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‘भारत का उदारवाद एक मिथक है और मुसलमान इसके शुभंकर बना दिये गए हैं’ —संजय श्रीवास्तव

बहुत सारे भारतीय जिन्होंने पहले हिंदू दक्षिणपंथ की ओर रुख़ कर लिया था, उन्हें भी 'उदार' के रूप में देखा गया। उनके लिए भारत अगर उदारवाद का पर्याय है तो धर्मनिरपेक्षता हिंदू धर्म का पर्याय है।
‘भारत का उदारवाद एक मिथक है और मुसलमान इसके शुभंकर बना दिये गए हैं’ —संजय श्रीवास्तव
फ़ोटो: साभार:ड्रीम्सटाइम डॉट कॉम

जाने-माने मानव विज्ञानी प्रोफ़ेसर संजय श्रीवास्तव दिल्ली विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक ग्रोथ के लिए काम करते हैं और इस समय यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में पढ़ाते हैं। इनके काम भारत में मर्दवाद और नव-शहरीवाद से लेकर भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद और मध्यम वर्ग की संस्कृतियों से सम्बन्धित विषयों तक विस्तृत हैं। न्यूज़क्लिक के साथ इस साक्षात्कार में वह कहते हैं कि भारत की सहज उदारता को लेकर जो विचार रहा है, उसे न तो कभी इतनी गंभीर चुनौती मिली थी और न ही इस धारणा को प्रश्रय देने वाले रहे थे। असल में सवाल नहीं कर पाने की स्थिति बहुत सारे संघर्षों का स्रोत है, बिना कड़ी मेहनत किये कोई भी देश नस्लवाद, लिंगवाद, समलैंगिकों के प्रति घृणा, इस्लाम को लेकर नफ़रत या जाति और सांप्रदायिकता से नहीं लड़ सकता है। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार का संपादित अंश।

आपने हाल ही में लिखा है कि भारतीय उदारवाद एक ऐतिहासिक मिथक है, और अगर हमें समाज को समझना है, तो इसका मुक़ाबला करना होगा। आपने ऐसा क्यों कहा ?

मैं एक मानवविज्ञानी हूं और वर्तमान में काम करता हूं। भारतीय परंपरा को लेकर उदारवाद का यह विचार राष्ट्रवादी आंदोलन से विकसित हुआ है। असल में यह औपनिवेशिक शासकों के उस दावे का प्रतिवाद था कि भारतीयों के उदारवाद (पश्चिम से उलट) का कोई इतिहास नहीं है। लेकिन, राष्ट्रवादियों ने इसके जवाब में कहा था, 'हमारे पास भी उदारवाद और बहुसंस्कृतिवाद की परंपरा रही है, और हमारी ये परंपरा बहुत लंबे समय से रही हैं।'

इस विषय (उदारवाद) पर जो मेरी सोच है, वह अनुभव से पैदा होने वाले कार्यों और उन इतिहासकारों के साथ एक जुड़ाव पर आधारित है, जिन्होंने मुझे लगता है कि ग़लत तरीक़े से भारत को उदारवाद को एक लंबी परंपरा के रूप में प्रस्तुत कर दिया है। हमें इस विचार से शुरू करना होगा कि उदारवाद एक विशिष्ट शब्द है-खासकर हमारे इस दौर के लिए एक बहुत ही विशिष्ट शब्द है और इसके लिए आप मध्ययुगीन भारत या प्राचीन भारत में वापस इसलिए नहीं जा सकते, क्योंकि वर्तमान अतीत की व्याख्या नहीं कर सकता है। इसका बहुत कोई ज़्यादा नहीं रह जायेगा।

उदारवाद और जो कुछ उदारवादी विचार है, उसमें अगर आप दिलचस्पी रखते हैं, यह मानने के बजाय कि वे भारतीय समाज में हमेशा मौजूद रहे हैं, आपको इसके लिए हालात पैदा करने की ज़रूरत है।

दुर्भाग्य से अब तक यही हुआ है, जिसका मतलब यह है कि आप उदारवाद को संस्थागत बनाने के लिए ज़रूरी काम कर ही नहीं पाये हैं। (मसलन) जाति व्यवस्था के अस्तित्व के साथ ऐतिहासिक रूप से उदार समाज के विचार को कैसे कोई रख सकता है ?

प्रोफ़ेसर संजय श्रीवास्तव

ठीक है, मगर आप 'ऐतिहासिक मिथक' शब्द का इस्तेमाल क्यों करते हैं?

