समाप्त हो जाए और यह समझा जा सके कि बिना महिलाओं को सजा दिए भी, गर्भपात को आपराधिक दायरे के बाहर नियंत्रित किया जा सकता है। 

पीएचडी: फ़ैसला आए हुए कुछ ही वक़्त हुआ है। क्या अब तक यह देखने का मौका मिला है कि ये कोलंबिया में किस तरीके से लागू हो रहा है, जबकि कोलंबिया खुद अपने आप में एक जटिल जगह है?

- यह सही है कि सरकारी स्वास्थ्य तंत्र बेहद जटिल है। हमें फ़ैसले के धरातल पर लागू होने के नतीज़े देखने के लिए कुछ वक़्त देना होगा। लेकिन आपको यहां कुछ अहम चीजों पर ध्यान देना होगा। पहली बात, कोलंबिया में गर्भपात 2006 से किए जा रहे हैं। कोर्ट के फ़ैसले के विरोधी आपको यह समझाने की कोशिश करेंगे कि अब जाकर ही गर्भपात शुरू होंगे। फिर 2006 में जो तीन स्थितियां बताई गई थीं, उनके लिए तो गर्भधारण की कोई समयसीमा भी तय नहीं की गई थी।

इसलिए 2006 से यहां दूसरी और तीसरी तिमाही में भी गर्भपात किए जा रहे हैं। भले ही इन्हें करने में बहुत दिक्कतें आ रही हैं, पर ये हो रहे हैं। मतलब कुछ पूर्व शर्तों के साथ सेवा उपलब्ध है। कोलंबिया में इन पूर्व शर्तों को सामान्य समाज सुरक्षा स्वास्थ्य तंत्र की कल्याणकारी योजनाओं में शामिल किया गया है। तो जो भी कोई महिला कोलंबिया के स्वास्थ्य तंत्र से जुड़ी है, उसे इस तरह की स्वास्थ्य सेवा लेने का अधिकार है, क्योंकि स्वास्थ्य तंत्र में पहले ही इस तरह की सेवाओं की व्यवस्था मौजूद है।

दूसरी तरफ गर्भपात से संबंधित नियामक प्रबंधन, तकनीकी दिशा-निर्देश भी हैं, जिन्हें नए फ़ैसले की पृष्ठभूमि में बदला जाना है। तो निश्चित तौर पर हमें कांग्रेस या स्वास्थ्य प्राधिकरण के पास जाकर ऐसे नियमों को बनवाना होगा जो उन मानवाधिकारों का अनुपालन सुनिश्चित करवा सकें, जिनके लिए संवैधानिक कोर्ट पिछले कुछ सालों से फ़ैसला देते आ रहे हैं।   

मेरा मानना है कि सेवाओं के प्रावधानों के लिए तीन तरह की चुनौतियां हैं। पहला, विशेषज्ञों-पेशेवरों को समझने की जरूरत है कि अगर गर्भपात की सेवा उपलब्ध है, तो उन्हें सम्मानजनक व्यवहार के साथ अच्छे ढंग से यह उपलब्ध करवानी चाहिए। यह चीज व्यवहारिक स्तर पर बेहद पेचीदगी भरी हो सकती है। अगर ऐसा होगा, तो गर्भपात करवाने वाली महिलाएं शुरुआती तीन महीने में ही गर्भपात करवा लेंगी। तो नियामकों का विरोध करने के बजाए, हमें सेवाएं उपलब्ध कराने और उन्हें तय वक़्त में सुलभ करवाने पर ध्यान देना होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी होगा कि हमें गर्भपात पर ज़्यादा प्रशिक्षण और शैक्षणिक संस्थान खोलने होंगे। क्योंकि अब हमारे पास गर्भपात को अंजाम देने की सिर्फ़ तीन वजह नहीं हैं, अब किसी महिला की इच्छा से भी उसका गर्भपात हो सकेगा। 

इसलिए हमें स्वास्थ्य पेशेवरों के प्रशिक्षण और महिलाओं को जानकारी देने पर ध्यान देना होगा, ताकि वे एक निश्चित समय में अपनी स्वास्थ्य सेवा की मांग कर सकें। 

फिर इस फ़ैसले की सुरक्षा का सवाल भी है। क्योंकि कट्टरपंथी दक्षिणपंथी ना सिर्फ़ फ़ैसले का विरोध कर रहे हैं, बल्कि वे न्यायधीशों का भी विरोध करने पर आमादा हैं। पिछले हफ़्ते गर्भपात के पक्ष में फ़ैसला देने वाले जज को बेहद गंभीर धमकी भरा ख़त मिला था। तो यहां सिर्फ़ गर्भपात के फ़ैसले की रक्षा करने की बात नहीं है, बल्कि यहां लोकतांत्रिक संस्थानों को सुरक्षित रखने और एक संवैधानिक कोर्ट द्वारा की गई कार्रवाई की रक्षा करने की बात भी है।

फिर यहां लोगों को यह भी समझाने की जरूरत है कि कोर्ट का फ़ैसला सबसे शांतिपूर्ण है, क्योंकि यह फ़ैसला किसी महिला को गर्भपात कराने को मजबूर नहीं करता, लेकिन यह किसी महिला को जबरदस्ती मां बनने को भी मजबूर नहीं करता। 

पीएचडी: क्या 8 मार्च के प्रदर्शन से यह प्रदर्शित हुआ कि इस मुद्दे पर महिलाएं सक्रिय होती हैं और उन्हें अपना काम करने की प्रेरणा मिलती है?

एजी: मैं हां कहूंगी। 8 मार्च को बड़े पैमाने पर महिलाएं इकट्ठी हुईं। निश्चित तौर पर यह सिर्फ़ गर्भपात के बारे में नहीं था। वह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था और वहां कामग़ार महिलाओं के मुद्दे पर भी बहुत ध्यान केंद्रित था। लेकिन उस जुलूस के दौरान "लिबरटाड स्टॉप" नाम का एक स्टॉप भी था, वहां बहुत सारे प्रतीक-चिन्ह थे, जो कह रहे थे: हम महिलाएं, घृणा और रूढ़ीवादी दक्षिणपंथियों की हमें पीछे ले जाने की कोशिशों का सड़कों पर आकर विरोध कर रहे हैं और हमारे अधिकारों के लिए खुशी और मजबूती के साथ संघर्ष कर रहे हैं। तो मामला ऐसा ही है और हम इस रास्ते पर चलना जारी रखेंगे।

साभार : पीपल्स डिस्पैच

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