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अमेरिका के साथ व्यापार सौदा किस तरह ग्रामीण संकट को बढ़ा देगा

रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिका का एक अहम मक़सद भारत में अपने कृषि और डेयरी निर्यात को बढ़ाना है।
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एक बड़े व्यापार समझौते की नाकामी के बाद कहा जा रहा है कि भारत अब संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ एक मुक्त-व्यापार समझौते (FTA) को लेकर बातचीत करने जा रहा है। ताज़ा संकेत यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की फ़रवरी में हुई उनकी यात्रा के बाद इस तरह के समझौते के "पहले चरण" का निकट भविष्य में ऐलान किया जा सकता है, इस तरह के एक सौदे पर काम चल रहा है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित वाणिज्य मंत्रालय के अज्ञात सूत्रों के हवाले से 16 जुलाई को छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों देशों ने एफ़टीए पर बातचीत करने की संभावना पर चर्चा की है और प्रारंभिक व्यापार पैकेज के लिए वार्ता पूरी करने के अपने इरादे जताये हैं। इस तरह की रिपोर्टों के मुताबिक़, अमेरिकी पक्ष की तरफ़ से इसका एक अहम मक़सद अन्य वस्तुओं के अलावा भारत में कृषि और डेयरी बाज़ारों तक अमेरिकी फ़र्मों के बाज़ार की पहुंच को बढ़ाना है।

हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत में कृषि, डेयरी और पॉल्ट्री निर्यात में किसी भी तरह की बढ़ोतरी से भारत के किसानों के संकट में काफी बढ़ोत्तरी हो जाने की संभावना है। डेयरी और पॉल्ट्री से जुड़े किसानों सहित भारत के बाक़ी किसान पहले से ही मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं। हाल ही में अमेरिका ने वियतनाम, दक्षिण अफ़्रीका और मैक्सिको जैसे देशों में अपने निर्यात को बढ़ाया है और इससे इन देशों के किसानों की समस्याओं में इज़ाफ़ा हुआ है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में 176 हेक्टेयर के मुक़ाबले भारत के एक किसान की औसत भूमि जोत एक हेक्टेयर के आसपास है। इस तरह,यह बराबरी के बीच की प्रतिस्पर्धा या व्यापार सौदा नहीं है। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका में कृषि और खाद्य क्षेत्र में कम संख्या में बहुत बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व है। संयुक्त राज्य अमेरिका में खेती, और इन व्यवसायों को अमेरिकी सरकार की तरफ़ से बहुत भारी सब्सिडी दी जाती है, जिनके विशाल संसाधनों के साथ अन्य देश मुक़ाबला नहीं कर सकते हैं। इसलिए,संयुक्त राज्य अमेरिका आसानी से उन दरों पर इन उत्पादों का निर्यात कर सकता है, जो विकासशील देशों की उत्पादन लागत से बहुत कम हैं। इसका मतलब यही है कि विकासशील देशों में छोटे-छोटे किसानों के बाज़ार का सफ़ाया हो जायेगा। मौजूदा व्यापार व्यवस्था की तुलना में किसी एफ़टीए से भारत में विशाल आयात के बढ़ जाने की संभावना है।

इस लिहाज से ख़ास तौर पर सोयाबीन तेल सहित उन मक्का और सोयाबीन के सामने इस जोखिम के बहुत ज़्यादा पैदा हो जाने की संभावना है, जिनका संयुक्त राज्य अमेरिका एक विशाल निर्यातक है और इन उत्पादों के निर्यात करने के लिए वह बेसब्री से नये भरोसमंद बाज़ारों की तलाश कर रहा है। वहीं भारत में लाखों किसानों के लिए मक्का और सोयाबीन की फ़सलें आजीविका का एक प्राथमिक स्रोत हैं।

