भारत को अपनी अमेरिकी नीतियों में करना होगा पूरा बदलाव

भारतीय नजरिए से देखें, तो हमें जो बाइडेन की राष्ट्रपति पद पर जीत के लिए टी एस एलियट के शब्दों का इस्तेमाल करना होगा - यह क्षण भारत की "याददाश्त का आकांक्षाओं से मिलन" का वक़्त' है। प्राथमिक तौर डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी में भारत के प्रति नजरिए में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जो बाइडेन और डोनाल्ड ट्रंप में ज़मीन-आसमान का अंतर है।
भारतीय विश्लेषक इस बात से इंकार नहीं करते कि बाइडेन का प्रशासन मानवाधिकार के मुद्दे पर मोदी सरकार पर कड़ा रुख अपनाएगी। वाशिंगटन में एक सांस्थानिक याद मौजूद है कि भारत पर किस हद तक दबाव बनाया जा सकता है। बल्कि अगर दबाव देने की स्थिति आई, तो कितनी मजबूती से भारत प्रतिकार करेगा। भारत को भी अपने मुख्य हितों को बाहरी हस्तक्षेप से अलग रखने में लंबा अनुभव है।
भारतीय कूटनीतिज्ञों ने रिचर्ड होलब्रुक के अफगानिस्तान-पाक चार्टर से कश्मीर मुद्दों को हटाने में सफलता पाई है, वह भारत की इसी सफलता का गवाह है। इसका पता विकीलीक्स के केबल ट्रैफिक के खुलासों से चलता है। यह केबल ट्रैफिक दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के हैं (केबल्स 185384, तारीख 31/12/2008 और 186057 तारीख (1/7/2009)।
भारत का कहना रहा है कि घाटी में मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू करने की स्थिति में बाहरी तत्वों की भूमिका और हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। लेकिन अब यह तर्क आगे उपलब्ध नहीं रहेगा।
अमेरिकी राजनीतिक हलकों में 2014 से भारत की आंतरिक राजनीतिक दिशा के बारे में चिंता को हलके में नहीं लिया जा सकता। इसलिए राष्ट्रीय एजेंडे के नाम पर जिस हद तक एक अनिच्छुक राष्ट्र पर हिंदुत्व एजेंडा और मुस्लिम विरोधी चीजें थोपी जाएंगी, वे ध्यान खींचेंगी और उन्हें याद रखा जाएगा। भले ही यह भारत-अमेरिका संबंधों को हिला ना पाएं, लेकिन इनसे दोनों के बीच का माहौल दूषित होगा।
डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर प्रभावशाली आवाज़ें, जैसे बार्नी सैंडर्स, नैन्सी पेलोसी और प्रमिला जयपाल, खुद कमला हैरिस ने अतीत में व्याकुलता भी जताई है। हॉउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में जो माहौल होगा, वह बिडेन की भारतीय नीतियां तय करेगा। बल्कि हॉउडी मोदी इवेंट से अमेरिकी राजनीति के एक नाजुक वक़्त पर संवेदनशील जगहों पर चोट हुई थी।
फिर डेमोक्रेटिक पार्टी बहुत हद तक केंद्र से वामपंथ की तरफ भी झुक गई है। यह केवल थोड़ी ही राहत देता है कि अमेरिका की 'अपवाद की नीति' की अब कोई साख नहीं है। यहां मुख्य बात यह है कि हमें अमेरिका से मूल्यों पर आधारित संबंध बनाने होंगे।
बाइडेन का ध्यान घरेलू मुद्दों पर रहेगा। एक मंझे हुए राजनेता होने के चलते बाइडेन ने महसूस किया है कि इस चुनाव में भी ट्रंप का बड़े स्तर पर अस्वीकरण नहीं हुआ। जबकि इसका अंदाजा लगाया जा रहा था। डेमोक्रेट्स को नैतिक जीत मिलने की आशा थी, लेकिन वैसा नहीं हो पाया। बल्कि अमेरिकी राजनीति में खाई और भी चौड़ी हो गई है।
