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बैंकों में बढ़ते संकट की वजह क्या है?
बढ़ते गबन के सारे आंकड़े मिलकर भी भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के वर्तमान भयावह संकट की व्याख्या नहीं कर सकते। बैंकिंग उद्योग में वर्तमान संकट की वजहों को समझने के लिए पहले हमें अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका को जानना आवश्यक है।
मुकेश असीम
03 Oct 2019
banking crises
Image courtesy:Commodity Trade Mantra

भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में बढ़ते संकट का सबसे बड़ा लक्षण है कि खुद रिजर्व बैंक को एक सप्ताह में दूसरी बार बयान देकर कहना पड़ा है कि देश की बैंकिंग व्यवस्था बहुत मजबूत है और जनता बैंकों में संकट की किसी अफवाह पर भरोसा न करे।

स्पष्ट है कि पहले सार्वजनिक बैंकों की कमजोर स्थिति व नीरव मोदी, मेहुल चोकसी तथा अन्य कई बड़े सरमायेदारों द्वारा हजारों करोड़ रुपये के कर्ज लेकर देश से भाग जाने के बाद अब पंजाब और महाराष्ट्र बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक व यस बैंक के हालिया घटनाक्रम व आने वाले दिनों में बैंकों व गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के कर्जों की वसूली में संकट बढ़ने की आशंका से अब अपनी बचत इन बैंकों में रखने वालों में घबराहट बढ़ रही है।

आम तौर पर मीडिया जगत में इस घटनाक्रम को बढ़ते फ्रॉड, गबन और जालसाजी के रूप में चित्रित किया गया है। यह सही भी है कि वित्तीय क्षेत्र में गबन की संख्या और उसके परिमाण में भारी वृद्धि हुई है। खुद रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016-17 में बैंकों में 24 हजार करोड़ रुपये, 2017-18 में 41 हजार करोड़ रुपये, 2018-19 में 71 हजार करोड़ रुपये के गबन हुए थे।

मगर चालू वित्तीय साल के तो पहले तीन महीनों (अप्रैल-जून) में ही गबन की रकम बढ़कर 31,898 करोड़ रुपये जा पहुंची है। साथ ही यह मामले सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तक ही सीमित नहीं हैं। हालांकि निजी बैंक नकारात्मक खबरों के प्रचार-प्रसार को रोकने में ज्यादा माहिर हैं, फिर भी पिछले एक साल में सबसे बड़े निजी बैंकों - एचडीएफसी, आईसीआईसीआई और एक्सिस बैंक समेत निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा डूबे कर्जों को छिपाने, गबन और ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी के बहुत सारे मामले सामने आ चुके हैं।

लेकिन मामला सिर्फ इतना ही नहीं हैं। एक और क़िस्म का भी गबन है जिसे करने वाले को विलफुल डिफाल्टर अर्थात इरादतन गबनकर्त्ता कहा जाता है। रिजर्व बैंक ने कर्ज न चुकाने वालों में भी यह एक खास श्रेणी बनाई है जिसमें बैंक मज़बूरीवश तभी किसी को डालते हैं जब कर्ज लेने वाला खुद ही आत्महंता कदम उठा कर उनके सामने कोई और विकल्प ही न छोड़े।

इसका मतलब यह प्रमाणित और जगजाहिर हो चुका है कि उसने लिए हुए कर्ज का गबन कर लिया, चुकाने की हैसियत है, फिर भी इरादतन नहीं चुकाता। 30 सितम्बर 2017 को ही ऐसे इरादतन गबन की रकम बढ़कर 1 लाख 11 हजार 739 करोड़ पहुंच चुकी थी।

लेकिन क्या वास्तव में इन मामलों को गबन कह देना सही है? गबन कहने से ऐसा आभास होता है जैसे कि यह बैंकिंग प्रबंधन की कमजोरियों का फायदा उठाकर कुछ जालसाजों-गबनकर्ताओं द्वारा किये गये अपराध हैं जिसके खिलाफ सरकार, बैंकिंग और पुलिस-न्याय व्यवस्था जांच और सजा के लिए कदम उठा रही है।