डेयरी किसानों पर इसका पड़ने वाला प्रतिकूल प्रभाव का मुद्दा तो और भी बड़ा है,ऐसा इसलिए है,क्योंकि डेयरी किसान पूरे भारत में फ़ैले हुए हैं और वे इस समय चरागाहों की कमियों और चारा और पशुपालन लागत में बढ़ोत्तरी के चलते बढ़ती समस्याओं का सामना कर रहे हैं। तक़रीबन 7 करोड़ भारतीय किसान परिवार डेयरी से जुड़े हुए हैं। जिन कारकों ने डेयरी को कम लागत वाला उद्यम बना दिया है, उनमें तेज़ी से गिरावट आ रही है, जबकि छोटे-छोटे डेयरी किसानों को उन पैकेट बंद दूध के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ सकती है,जिसे संग्रहित मलाई रहित दूध पाउडर से सस्ते में उत्पादित किया जा सकता है। भूमिहीन डेयरी किसानों के लिए भी लागत अधिक है। दूसरी तरफ़, संयुक्त राज्य अमेरिका के किसी एक डेयरी फ़ार्म में एक हजार से ज़्यादा गायें होती हैं, जबकि बड़े-बड़े फ़ार्मों में तो दस-दस हजार से ज़्यादा मवेशी तक हो सकते हैं। इन फ़ार्मों को बहुत ज़्यादा सरकारी सब्सिडी भी मिलती है और इस क्षेत्र में कुछ ही बड़ी-बड़ी कंपनियों का वर्चस्व है। भारत के छोटे और भूमिहीन डेयरी किसान इस तरह के ग़ैर-बराबरी वाली प्रतिसपर्धा का मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कम दूध की क़ीमतों वाली चाल भारतीय उपभोक्ताओं को एफ़टीए और इसके डेयरी-आयात घटक का समर्थन करने के लिए रिझायेगी, हालांकि, सरकार की चिंता अपने ही किसानों को अधिक और बेहतर गुणवत्ता वाले दूध और दूध उत्पादों के संरक्षण और समर्थन को लेकर होनी चाहिए। भारत ने निरंतर प्रयास के बाद दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है। एनडीडीबी या राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के मुताबिक़, भारत ने 2017 में 176 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया था और इसलिए भारत को आयातित दूध की ज़रूरत नहीं है। अन्य अनुमान बताते हैं कि विश्व दूध उत्पादन में भारत का योगदान 1960 के दशक के 5% से बढ़कर लगभग 17% हो गया है।

इसी तरह, भारत में पॉल्ट्री क्षेत्र में बहुत छोटी-छोटी इकाइयां विशाल संख्या में हैं। उत्पादन लागत से भी कम पर बेचने वालों के साथ मुक़ाबले करना उनके लिए मुमकिन नहीं है। कुछ अमेरिकी पॉल्ट्री कंपनियों की तरफ़ से अन्य देशों में फ़्रोज़ेन चिकेन के हिस्सों और अन्य पॉल्ट्री उत्पादों को डंप करने की उनकी प्रवृत्ति को लेकर आलोचना की जाती रही है। इसके अलावा, भारत का पॉल्ट्री क्षेत्र भी तेज़ी से बढ़ रहा है। अंडे और ब्रॉयलर (ख़ास तौर पर मांस के लिए पाली जानी वाली मुर्ग़ियों) का उत्पादन सालाना आठ से 10% बढ़ रहा है, क्योंकि कई बड़ी इकाइयां स्थापित हो रही हैं, जो कभी-कभी छोटे-छोटे उत्पादकों का समर्थन भी करती हैं। भारतीय किसानों और पशुपालकों की इस क्षेत्र में जबरदस्त क्षमता है, और इस हिसाब से भारत सरकार को घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए समय और संसाधन,दोनों ख़र्च करना चाहिए। इस बात की उम्मीद की जाती है कि अंडे और ब्रॉयलर, दोनों की मांग समय के साथ बढ़ती जायेगी। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के डेटा के एक खाद्य और कृषि संगठन विश्लेषण के मुताबिक़, 68% परिवार मांसाहारी हैं, और यह अनुपात बढ़ रहा है। एनएसएसओ के आंकड़ों का हवाला देते हुए खाद्य और कृषि संगठन कहता है, "... 1987-88 और 1999-2000 के बीच, शहरी क्षेत्रों में केवल तीन वस्तुओं - मछली, मांस या अंडे में से एक का उपभोग करने वाले परिवारों का अनुपात सिर्फ़ 1% बढ़ा, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात 4% बढ़ गया।” इस तरह, इन उत्पादों के संयुक्त राज्य अमेरिका से किये जाने वाले आयात बढ़ते ग्रामीण बाज़ार में एक तरह की घुसपैठ होगी, जो कि अपने आप में एक ग़ैर-ज़रूरी बात है।

