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अफ़ग़ानिस्तान पर क्षेत्रीय अलगाव से बचने के लिए भारत ने साधा रूस से संपर्क 

राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन को नरेन्द्र मोदी का फोन करना अपने क्षेत्रीय अलगाव को दूर करने की हताशा में किया गया एक प्रयास है।
अफ़ग़ानिस्तान पर क्षेत्रीय अलगाव से बचने के लिए भारत ने साधा रूस से संपर्क 
नवम्बर 2018  में अफगानिस्तान के मसले पर मास्को में आयोजित एक सम्मेलन में तालिबानी नेताओं के साथ शिरकत करते रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अफगानिस्तान की स्थिति पर दिल्ली के घोर अलगाव के चलते, देश-दुनिया का ध्यान मोड़ने के एक हताश प्रयास में 24 अगस्त 2021 को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को कॉल किया था, जिसे भारतीय मीडिया प्रतिष्ठानों ने बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। 

दरअसल, यह हताशा भारत की अफगान नीति के पूरी तरह विफल हो जाने से उत्पन्न स्थिति में अपने सहारे के लिए कोई एक तिनका पकड़ लेने की कवायद थी। अफगानिस्तान पर सरकार के आख्यान ने उसकी खामियों को गहराई से उजागर कर दिया है। 

हालांकि फोन पर हुई बातचीत में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने मोदी के इस अनुरोध को मान लिया है कि अफगान मसले पर “स्थायी संवाद जारी रखने के लिए एक दोतरफा माध्यम स्थापित” किया जाए। रूस तो हमेशा ही भारत के साथ ऐसे सहयोग के प्रति उदार रहा है लेकिन मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी को वरीयता दी है। 

दिल्ली में ठकुरसुहाती करने वाले राजनेताओं (स्पिन डॉक्‍टर) ने मीडिया में एक कहानी गढ़ी कि मोदी इशारा करेंगे तभी पुतिन तालिबान को रूस की मान्यता देंगे। यह भी कि वे मोदी के इस आकलन से सहमत हो गए हैं कि काबुल में तालिबान की मौजूदगी का फायदा उठा कर पाकिस्तान भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में आतंकवाद फैलाएगा। 

इस तरह की मनगढंत कहानियों को प्रचारित-प्रसारित कर भारतीय अधिकारियों ने निश्चित ही क्रेमलिन को शर्मिंदा कर दिया है, भले इसके पीछे सरकार की मंशा विपक्षी दलों के साथ हालिया हुई सर्वदलीय बैठक में उन पर अपना रोब गांठना रही हो। 

मास्को ने भारत और पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों में डी-हाइफनेटेड दृष्टिकोण के तहत रखा है। इसका मतलब है, दो परस्पर शत्रु देशों की आंतरिक स्थितियों के पचड़े में पड़े बगैर अपने लिए रिश्ते की एक गुंजाइश निकालना। उसके लिए एक जमीन तैयार करनी है और उसी के मुताबिक उस देश के साथ पेश आना है। रूस अपने नजरिये में, पाकिस्तान एशिया-यूरोप क्षेत्र में रूस के कुछ हितों को आगे बढ़ाने वाला एक संभावनाशील सहयोगी के साथ एक गंभीर साझीदार है, जो काम अमेरिका के साथ अपने अर्ध-गठबंधन के चलते भारत न तो  कर सकता है और न ही करेगा।

दूसरे, भारत की नीतियां रूस के कुछ अहम हितों एवं मुख्य सरोकारों के विरुद्ध हैं। भारत अभी क्वाड (QUAD) के वाहन पर सवार है, जो कि चीन और रूस के प्रति अमेरिका की दोहरी नियंत्रण रणनीति का एक खाका है। 

रूस के ऊच्चस्तरीय नेतृत्व ने भारत को बारहां आगाह करता रहा है कि मास्को ‘हिन्द-प्रशांत क्षेत्र’ में रूस एवं चीन के विरुद्ध कुछ देशों का एक समूह (जिसमें भारत भी शामिल है) बनाने के अमेरिकी प्रयासों से लेकर खिन्न है। लेकिन रूस की तरफ से बार-बार जताई गई इस चिंता की मोदी सरकार ने न केवल अनसुनी की बल्कि उसने खुले तौर पर अपनी खुशी जाहिर की कि लगातार शिखर स्तरीय सम्मेलनों के जरिए क्वाड को एक सांस्थनिक रूप दिया जा रहा है।