वित्त और अन्य मंत्री, प्रशासक भी यही बयान दे रहे हैं कि रिज़र्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं के नियामकों, प्रबंधकों, ऑडिटरों की लापरवाही या मिलीभगत से ये अपराध हुए हैं और अब इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है। परंतु सारी प्रणाली और घटनाक्रम पर ध्यान दें तो वास्तव में ऐसा नहीं है।

पहली बात तो यह कि यह सब बैंकों, सीबीआई, रिजर्व बैंक, सरकार को आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से मालूम था। जैसे पीएमसी बैंक के मामले में सभी को पहले से मालूम था कि क्या चल रहा है और रिजर्व बैंक खुद बैंक के निदेशक मंडल को आगाह कर चुका था, मगर उसके द्वारा कोई कदम न उठाने पर भी उसने कोई सख्त कार्रवाई नहीं की।

अन्य सभी मामलों में भी ऐसी ही सूचनाएं हैं कि यह सब वर्षों से बैंक, रिजर्व बैंक, सीबीआई, सरकार तक सबकी जानकारी और सहमति से जारी था लेकिन जब मोदी, चौकसी, माल्या, मेहता, जैसे पूंजीपति विदेश भाग गए या रकम विदेश या देश में ही ठिकाने लगाई जा चुकी, सुबूत नष्ट किये जा चुके तो फिर इन्हें गबन घोषित कर कार्रवाई की नौटंकी जारी है।

दूसरी बात यह कि ये तो वह मामले हैं जहां खुद कर्ज लेने वालों ने भागकर सब वैकल्पिक रास्ते बंद कर लिए अन्यथा भूषण, एस्सार, वीडियोकॉन, यूनिटेक आदि तमाम पूंजीपति इनसे भी बड़ी रकमें दबाकर आराम से भारत में ही मौजूद हैं, उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, उन्हें कोई गबन भी घोषित नहीं करता, बल्कि वे पहली कंपनियों को 'बीमार' बनाकर, नए कारोबार शुरू कर खुद अपनी सेहत और दौलत को और ऊंचाइयों पर पहुंचा रहे हैं।

किंतु बढ़ते गबन के ये सारे आंकड़े मिलकर भी भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के वर्तमान भयावह संकट की व्याख्या नहीं कर सकते। बैंकिंग उद्योग में वर्तमान संकट की वजहों को समझने के लिए पहले हमें अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका को जानना आवश्यक है। बैंक मानव उपभोग लायक कुछ भी उत्पादित नहीं करते। पहले उनका मुख्य काम सिर्फ व्यापारिक गतिविधियों की विभिन्न पार्टियों के बीच तय शर्तों और वक्त पर सही भुगतान सुनिश्चित करना और इसका सही हिसाब रखना था।

साथ ही जिनके पास अतिरिक्त धन हो बैंक उसे सुरक्षित जमा रखने और जरूरत के वक्त भुगतान का कार्य भी करते थे। इस उपलब्ध धन को बैंक व्यावसायिक गतिविधियों हेतु लघु अवधि के लिए कर्ज के तौर पर भी देते थे। लेकिन पूंजीपतियों के बीच कम लागत पर अधिकतम उत्पादन और बाजार में प्रभुत्व की प्रतिद्वंद्विता में चल-अचल पूंजी में निवेश की जरूरत लगातार बढ़ने के चलते, पूंजीपतियों को शेयर पूंजी में निवेश, कर्ज, भुगतान गारंटियों, आदि के रूप में पूंजी उपलब्ध कराने में बैंकों की भूमिका बढ़ती गई।

अपनी उपरोक्त वर्णित भूमिकाओं से पूंजी की बड़ी मात्रा की उपलब्धता वाले बैंकों ने उद्योग-व्यापार में मध्यस्थता से आगे बढ़कर पूरी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कायम कर लिया है क्योंकि अब वही पूंजीपति प्रतिद्वंद्विता में टिके और आगे बढ़ते रह सकते हैं जिन्हें बैंकों के द्वारा निरंतर बढ़ती मात्रा में पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित हो।

इसके एवज में श्रमिकों की श्रम शक्ति द्वारा उत्पादित और पूंजीपतियों द्वारा हस्तगत अधिशेष मूल्य का एक बड़ा भाग बैंकों को प्राप्त होता है। इससे उनकी पूंजी लगातार विशालकाय होती गई है।

