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भारत को अब क्वाड छोड़ देना चाहिए! 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) जेक सुलिवन के बयान में अमेरिका के बढ़ते खतरे का भारत की रक्षा क्षमताओं और उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा पर महत्त्वपूर्ण असर पड़ेगा। 
NSA
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 13 मार्च, 2022  को नई दिल्ली में आयोजित सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति और शीर्ष अधिकारियों की बैठक की अध्यक्षता की। 

संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन जैसी महाशक्तियों के बीच बच कर चलना कोई आसान काम नहीं है। भारत को पता होना चाहिए था कि उनके विरोधाभास कहीं से पाटने योग्य नहीं हैं। 

इसलिए यह सच्चाई का पल है क्योंकि अमेरिका ने रूस को रक्तरंजित करने और नष्ट करने के लिए अपनी तलवार म्यान से निकाली हुई है, तो चीन को इससे दूर रहने का अल्टीमेटम दिया है। 

स्थिति का गुरुत्वाकर्षण आखिरकार डूब रहा है। इसका संदेश "यूक्रेन में चल रहे संघर्ष के संदर्भ में भारत की सुरक्षा तैयारियों और प्रचलित वैश्विक परिदृश्य की समीक्षा करने के लिए” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रविवार को नई दिल्ली में बुलाई गई सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (सीसीएस) की बैठक से निकला है, जहां उन्हें “नवीनतम घटनाक्रमों और सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ-साथ समुद्री और हवाई क्षेत्र में भारत की सुरक्षा तैयारियों के विभिन्न पहलुओं पर अवगत कराया गया।” 

दरअसल, अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने सोमवार को रोम में चीन के शीर्ष राजनयिक और पोलित ब्यूरो के सदस्य यांग जिएची के साथ बैठक कर इस बात को दोहराया कि यह विश्व राजनीति में एक निर्णायक क्षण है। 

इसके एक दिन पहले रविवार को सुलिवन ने सीएनएन के साथ एक इंटरव्यू में चीन को स्पष्ट रूप से धमकी दी। उन्होंने कहा,"हम पेइचिंग से सीधे और निजी तौर पर बात कर रहे हैं कि रूस पर बड़े पैमाने पर प्रतिबंध लगाने के उनके प्रयास में अडंगा डालने के या उसका समर्थन करने के परिणाम पेईचिंग को भुगतने होंगे। हम इसे (युद्ध को) आगे बढ़ने नहीं देंगे और दुनिया भर में कहीं से भी, किसी देश से भी इन आर्थिक प्रतिबंधों को रूस की जीवन रेखा नहीं बनाने देंगे।”

इसमें चीन के लिए चेतावनी यह है कि उसे रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए और किसी भी रूप में रूस को समर्थन (“लाइफलाइन”) प्रदान करने से बचना चाहिए। 

सुलिवन के बयान की धार यह है कि वह भारत पर भी लागू होता है। इसके निहितार्थ बहुत-बहुत गंभीर हैं। दरअसल, वाशिंगटन की मांग यह भी है कि भारत को रूस के साथ अपने संबंधों को खत्म कर देना चाहिए। 

इसका मुख्य आशय यह है कि भारत को रूस के साथ अपने रक्षा संबंधों को फ्रीज कर देना चाहिए। यह देखते हुए कि हमारे सशस्त्र बलों के लिए 60-70 प्रतिशत हथियार रूसी मूल के हैं, ऐसे में रूस से अपने काट लेना, भारत की रक्षा तैयारियों के लिए एक भारी झटका साबित होगा। 

अनिवार्य रूप से, यह भारतीय नेतृत्व के लिए बपतिस्मा होने जा रहा है। इसका कारण यह है कि अमेरिकियों ने पहले ही सरकार को अपनी मांगों से अवगत करा दिया है, और इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को जल्दबाजी में सीसीएस की बैठक बुलानी पड़ी। 

