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भारत का "स्मार्ट" वैक्सीन अभियान बिल्कुल बेवकूफ़ाना है

यूनिवर्सल ग़ैर-स्मार्ट अभियान की ख़ासियत यह है कि वह सभी की परवाह करता है।
स्मार्ट" वैक्सीन
Image Courtesy: Reuters

लगता है भारत का कोविड-19 का वक्र अब समतल हुआ जा रहा है, हालांकि अभी भी देश के कुछ हिस्सों में ऊपर और नीचे चल रहा है। कोविड केसलोयड इस वक़्त 9.5 मिलियन से अधिक हो गया है और इससे मरने वाले लोगों की संख्या 1.4 मिलियन के करीब है। फिर भी, भारत में अभी भी हर रोज़ करीब 40,000 कोविड केस जुड़ रहे है, और इसके संक्रमण से करीब 550 मौतें हो रही हैं। शायद यह उस स्थिति में तो सुधार है जिसने सरकारी टीकाकरण की योजना के संबंध में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को विलक्षण या काल्पनिक और खतरनाक रास्ता अपनाने के लिए उकसाया था। 

जैसा कि हाल ही में 29 अक्टूबर को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि टीके उपलब्ध होने के बाद सभी भारतीयों को टीका लगाया जाएगा। “मैं राष्ट्र को आश्वस्त करना चाहूंगा कि, जब कभी भी कोई टीका उपलब्ध होगा, तो सभी को टीका लगाया जाएगा। किसी को पीछे नहीं छोड़ा जाएगा।” उन्होंने उक्त बातें एक साक्षात्कार में कही थी। “बेशक, शुरू में हम बीमारी की चपेट में आने वाले और मोर्च पर काम करने वालों की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। सरकार ने कोविड-19 के लिए वैक्सीन के काम को आगे बढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह का गठन किया है।

यह नीतिगत घोषणा सर्वोत्तम वैश्विक प्रथाओं के अनुरूप है। उदाहरण के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का दस्तावेज़ कहता है: “यदि कोविड-19 के लिए किसी भी तरह का सुरक्षित और प्रभावी टीका विकसित किया जाता हैं, तो डब्लूएचओ का मानना है कि इसे हर उस व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जो इन टीकों से लाभान्वित हो सकते है, और यह उन लोगों तक जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहिए, जो बड़े जोखिम में काम कर रहे हैं।”

हालाँकि, अब बताया यह जा रहा है कि स्वास्थ्य अधिकारियों ने एक ऐसे कार्यक्रम की कल्पना की है, जिसमें सार्वभौमिक टीकाकरण के विचार को त्यागा जा सकता है। अब वे "स्मार्ट टीकाकरण" अभियान का प्रस्ताव लेकर आए हैं ताकि चुनिंदा समूहों को टीका लगाकर महामारी को रोका जा सके और बहुसंख्यक भारतीयों को इससे बाहर रखा जा सके। वास्तव में है ना स्मार्ट, हुह?

खैर, यह योजना इस धारणा पर काम करती है कि आबादी को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है: जिसमें कोर, बीच की और गौण। पहली श्रेणी में स्वास्थ्य सेवा में काम करने वाले और अन्य फ्रंट-लाइन कर्मचारी और बीमारी की चपेट में आने वाले कमजोर व्यक्ति हैं। संसदीय पैनल की रिपोर्ट में बलराम भार्गव निदेशक, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के हवाले से कहा गया है कि इस योजना का मानना है कि कोर ग्रुप का टीकाकरण होने के बाद, "बीमारी फैलने की कम से कम संभावना हो जाती है और इसलिए पूरी आबादी को टीका लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी"। 

इससे पहले, जुलाई में, केंद्र सरकार ने संकेत दिया था कि फ्रंट-लाइन कर्मचारियों/मजदूरों का प्राथमिकता के आधार पर टीकाकरण किया जाएगा- जो समझ के बाहर की बात है। नवंबर में दिए गए एक साक्षात्कार में, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा था कि सरकार को अगस्त-सितंबर 2021 तक लगभग 30 करोड़ लोगों के टीकाकरण की उम्मीद है। ऐसा लगता है जैसे कि ये लोग फ्रंट-लाइन कर्मचारी और कमजोर व्यक्ति होंगे। दूसरे शब्दों में, "स्मार्ट" अभियान के अनुसार, केवल 22 प्रतिशत भारतीयों को टीका लगाया जाएगा। चूंकि संख्या आवश्यक रूप से अस्पष्ट है- उदाहरण के लिए, यह अंदाज़ा लगाना व्यावहारिक रूप से असंभव है कि देश में कितने "संवेदनशील" लोग हैं जिन्हे वास्तव में टीके की जरूरत हैं- आइए हम मान लेते हैं कि अंततः देश में लगभग 30 प्रतिशत लोगों को टीका लगाया जाएगा।

इस योजना में इतनी कमियाँ हैं कि इसकी समालोचना के लिए शुरुआती बिंदु खोजना मुश्किल है। तो, चलिए इस योजना की एक छोटी से लॉजिस्टिक समस्या से शुरुआत करते हैं। सवाल ये है कि हुकूमत "कमजोर" लोगों का पता कैसे लगाएगी, वे, दूसरे शब्दों में, वे लोग जिन्हे निम्न की वजह से टीका करने की जरूरत हैं- जिन्हे श्वसन संबंधी बीमारी, हृदय संबंधी समस्या या फिर मधुमेह है। क्या हुकूमत उनके पास जाएगी या उन्हें हुकूमत के पास जाना होगा? फिर, निश्चित रूप से, 100 मिलियन या 10 करोड़ बुजुर्ग हैं, जो इन कारणों से कमजोर हैं। वे "स्मार्ट" अभियान में कैसे आएंगे? यूनिवर्सल गैर-स्मार्ट अभियान की खूबी यह है यह सबका खयाल रखती है वह भी अधिकारियों की बिना किसी लापरवाही के काम करती है जो भूंस में सुई ढूँढने का काम कर रहे है।