एकाधिकार पूंजीवाद के युग में तो बढ़ते मुनाफे की हवस में इन्होने पूरी अर्थव्यवस्था को अपने जुए का अड्डा बना दिया है। लेकिन इस जुए में उनकी जीत होने पर तो मेहनतकश जनता की जेब कटती ही है, किसी दांव में उनके हारने पर भी हानि की वह रकम उनकी सेवक पूंजीवादी सरकारें विभिन्न तरह से जनता की जेब से ही वसूल कर उसकी भरपाई करती है।

अब मरणासन्न पूंजीवाद के संकट के दौर में तो दुनिया भर में बैंकों के बारे में सिद्धांत ही बन गया है - Too big to fail, too big to jail. अर्थात बैंक इतने शक्तिशाली हैं कि कोई पूंजीवादी सरकार उन्हें डूबने देने की हिम्मत नहीं कर सकती; और उनके मालिकों/शीर्ष प्रबंधकों को किसी भी जुर्म में सजा भी नहीं दे सकतीं।

आज भारत में बैंकिंग उद्योग के संकट की तस्वीर भी पूरी तरह ऐसी ही है। सिर्फ उदारीकरण के पिछले 25 वर्षों के इतिहास को ही देखा जाये तो बैंक बीसियों लाख करोड़ रुपये कॉर्पोरेट सेक्टर को दिए कर्जों में डुबा चुके हैं ।

कितने पूंजीपति इन कर्जों के बल पर ही खरबों की संपत्ति के मालिक बन गए हैं। पर कर्ज न चुकाने के कारण इनमें से किसी सरमायेदार, सेठ-महाजन का आज तक कुछ न बिगड़ा, बल्कि उनके पास और दौलत इकट्ठी होती गई।

स्पष्ट है कि इस बड़ी मात्रा में डूबे कर्जों और गबन की परिघटना को न तो निजी-सरकारी बैंकों के अंतर के आधार पर समझा जा सकता है, न ही कांग्रेस-बीजेपी की नीतियों में भेद के आधार पर, और न ही इन्हें कुछ अपराधियों द्वारा किये गए गबन कहकर।

इसे समझने के लिए हमें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक, बीमा, आदि वित्तीय क्षेत्र और उद्योग-व्यापार क्षेत्र के पूंजीपतियों के परस्पर संबंधों को समझना चाहिए।

पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक पूंजीपति को प्रतिद्वंद्विता में टिके रहने, अधिक से अधिक बाजार हासिल करने और अपना अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर अधिक से अधिक चल-अचल पूंजी के निवेश की आवश्यकता होती है।

आज एक ओर तो उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में पहले ही पूंजी की जकड़बंदी होने से बाजार के विस्तार की संभावनाएं बहुत सीमित हो चुकी हैं, दूसरी ओर हर उद्योग में कुछ पूंजीपतियों का एकाधिकार कायम हो चुका है। इसलिए दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ने की यह होड़ अत्यंत गलाकाट हो चुकी है। इसलिए सभी पूंजीपतियों के लिए वित्तीय पूंजीपतियों से अधिकाधिक पूंजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरंतर विस्तारित करने का दबाव हमेशा बना रहता है।

फिर स्वयं बैंक, बीमा, आदि वित्तीय पूंजीपतियों में भी एकाधिकार की होड़ है और उन्हें भी आवश्यकता रहती है कि वे अपना बाजार हिस्सा बढ़ाने हेतु ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों का वित्तीय पोषण कर उनके द्वारा हस्तगत अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी और मुनाफा सुनिश्चित करें।

दोनों का यह परस्पर हित सुनिश्चित करता है कि बैंक उद्योग-व्यापार की अधिक से अधिक कंपनियों को लगातार कर्ज और निवेश के विभिन्न रूपों में अधिकाधिक वित्तपोषण करते रहें।
इस प्रक्रिया को नीरव मोदी के कारोबार के उदाहरण के जरिये अच्छे से समझा जा सकता है।