पाकिस्तान के साथ रूस के संकटग्रस्त संबंधों का अपना एक इतिहास रहा है। इसके बावजूद, इस्लामाबाद ने मास्को के साथ रिश्ते कायम करने की बेताबी जाहिर की है। जब अफगानिस्तान की बात आती है तो पाकिस्तान बिना किसी हिचकिचाहट के रूसियों एवं तालिबान के अधिकारियों के साथ भेंट-मुलाकात या गुफ्तगू करा देता है, जिससे मास्को अब एक अच्छी स्थिति में आ गया है। 

जबकि दिल्ली अभी तक तालिबान को केवल पाकिस्तान की एक प्रतिनिधि (प्रॉक्सी) ईकाई के रूप में देखने की अपनी पुरानी धारणाओं में ही जकड़ी हुई है, वहां मास्को तालिबान को अफगानिस्तान की एक प्रमाणिक सत्ता के रूप में देखता है, जिसकी देश की मुख्यधारा की राजनीति में एक वैध भूमिका है। इस तरह, तालिबान के साथ संबंध बनाना रूस की अफगान नीति का एक केंद्रबिंदु बन गया है। 

यह कहना काफी है कि इस अंतर्विरोध को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, चाहे मोदी आधा दर्जन से अधिक बार भी पुतिन को फोन कर लें। अब इसको जरा दूसरे तरीके से देखें, रूस मोदी सरकार के दृष्टिकोण को अफगान के प्रश्न पर पिछड़ा मानते हुए अपने रास्ते में बदलाव नहीं करेगा।

यह दिलचस्प है कि नरेन्द्र मोदी से फोन पर बातचीत के एक दिन पहले ही पुतिन ने अफगानिस्तान के मसले पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान से भी बातचीत की थी। रूस की विज्ञप्ति में दोनों नेताओं के बीच फोन पर हुई बातचीत को अफगान मसले पर आगे बढ़ने के लिए मास्को एवं इस्लामाबाद के बीच  ऊच्च स्तर के संबंधों के रूप में रेखांकित किया गया है। 

विज्ञप्ति में कहती है कि दोनों नेताओं ने अफगानिस्तान में “शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने के महत्त्व पर जोर दिया”। उन्होंने “हिंसा को रोकने एवं अंतर-अफगान संवाद कायम करने की आवश्यकता जताई जिससे कि एक समावेशी सरकार का गठन हो और जो आबादी के सभी हिस्से का ख्याल रखे।”

पुतिन एवं इमरान खान ने “अफगान मसले पर द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय दोनों ही तरीकों से विचारों के समन्वय पर अपनी रजामंदी जताई” और उनमें यह राय भी बनी कि “क्षेत्रीय स्थिरता को सुनिश्चित करने और आतंकवाद तथा ड्रग के खतरों का मुकाबला करने में संघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की क्षमताओं का उपयोग किया जाए।” 

एससीओ चीन की क्षेत्रीय भूमिका के लिए एक प्रकार का कोड वर्ड है। इस कारण, यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु भी है। (ध्यान रहे कि मोदी-पुतिन की बातचीत के बाद जारी की गई विज्ञप्ति में अफगानिस्तान में एससीओ की ऐसी किसी भूमिका का उल्लेख नहीं किया गया है।) 

रूस की विज्ञप्ति का अंत इस तथ्य के उल्लेख के साथ होता है कि “रूस-पाकिस्तान संपर्क को अनेक स्तरों पर तेज किया जाएगा।” जाहिर है कि, क्रेमलिन आगे के समय में पाकिस्तान के साथ सहयोग को सर्वाधिक महत्त्व देता है। यह संभावना है कि अफगान के पुनर्निर्माण का कार्य एवं सीपीईसी रूस के कारोबार एवं उद्योग के लिए अपार अवसरों का द्वार खोलेगा। 