यह अमेरिका-भारत व्यापार समझौता स्वास्थ्य और पोषण पर भी बहुत प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है,क्योंकि जिन कृषि निर्यात को संयुक्त राज्य अमेरिका बढ़ावा देने के लिए बेसब्र है,असल में वे आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फ़सलों और खाद्य पदार्थों के एक महत्वपूर्ण घटक हैं। संयुक्त राज्य में उत्पादित मक्का और सोयाबीन की फ़सलें मुख्य रूप से आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फ़सलें हैं। वहां दूध का उत्पादन जीएम "वृद्धि हार्मोन" के साथ बढ़ाया जा रहा है,जिसकी स्वास्थ्य पर पड़ने वाले ख़तरनाक असर को लेकर आलोचना की जा रही है। भारत में जीएम खाद्य और फसलें, स्वास्थ्य और पर्यावरण के आधार पर और संभावित गंभीर नुकसान से भारत की कृषि को सुरक्षित रखने के ख़्याल से प्रतिबंधित है। लेकिन, जब एक ऐसे ताक़तवर देश के साथ एक एफ़टीए पर हस्ताक्षर किये जायेंगे, जिसकी जीएम खाद्य को बढ़ावा देने और निर्यात करने में भारी वाणिज्यिक दिलचस्पी हो,तो जीएम खाद्य पदार्थों की स्वीकृति को लेकर दबाव के बढ़ने की संभावना होगी।सच्चाई यही है कि भारत पहले से ही एक गर्म देश है, और इससे इसके और गर्म होने की संभावना है। बड़ी संख्या में वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जो विश्व खाद्य प्रणाली पर वर्चस्व पाने के लिए इन जीएम फ़सलों को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही हैं, वे सबके सब संयुक्त राज्य अमेरिका से बाहर स्थित हैं।

इस बात पर भी व्यापक चिंतायें जतायी जा रही हैं कि अमेरिकी खाद्य और कृषि व्यवसाय कंपनियां किस हद तक भारतीय बाज़ार में प्रवेश करेंगी और देश के खाद्य उद्योग पर हावी होने के लिए नियामक ढांचे को कितना ढीला करेंगी। इस अनुबंध-कृषि प्रणाली से बड़ी-बड़ी और संसाधन-संपन्न कंपनियां अपनी पसंद की फ़सलें और अंतिम उत्पाद पैदा करने की स्थिति में होंगी, जिससे खाद्य सुरक्षा और कृषि-पर्यावरण की स्थिति पर असर पड़ेगा। इस समय भारत में सामान्य तौर पर मुख्य खाद्य फ़सलों की बहुत ज़्यादा प्राथमिकता है, लेकिन ताक़तवर हितों की मांगें कुछ और हो सकती हैं,जिससे नया स्वास्थ्य संकट पैदा हो सकता है।

इसके अलावा, गंभीर चिंता का जो एक अन्य क्षेत्र है,वह यह है कि किसानों के बीज अधिकारों की सुरक्षा को लेकर भारत की जो अपेक्षाकृत स्वतंत्र रुख है, उससे भी समझौता किया जा सकता है। जिन बीज कंपनियों के पेटेंट अधिकारों को मान्यता देने के लिए भारत को करीब लाने की कोशिश की जा रही है, उनमें प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वामित्व वाली बीज कंपनियां भी शामिल हैं।

संभव है कि ये सभी नुकसानदेह नतीजे एफ़टीए के पहले चरण में सामने नहीं आये, लेकिन इन दशा और दिशाओं के आधार पर सामान्य प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए, इन चर्चाओं पर कड़ी नज़र रखना और किसानों की रक्षा और देश के स्वास्थ्य, पोषण और पर्यावरण की हिफ़ाज़त को लेकर तैयार रहना ज़रूरी है। वे संगठन,जो किसानों और कृषि के हितों की रक्षा करने में विश्वास करते हैं, जो स्वास्थ्य, पोषण, पर्यावरण और उपभोक्ताओं की चिंताओं को लेकर काम करते हैं, उन्हें इस लड़ाई के लिए एकजुट होना चाहिए।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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