मोदी की तीनों कंपनियों में उसकी अपनी कुल जमा पूंजी मात्र 400 करोड़ रुपये थी। बैंकों ने उसे 3992 करोड़ का कर्ज दिया हुआ था, ऊपर से अब तक 13 हजार करोड़ से अधिक के एलओयू सामने आये हैं। रायटर्स के मुताबिक कुल 20 हजार करोड़ उसे 'सरकारी' बैंकों ने दिया था, जिसके बल पर उसका सारा व्यापार, दौलत खड़ी हुई थी।

उसकी कंपनियां इस वित्तीय पूंजी के सहारे ही तेजी से विस्तार कर रही थीं और वह दुनिया भर के देशों में अपने नए-नए स्टोर खोल रहा था। वास्तविकता यह है कि उसने कभी कोई कर्ज वापस नहीं किया। बल्कि वह हर बार पहले से बड़ा कर्ज लेता था, जिससे पिछले कर्ज को जमा दिखाया जाता था।

इसके बल पर ही वह बड़ा पूंजीपति बना था; इस पूंजी से ही उसका मुनाफा आता था और बैंकों को रुपये तथा विदेशी मुद्रा के कर्ज पर ब्याज तथा एलओयू आदि पर कमीशन मिलता था। यह चक्र जब तक चला तब तक सब सामान्य था, जब टूटा तो इसे गबन का नाम दिया जा रहा है। यही हाल अन्य पूंजीपतियों का भी है।  

यहां बैंकों की कार्यविधि की कुछ समझ भी जरूरी है। बैंक मुख्यतया दो किस्म के कारोबारी कर्ज देते हैं। एक नया कारखाना लगाने, विस्तार करने, उन्नत तकनीक और मशीनें लगाने आदि बड़े निर्माण में स्थाई निवेश के लिए दिए गए कर्ज निश्चित अवधि के होते हैं जिन्हें मासिक, त्रैमासिक, छमाही, सालाना, आदि अंतराल पर मूल व ब्याज की किश्तों में चुकाना होता है।

दूसरे, उत्पादन के लिए सामग्री, श्रम शक्ति खरीदने, उत्पादित माल के भंडारण और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच मध्यस्थ व्यापारियों से माल का भुगतान आने तक उधार देने के लिए बैंक नकद उधार, ओवरड्राफ्ट, गारंटी, लेटर ऑफ़ क्रेडिट, लेटर  अंडरटेकिंग, पैकिंग क्रेडिट, बिल डिस्कॉउंटिंग, आदि कई रूपों में कारोबारी कर्ज देते हैं, जो कहने के लिए तो 3, 6, 9 महीने या एक-डेढ़ साल में चुकाने होते हैं पर कभी चुकाए नहीं जाते, बस ब्याज चुका दिया जाता है, वह भी अक्सर अगला कर्ज और बड़ी रकम का लेकर।

इसी पूंजी के बल पर सभी पूंजीपति अपने उत्पादन और कारोबार का विस्तार करते रहते हैं, दूसरे पूंजीपतियों से प्रतिद्वंद्विता करते हैं। पर पूंजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य नियम से सभी पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला यह निरंतर विस्तार हर कुछ वर्ष में 'अति-उत्पादन' का संकट पैदा करता है क्योंकि अधिकांश जनता की क्रय क्षमता सीमित होने से उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाता है।

तब उद्योगों में नया निवेश बंद हो जाता है, पूंजीगत मालों की मांग खास तौर पर नीचे आ जाती है। इस स्थिति में इन विस्तार करते पूंजीपतियों में से कुछ के लिए यह चक्र टूट जाता है, वे दिवालिया हो जाते हैं, उद्योगों की कब्रगाह में उन्हें दफना दिया जाता है और उनके लिए हुए कर्ज एनपीए, विलफुल डिफाल्टर, गबन, आदि के रूप में सामने आते हैं।

साथ ही कभी-कभी विभिन्न कारणों से किसी बैंक द्वारा किसी पूंजीपति को नया कर्ज नहीं मिले तब भी उसका कारोबार तबाह हो जाता है, कर्ज डूब जाता है। इसलिए बैंकिंग उद्योग का संकट असल में पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित संकट को ही प्रतिबिंबित करता है।
 