पिछले सप्ताह रूसी ऊर्जा मंत्री ने अपने भारतीय समकक्ष से मुलाकात की थी, जहां उन्होंने न केवल रियायती दरों पर तेल की पेशकश की बल्कि भारतीय कंपनियों को तरजीही आधार पर रूसी तेल और गैस क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया था। ऐसे समय में जब तेल की कीमत $130 प्रति बैरल को पार कर गई है और गैस के लिए स्पॉट मार्केट प्राइस $4,000 प्रति हजार क्यूबिक मीटर के करीब पहुंच रहा है, रूसी प्रस्ताव एक तरह से भगवान से भेजा गया एक उपहार था। 

लेकिन तथ्य यह है कि भारत सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया है, जो संभ्रांति की स्थिति को जाहिर करता है- यह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) सरकार की उसी बुजदिली का लक्षण है,जिसने अमेरिका के दबाव में ईरान के साथ संबंधों खत्म कर लिए थे। 

अमेरिकियों ने अनुभव किया है कि हमारे अभिजात वर्ग में अधिकतर हैं, जो तुच्छ हैं। भ्रष्टाचार के स्तर को देखते हुए हमारे देश में हर तरह के हित-समूह हैं। इसके अलावा, हमारे अभिजात वर्ग के भीतर कॉम्प्रेडर तत्व हैं, जिनके अमेरिकी एजेंडे में अपना हित हैं। यह जीवन का एक दुखद तथ्य है। 

हालांकि, यूपीए के समय से आज अंतर यह है कि उभरते अमेरिकी खतरे का भारत की रक्षा-क्षमताओं और राष्ट्रीय सुरक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। एक ऐसी सरकार जो राष्ट्रवादी ईमान-धर्म की घोषणा करती है, उसके लिए विकल्प भी स्पष्ट होना चाहिए। 

नरेंद्र मोदी सरकार को रूस के संबंध में अमेरिकी कानूनों का पालन करने से इनकार कर देना चाहिए। हर पहलू से अमेरिकी झांसा दे रहे हैं। और,अगर रूस से अपने रक्षा संबंधों को रखने की कीमत चुकानी है तो सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्र को अपने विश्वास में ले तथा देश के मुख्य हितों की किसी भी कीमत पर रक्षा करने की अपनी दीर्घकालिक अनिवार्यता को समझाए। भारत के लोग देशभक्त हैं। 

मेरी समझ से, आज की दुनिया में, अमेरिका का प्रभुत्व डावांडोल है। अमेरिका उन लोगों पर धौंस जमाता है, जो उसकी धौंसपट्टी में सहज आ जाते हैं और उन सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग को निजी या सामूहिक रूप ब्लैकमेल करता है, जो इस लिहाज से कमजोर पड़ते हैं। उम्मीद है, हमारे अभिजात शासक वर्ग इस तरह की दयनीय श्रेणी में नहीं आते हैं। 

हमारा स्वाधीनता संग्राम बहुत कठिन था और आज की यह परिघटना देश की स्वतंत्रता बनाए रखने के बारे में भी है। यह राष्ट्र एक प्रेरणादायक नेता के नेतृत्व में ही बढ़ेगा। 

आज इस तरह का खेदजनक समय पिछले दो दशकों के दौरान हमारी त्रुटिपूर्ण विदेश नीतियों के कारण हमारे समक्ष आया है या इसलिए कि जब अमेरिका की तरफदारी करने वालों ने यह स्पष्ट करना शुरू कर दिया कि अमेरिका के साथ गठबंधन में ही भारत के हितों का सबसे अच्छा उपयोग किया जा सकता है। 

‘गुटनिरपेक्षता' और 'रणनीतिक स्वायत्तता' की पुरातन अवधारणाएं आज बदल गई हैं। इस प्रकार, लगभग 2000 से अब तक भारत ने 'क्रॉस दि रूबिकॉन' कर लिया है-मैंने भारत के अपने स्वाभाविक सहयोगी के साथ दिखने के लिए रुबिकॉन मुहावरे को उस समय की एक कुख्यात पुस्तक के शीर्षक से उधार लिया है। जरा देखिए तो, इसने आज 21 साल बाद हमारे देश को कहां ले आया है? 