लेकिन साथ ही इसमें कुछ अन्य आपत्तियां भी हैं, जिनके बारे में विशेषज्ञ चिंता कर रहे हैं। उनका मानना हैं कि इस अभियान के पीछे की धारणाएं महामारी विज्ञान, विषाणु विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सिद्धांतों से नहीं जुड़ी हैं। मुख्य समस्या यह है कि इस कोरोनावायरस के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान का वर्तमान स्तर और जिस तरह यह बीमारी संक्रमित होती है वह  भारी संख्या में लोगों को जोखिम में डाल देती हैं। इसलिए कुछ समूहों को संक्रमण के प्रति कम संवेदनशील होने के रूप में वर्गीकृत करने का कोई औचित्य समझ नहीं आता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी विज्ञान के पास अभी पर्याप्त सबूत नहीं हैं और न ही देश में अब तक की गई निगरानी से यह तय किया जा सकता है कि किस प्रकार के वर्गीकरण होने चाहिए। एक माइक्रोबायोलॉजिस्ट का कहना है कि हम अभी भी इस बात को नहीं जानते हैं कि कौन कितना संचारित करता है। उस "उच्च-विवरण" के यह कहना मुश्किल है कि कोर ग्रुप में कौन होना चाहिए। इसमें हम यह भी जोड़ सकते हैं कि हम अभी भी नहीं जानते हैं कि संक्रमित व्यक्ति में एंटीबॉडी कितनी देर तक रहता है और इसलिए, वह कितने समय तक सुरक्षित है।

दूसरे शब्दों में, यह धारणा कि फ्रंट-लाइन वर्कर्स और कमजोर लोगों का टीकाकरण एक ढाल का काम करेगा, जो ब्लॉक ट्रांसमिशन को रोकेगा, बजाय केवल उनकी सुरक्षा की जाए जिन्हे इसकी सबसे अधिक जरूरत है, जरूरी नहीं यह बात सही है।

इस नई रणनीति का मतलब यह है कि सरकार पहले से आदेश जारी कर टीकों के भंडार के निर्माण की योजनाएँ बना सकती हैं। लेकिन यहाँ साक्ष्य विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। 3 दिसंबर को, यह बताया गया था कि संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ के विपरीत, जिसने पहले से ही फाइजर वैक्सीन के आदेश दे दिए थे, जहां इसे जल्द से जल्द जारी किया जाएगा, इसमें भारत शामिल नहीं था। यह भी बताया गया कि भारत अपनी उम्मीदें ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन के साथ कुछ भारतीय टीकों, विशेष रूप से भारत बायोटेक द्वारा विकसित किए जा रही वैक्सीन पर लगाए है। फिलहाल ये कब होगा इसका भी पता नहीं है।

4 दिसंबर को, हालांकि, यह बताया गया कि ड्यूक विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत 1.6 बिलियन खुराकों के वैक्सीन सौदे से दुनिया में सबसे आगे है, इसके बाद यूरोपीयन यूनियन आती है जिसने 1.58 बिलियन खुराकों के आदेश जारी किए हैं। भारत के सौदे एस्ट्राज़ेनेका (500 मिलियन), गैमलेया (100 मिलियन) और नोवावैक्स (1 बिलियन) के हैं।  नोवावैक्स संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित है, जबकि गेमालेया रूस में स्थित है। अभी तक इस बात का पता नहीं है कि नोवावैक्स और गेमालेया के टीके कब रोल आउट होंगे, हालांकि ऑक्सफोर्ड वैक्सीन ऊपर है।

इसके बावजूद, बड़ा सवाल यह है कि अगर भारत पहले से ही 1.6 बिलियन या 160 करोड़ के सौदों में है, तो वैक्सीन की खुराक लगभग 30 करोड़ लोगों को देने की ही क्यों है। यह माना जा रहा है कि सभी टीकों को दो बार (जैसे फ़ाइज़र की तरह ) देने की आवश्यकता है, भारत जिन नंबरों की बात कर रहा है, उनके माध्यम से 80 करोड़ लोगों को टीका लगाया जा सकता हैं। सभी मामलों में देखें तो, हमारे देश में एक ऐसी सरकार है, जो अपारदर्शिता के साथ काम करती है, अक्सर लोग इस बात से अनजान होते हैं कि दूसरे क्या कर रहे हैं।

जो भी हो, वर्तमान स्थिति के मद्देनजर ही कोई भी निर्णय लिया जाना चाहिए। हालांकि वक्र बढ़ नहीं रहा है, लेकिन इसमें आत्म-संतुष्ट होने की कोई जगह नहीं है। ये संख्या बढ़ सकती है, खासकर जब अगले कुछ महीनों में उत्तर भारत में सर्दी बढ़ेगी; और पूरे क्षेत्र में वायु की गुणवत्ता गिरेगी। दिल्ली इसका बेहतर उदाहरण है।

वायरस को लेकर विशाल अज्ञानता, इसके प्रसारण के तरीके से अनभिज्ञ होने के कारण   निश्चित तौर पर आगे के महीनों में कैसे चीजें बदलेंगी कहना मुश्किल हैं, कोई भी सरकार जो सरकार बनने का ढोंग रचती है, उसे अत्यंत सावधानी के साथ आगे बढ़ना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहे तो अधिक से अधिक लोगों का टिककरण किया जाए न कि कंजूसी। 

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

India’s “Smart” Vaccine Campaign is Absolutely Dumb

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