पिछले 4 साल में सामने आये बैंक कर्ज संकट को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। 1991-92 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के समय भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंक कर्ज की कुल मात्रा उस समय के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 19% थी। इसके बाद के पहले दशक 2001-02 तक यह बढ़कर 25% हो गई। लेकिन उसके बाद 2003 से 2008 तक जो एक अस्थाई वृद्धि का दौर चला उसमें बैंक कर्ज की मात्रा तेजी से बढ़ लगभग दोगुनी हो गई।

अर्थात इस आर्थिक विस्तार के मूल में बैंकों द्वारा औद्योगिक-व्यापारिक पूंजीपतियों को दिए गए भारी कर्ज थे। इसके बाद जब वैश्विक आर्थिक संकट शुरू हुआ तो भारत में इसके प्रभाव को टालने के लिए और अधिक बैंक कर्ज दिए गए।

इस तरह कुल बैंक कर्ज की मात्रा बढ़कर जीडीपी का 52% हो गई जबकि इस दौरान जीडीपी की संख्या में भी बड़ी वृद्धि हुई थी।  लेकिन बाजार संकट के प्रभाव को अधिक वक्त तक नहीं टाला जा सका और पूंजीपतियों की लाभप्रदता में 2011-12 के साल से तेज गिरावट आनी शुरू हो गई।

2008 में जहां पूरी अर्थव्यवस्था में लाभ की दर जीडीपी का 7% थी, 2017 तक आते-आते यह घटकर 4% से कम हो गई। परिणामस्वरूप 2013-14 का वर्ष आते-आते बहुत से पूंजीपतियों के लिए कर्ज की किश्तें छोड़िये ब्याज की रकम चुकाना भी मुश्किल हो गया। उसका नतीजा ही पिछले वर्षों में डूबते कर्जों और राइट ऑफ की रकम में भारी वृद्धि है।

इसी स्थिति को संभालने और तबाह हुए पूंजीपतियों की कंपनियों को बंद करने या बचे हुए पूंजीपतियों के स्वामित्व में स्थानांतरित करने के लिए दिवालिया अधिनियम भी लाना पड़ा है। लेकिन इसमें भी अभी तक जो मामले गए हैं उनमें बैंकों के कर्ज का औसतन 70-80% अंतिम रूप से डूब जा रहा है जिसे 'मुंडन' या हेअरकट कहा जाता है।

बैंकिंग क्षेत्र में संकट का मूल कारण पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का उपरोक्त वर्णित संकट है। किंतु जब इसकी वजह से कोई बैंक संकट में आ जाता है तो सरकार व रिजर्व बैंक क्या करते हैं?

एक तार्किक न्यायपूर्ण व्यवस्था में उनका पहला काम बैंक के मालिकों-निदेशक मंडल व कर्ज दबाने वाली कंपनी व उसके मालिकों/निदेशकों की संपत्ति को जब्त करना, उन्हें भागने से रोकना होना चाहिये। लेकिन रिजर्व बैंक की नजर में अपराधी वे नहीं, बैंकों के 90% छोटे जमाकर्ता होते हैं और रोक उनके द्वारा अपने खाते में रखी गई छोटी रक़में होती हों जो उनके मुश्किल वक्त में काम आने के लिए उन्होने रखी होती है, रिजर्व बैंक सबसे पहले उस पर रोक लगाता है।

पीएमसी बैंक के मामले में तो यह भी खबर है कि बैंक के निदेशकों व उनके करीबियों द्वारा बैंक के डूबने की जानकारी होने की वजह से 15 सितंबर से अपनी रकम निकालनी शुरू कर दी गई थी, जब इन लोगों ने अपनी रकम निकाल ली तब 23 सितंबर को रिजर्व बैंक ने आम जमाकर्ताओं द्वारा निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

ऐसी खबरों के चलते आम लोगों में अपनी बचत की सुरक्षा को लेकर घबराहट फैलना स्वाभाविक ही है। साथ ही सरकार नोटबंदी के द्वारा नकद रखने पर भी अप्रत्यक्ष रोक लगा चुकी है।

अतः आशंका और डर और भी अधिक है जिससे संकट एक सामाजिक चर्चा का रूप ले चुका है। इसी वजह से मजबूर होकर रिजर्व बैंक को अफवाहों पर भरोसा न करने के बयान देने पर विवश होना पड़ रहा है।                      
                   
(यह लेखक के अपने निजी विचार हैं)

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