मीडिया में विदेश नीति और रणनीतिक प्रतिरक्षा के के स्वयंभू गुरु अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अपने आकलन में भयानक रूप से गलत साबित हुए हैं। रूबिकॉन से परे, हमने जो देखा और अनुभव किया है, वह सूखी धरती और हिंस्र पक्षियों का एक विरंजित लैंडस्केप है, जो El Dorado (समृद्धि एवं सुअवसर से भरपूर सुनहला स्थान) से काफी अलहदा है, जिसका वादा कॉरपेटबैगर्स द्वारा किया गया था। 

भारतीय विदेश नीति को एक रणनीतिक सुधार की जरूरत है। भारत को खुद को उन स्व-केंद्रित अमेरिकी नीतियों से पूरी तरह दूर रखना चाहिए जिनका उद्देश्य अपना वैश्विक आधिपत्य बनाए रखना है। उस दिशा में भारत का पहला कदम क्वाड को छोड़ना होना चाहिए।

इसे समझने में कोई गलती न करें कि एक अमेरिका और चीन के बीच इतनी जल्दी दुराव होने जा रहा है, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। इसमें फंस जाना भारत के लिए घातक होगा। जापान के प्रधानमंत्री फ्यूमियो किशिदा की इस सप्ताहांत भारत यात्रा को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है।

हम अपनी चमड़ी के रंग, अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपने भूगोल, अपनी राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के चलते, हम पश्चिम द्वारा “अपनों में से एक” के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं किए जाएंगे। इसलिए समान भागीदारी के उनके वादों से मंत्रमुग्ध मत होइए। जरा, अमेरिका के ट्रैक रिकॉर्ड को देखिए-वह अपने हितों की खोज में एक स्वार्थी, मानवद्वेषी और निर्दयी देश लगता है। 

इतिहास शीत युद्ध पर ग्रहण लगने के साथ ही समाप्त नहीं हो गया है। पश्चिमी शक्तियां जो योजना बना रही हैं, वह मूल रूप से नव-उपनिवेशवाद का एक रूप है, जो उनकी अर्थव्यवस्थाओं की गिरावट को रोकने के कड़े तकाजे से उत्पन्न हुई है, विशेष कर एशिया में बसने वाली 88 फीसद मानव जाति से धन के बड़े पैमाने पर हस्तांतरण के माध्यम से। इस हद तक कि पश्चिम ने अनाप-शनाप तरीके से ‘वैश्वीकरण' को दफन कर दिया है और बहुपक्षवाद की तरफ से अपनी पीठ फेर ली है। 

जो बात सामने आ रही है, वह 19वीं सदी के औपनिवेशिक युग से अलग नहीं है। इसलिए, भारत को समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, जिन्होंने कड़ी मेहनत से आजादी हासिल की है, अपनी संप्रभुता के संरक्षित किए हुए हैं, और सबसे अहम बात यह कि आंतरिक मामलों में किसी के हस्तक्षेप या 'सत्ता परिवर्तन' के प्रयासों के प्रयासों से अलहदा रह कर विकास के अपने मार्गों को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। 

एक शांतिपूर्ण बाहरी वातावरण अनिवार्य आवश्यकता है और विदेश नीति को उस उद्देश्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसका मतलब चीन और पाकिस्तान के प्रति भारत की नीतियों में सुधार लाना है। 

हम दशकों पहले फैलाए गए प्रोपगैंडा के खांचे में इस तरह से फंस गए हैं कि हम खुद की सहायता करने वाले नैरेटिव को ही खारिज कर दे रहे हैं। सौभाग्य से, देर से ही सही पर इस बारे में पुनर्विचार का प्रारंभिक संकेत हाल ही मिला है। चीन या पाकिस्तान के साथ भारत के महत्त्वपूर्ण संबंधों की पिच पर वाशिंगटन को मत अड़ंगा लगाने दीजिए। 

ऐसे राष्ट्र का कोई भविष्य नहीं है, यदि वह आत्मनिरीक्षण करने में असमर्थ है। गलतियाँ की गई हैं, लेकिन झूठे गर्व और शेखी के चलते इसमें सुधार नहीं करना ठीक नहीं है। भारतीय एक क्षमाशील व्यक्ति हैं। और जहां तक मौजूदा सरकार की बात है तो उसे विरासत में केवल झूठे आख्यान मिले हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

India Should Quit Quad Now!

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