अगर कोई ऐसा व्यक्ति है, जो अमेरिका में सीमाओं के परे जाकर आपसी मनमुटाव मिटा सकता है और एक आम सहमति या साझा ज़मीन तैयार कर सकता है, तो वह सिर्फ़ बाइडेन हैं। बाइडेन यह बहुत बारीकी से जानते हैं कि उनकी राष्ट्रपति पद की विरासत इसी बिंदु पर तय होगी।
इसलिए विदेश नीति बाइडेन की प्राथमिकता नहीं होगी। ऊपर से यह भी मुश्किल है कि भारत उनकी विदेश नीति में प्राथमिकता होगा। हालांकि भारत की अहमियत पर्यावरण परिवर्तन, कोविड-19, महामारी के बाद आर्थिक सशक्तिकरण, ईरान परमाणु मुद्दा और अफ़गानिस्तान जैसे मुद्दों पर बनी रहेगी।
उपराष्ट्रपति रहने के दौरान बाइडेन व्यक्तिगत तौर पर अफ़गानिस्तान के मुद्दे से जुड़े थे। बॉब वुडवर्ड की किताब "ओबामाज़ वार्स" बताती है कि विएतनाम युद्ध की सीखों को याद रखते हुए कैसे बाइडेन लगातार अफ़गानिस्तान में विएतनाम जैसे जाल की बात उठाते रहे। इस दौरान बाइडेन ने अफ़गानिस्तान 'लहर' जैसे अहम सवाल पर डेविड पेट्राइअस, मेक्क्रिस्टल और माइक मुलेन जैसे जनरल के नेतृत्व वाले सुरक्षा प्रतिष्ठानों और ओबामा के रक्षा सचिव रॉबर्ट गेट्स का सामना किया।
किताब में बताया गया है कि एक रविवार की सुबह बाइडेन जल्दी में आखिरी अपील करने व्हॉइट हॉउस पहुंचे और उन्होंने कहा कि अफ़गानिस्तान में एक बड़ी लहर का मतलब होगा कि हम "एक और विएतनाम में फंस चुके होंगे।" अकेले में ओबामा ने बाइडेन से कहा कि वे बैठकों में अपनी वैकल्पिक रणनीति, जिसमें अफ़गानिस्तान में बड़े सैन्य जमघट का विरोध किया जाए, उसे आगे बढ़ाएं। इस नीति को ओबामा को नकारना ही था, लेकिन इसका फायदा उठाते हुए उन्होंने सेना से साफ़ कह दिया कि उन्हें अमेरिकी सेना के अफ़गानिस्तान छोड़ने की एक तारीख चाहिए, क्योंकि वे "पूरी डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन से हाथ नहीं धो सकते।"
बाइडेन के लक्ष्य स्थिर और साफ़ थे- तालिबान को रोको, अल कायदा से ख़तरे को खत्म करो और सेना को घर बुलाओ। यह मध्य, 2009 की बात है। तब से अब तक काबुल नदी में काफ़ी पानी बह चुका है। लेकिन अतीत की चीजें भविष्य का इशारा करती हैं।
पहली बात, अगर बाइडेन को हामिद करज़ई की नतीज़े देने की क्षमता में विश्वास नहीं है, तो वे अशरफ़ घानी को लेकर और भी निराश होने वाले हैं। दूसरी बात, बाइडेन अच्छी तरह से जानते हैं कि किसी युद्ध में जीत के अनुमानों पर सैन्य जनरल बुरे तरीके से गलत साबित हुए हैं।
तीसरी बात, बाइडेन ने अफ़गानिस्तान को लेकर इस्लामाबाद में सेना और नागरिक नेतृत्व के साथ घना जाल बनाया है। क्योंकि पाकिस्तानी इरादों को लेकर अविश्वास की बड़ी विरासत रही है और पाकिस्तान के दोगली बात करने वाली आदतों की भी अमेरिका को अच्छी समझ है। दोहा समझौता असमर्थनीय होगा।
इन पैमानों को ध्यान में रखते हुए संभव है कि बाइडेन अफ़गानिस्तान में शेष इंटेलीजेंस मौजूदगी पर निर्भर रहेंगे। लेकिन इसमें मुख्य लक्ष्य आतंकवाद से निपटने का होगा, ना कि तालिबान से लड़ने के लिए इसका उपयोग किया जाएगा। पाकिस्तान (और तालिबान) को अफ़गानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी से फायदा होता दिखाई देगा। अफ़गानिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर पाकिस्तान के संदेह का भी बाइडेन विरोध नहीं करेंगे।