हाल ही में, चीन के टिप्पणीकारों ने कहा है कि “रूस के साथ चीन के बीच सघन समन्वय एवं उनके साझे हित अफगानिस्तान में संभावित पुनर्निर्माण के प्रयासों में एक बड़ी भूमिका निभाएंगे। …अफगानिस्तान की स्थिति में, चीन एवं रूस ने पस्पर घनिष्ठ संवाद बनाए रखे हैं, और वहां शांति कायम करने एवं विकास के कामों में साझी दिलचस्पी दिखाई है, जो इन दोनों देशों को अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के प्रयासों में मुख्य किरदार एवं साझेदार बनाती है। उनकी यह स्थिति उस अमेरिका की धुर विरोधी है, जिसकी मंशा में अफगानिस्तान में अराजकता बोने की है।…”  

“जबकि चीन अपनी निर्माण क्षमताओं एवं वित्तीय संसाधनों के बलबूते पर कुछ विशिष्ट परियोजनाओं के संचालन में अग्रणी भूमिका निभा सकता है, वहीं रूस अफगानिस्तान एवं इस क्षेत्र में स्थिरता-सुरक्षा सुनिश्चित कायम करने में अपने व्यापक प्रभावों के साथ ऐसे प्रोजेक्ट्स में अपना अहम समर्थन दे सकता है। विशेषज्ञों ने कहा कि चीन एवं रूस उन देशों में शामिल हैं, जो अफगानिस्तान में शांति एवं विकास के प्रति संजीदा हैं, जबकि अमेरिका एवं कुछ अन्य पश्चिमी देश भी इसको नजरअंदाज करना चाहते हैं।” 

चीन की तरफ से ‘अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन मे बूस्ट डी-डॉलराइजेशन पुश’ शीर्षक से इस हफ्ते लिखे गए एक अन्य लेख में कहा गया है : “चूंकि अमेरिका अफगानिस्तान में प्रतिबंध लगाने की मांग करता है और इस देश को मिलने वाली अति आवश्यक वैश्विक सहायता को भी रोक दिया है, तो पहले से ही आकार ले रही वैश्विक डी-डॉलराइजेशन प्रक्रिया इन देशों के साथ और बढ़ सकती है, जो अमेरिकी डॉलर की वैकल्पिक मुद्राओं को तेजी से अपनाते जा रहे हैं।… अगर अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण यूरो एवं युआन जैसी अन्य मुद्राओं की उपस्थिति एवं उपयोग को बढ़ाने का एक मंच तैयार कर देता है, तो इसके आगे डॉलर की स्थिति सिमट सकती है। वास्तव में, डी-डॉलराइजेशन का रुख रूस एवं सऊदी अरब समेत कुछ देशों में पहले से ही बना हुआ है।” 

वहीं, भारत की अफगानिस्तान नीति दोषपूर्ण है क्योंकि वह मसले के आधे-अधूरे पक्ष को देखने के कारण उसे संपूर्णता में नहीं समझती है। मोदी सरकार के सामने कोई “बड़ी तस्वीर” नहीं है। उसकी कुल जोड़ शून्य खेल वाली मानसिकता, अपने कट्टर दुश्मनों-चीन एवं पाकिस्तान-के प्रभावों को खरोंचने में लगी है। जबकि अपने प्रयासों में संजीदा देश, खास कर रूस, अफगानिस्तान के पास भूआर्थिकी का एजेंडा लेकर पहुंच रहे हैं। 

दिल्ली ने शिंजियांग एवं पाकिस्तान पर अपनी नजर रखने के साथ ही अफगानिस्तान में अपना शानदार खेल फिर से शुरू करने के लिए अमेरिका से बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। लेकिन जैसे ही अमेरिका वहां से निकला, उसने दिल्ली को डंप कर दिया और तालिबान के साथ रिश्तेदारी को फिर से ताजा करने की कवायद शुरू कर दी।

पुतिन को मोदी का फोन करना इस क्षेत्र में अलग-थलग पड़े भारत को उबारने का हताशा में किया गया एक प्रयास था। हालांकि पुतिन ने पाकिस्तान के साथ रूस के गहरे संबंधों को मजबूत करने की परिस्थितजन्य भूमिका समझी और उसे निभाया भी।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

India Reaches Out to Russia to Break Out of Regional Isolation over Afghanistan

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