दक्षिण एशिया में अमेरिकी भूमिका में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। इसके केंद्र में यह बात है कि बाइडेन की चीन नीतियों में भारत की बहुत कम भूमिका होगी। चीन मामलों में दिल्ली का सहयोग उपयोगी होगा, लेकिन बहुत अहम नहीं। अमेरिका की प्राथमिकता भी दक्षिण चीन सागर, ताइवान और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा होगी। वहीं भारत केवल द्वितीयक अहमियत ही रखेगा।
अमेरिका अब भी भारत की मदद करेगा, क्योंकि यह अमेरिकी हितों के भी पक्ष में है। लेकिन इस आधार पर वह चीन से युद्ध नहीं कर सकता। अमेरिका चीन की काठ के तौर पर भारत को बढ़ावा देगा, अब यह सवाल भी नहीं उठता। भारत-अमेरिका प्रबंधन में क्वाड के अच्छे दिन खत्म हो चुके हैं।
बुश प्रशासन के वक़्त से ही अमेरिकी सरकारों ने भारत के साथ सैन्य सहयोग पर जोर दिया है। बाइडेन भी भारत को हथियार निर्यात करने पर जोर देंगे। लेकिन अब इनके केंद्र में चीन का ख़तरा नहीं होगा। मतलब बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका और चीन की दुश्मनी जारी रहेगी, लेकिन इसकी दिशा में बड़ा बदलाव आना तय है।
बाइडेन का जोर वैश्विक गठबंधन कर चीन को संतुलित करने पर होगा। लेकिन दिल्ली की सत्ता चीन को सैन्य और आर्थिक क्षेत्र में पछाड़ने के लिए आतुर है और वह केवल मजबूत स्थिति में ही चीन के साथ सीमा विवाद पर मोलभाव करने के लिए तैयार होगी। बल्कि दिल्ली में मौजूद कट्टरवादियों को बड़ी निराशा हाथ लगने वाली है।
बाइडेन, ईरान से दोबारा संबंधों को बहुत अहमियत देते हैं। वह अब उन नीतियों की ओर वापस लौट सकते हैं, जो ओबामा प्रशासन ने शुरू की थीं। वे पश्चिम एशिया में अपना सैन्य बजट भी कम कर सकते हैं।
हाल के सालों में पश्चिम एशिया में भारत की नीतियों में पारंपरिक नीतियों से काफ़ी बदलाव आया है। अब भारत इज़रायल-सऊदी-अमीरात गठबंधन के ज़्यादा करीब है, जिसे ट्रंप प्रशासन ने बनाया था। अब बाइडेन प्रशासन उस गठबंधन और ईरान के साथ संबंधों पर अपनी नीतियां तय करेगा, इसके साथ ही भारत को भी नई सच्चाईयों को स्वीकार कर लेना चाहिए।
बुनियादी तौर पर मोदी सरकार ने ट्रंप प्रशासन के 8 साल पूरा करने की स्थिति पर बड़ा दांव लगाया था। मोदी ने ट्रंप के साथ संबंध बनाने के लिए बहुत निवेश किया था। इसी के चलते, पॉम्पियो के प्रोत्साहन के बाद भारत ने "इंडो-पैसिफिक" रणनीति में हिस्सेदारी की थी, जिसके चलते भारत के चीन के साथ संबंधों में बहुत दरार आई।
आज जब मोदी सरकार ट्रंप की हार और पॉम्पियो के रिटायरमेंट की तरफ देख रही है, तब भारत का चीन के साथ टकराव जारी है, जो हाल के सालों में भ्रमित विदेशी नीतियों की वज़ह से हुआ है। इस स्थिति में हम बहादुरी दिखा सकते हैं, लेकिन अब भारत के रणनीतिक पाले में बहुत ज़्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं।
अमेरिका के साथ 2+2 मंत्रिस्तरीय बातचीत के बाद, विदेशी सचिव का यूरोपीय राजधानी में हफ़्ते भर के विमर्श का वक़्त इशारा करता है कि भारत को देर से ही सही, अब यह अहसास हो चुका है कि हमारे हितों को पूरी तरह ट्रंप की गाड़ी से जोड़ना एक रणनीतिक भूल थी। अब जब भूराजनीतिक तस्वीरें बदल रही हैं, तब भारत के पास अपनी नीतियों के समीकरणों को बदलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
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