यह एक मिथक ही तो है, क्योंकि यह सभी देशों में राष्ट्रवादी बहस का एक हिस्सा है। चाहे यूरोप हो, भारत हो, या फिर अफ़्रीका हो, सब जगह राष्ट्रवाद उन सभी तरह के मिथकों के निर्माण को लेकर है कि आप किस तरह के व्यक्ति हैं। यह एक मिथक(भी) है, क्योंकि जैसा कि हम समझते हैं कि भारत की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में यह उदारवाद मौजूद है, मगर मुझे इस बात पर यक़ीन नहीं है। लोग हमेशा कहते हैं, 'आप तो जानते हैं कि हिंदू, मुस्लिम और ईसाई एक दूसरे के साथ रहते आए हैं', लेकिन ऐसा ज़रूरी तो नहीं कि इसका मतलब उदारवाद का होना है।

उदारवाद उन लोगों के साथ रहना ही नहीं होता, जो आपसे अलग हैं, बल्कि इसका मतलब संकट के समय उन फ़ासलों से निपटने में सक्षम होना भी होता है। इस तरह, उदारवाद भारत के विद्वानों और ज़ाहिर तौर पर अलग-अलग सरकारों के दौर में गढ़ा गया एक मिथक ही है। यह कुछ ऐसा है, जिसे हम हमेशा मानकर चले है, जबकि इस समय काम करने वाला कोई भी शख़्स आपको बतायेगा कि उदारवाद का विचार रोज़मर्रा के भारतीय जन-जीवन में संस्थागत नहीं हैं। सिर्फ़ इसलिए कि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के साथ रहते हैं, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि यही उदारवाद है। इसे हम संघर्ष के समय में देख सकते हैं।

क्योंकि हिंदू हमेशा से बहुसंख्यक रहे हैं और हमेशा ही इनकी स्थिति विशिष्ट रही है, इसलिए उन्हें कभी भी चुनौती नहीं मिली और ऐसे में वे अन्य धर्मों के प्रति बड़प्पन का भाव रख पाने की हालत में रहे हैं। वे उस हद तक उदार रह सकते हैं, जिस हद तक कोई अमीर तब तक गरीबों को लेकर उदार बना रह सकता है, जब तक कि वह ग़रीब, उस अमीर के वर्चस्व पर सवाल नहीं उठाता हो। किसी उदार समाज का एहसास करने का मतलब यह नहीं है कि यह हमेशा से हमारे बीच मौजूद रहा है, बल्कि इसके लिए तो परिस्थितियों को बनाने की दिशा में काम करना होता है।

कोई भी मिथक विश्वास की एक ऐसी प्रणाली होता है, जिसे आप अनुभव के आधार पर खंडन या मंडन नहीं कर सकते हैं और इसीलिए भारतीय उदारवाद एक मिथक है। वास्तव में इसे तो कभी परखा ही नहीं गया। यह विचार कि 'हमारे माता-पिता की पीढ़ी ज़्यादा उदार थी' और यह कि इस उदारता में गिरावट आयी है, असल में अतीत को लेकर हमारे सोचने का यह एक काल्पनिक तरीक़ा है।

उस समय यह और भी साफ़ हो जाता है, जब आपको पता चलता है कि जिन तमाम लोगों को लेकर हमने सोचा था कि वे उदारवादी थे, असल में वे उदारवादी ही नहीं हैं। मौजूदा परिवेश में तो वे उन तमाम बातों को कहने में कोई हिचक तक महसूस नहीं करते, जिसे कहने में पहले हिचकते थे।वह समाज, जहां उदारवाद जैसी कोई चीज़ है, उस पर काम हुआ है, और आप जानते हैं कि उस समाज में जो कुछ भी ग़लत है, उस पर सवाल किया है, चाहे वह नस्लवाद, लिंगवाद, समलैंगिकों को लेकर घृण, इस्लाम को लेकर नफ़रत हो, या फिर इसी तरह की दूसरी गड़बड़ियां हों। मुझे नहीं लगता कि भारत में हमारा इस तरह के सवाल से कभी साबका पड़ा भी है क्योंकि हम हमेशा यह मानकर चलते रहे कि हम तो स्वाभाविक रूप से उदार हैं।

क्या आप यह कहना चाहते हैं कि यह मिथक कुछ ऐसा है, जिसमें यह इच्छा शामिल है कि भारत उदार हो ?

मैं सहमत हूं। हम चाहते रहे है कि भारत उदार रहे, लेकिन ऐसा रहा नहीं। उदारवाद को लेकर जो भारतीय सोच है, मुझे लगता है कि वह बहुत कुछ सतह पर होती बातें हैं, सूफी संगीत सुनना है या फिर वह खाना खाना है, जिसे मुस्लिम खाना माना जाता है। लेकिन, इस तरह का उदारवाद बहुत ज़्यादा भयावह और संदिग्ध चीज़ है। अगर आप उस चीज़ की इच्छा रखते हैं, तो इसके लिए बहुत मेहनत करने की ज़रूरत है, और इसके लिए ख़ुद से सवाल करने की भी आवश्यकता है। बेशक, ऐतिहासिक रूप से मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि यह इच्छा बहुत हद तक असली इच्छा थी कि भारत एक उदार समाज बने, लेकिन उस इच्छा को भी आसानी से एक हक़ीक़त की तरह देखा जाने लगा है और असली समस्या ही यही है।

भारत में हम देखते हैं कि ज़्यादातर समय पुरानी पीढ़ी-दादा-दादी, माता-पिता जातिगत सहिष्णुता को लेकर प्रतिबद्ध नहीं हो पाते। ऐसा इसलिए तो नहीं कि कुलीन-जातियां हमेशा ग़ैर-कुलीन जातियों से दूर रही हैं, मुसलमान हिंदुओं से दूर रहे हैं और ईसाई दूसरों से दूरी बनाकर रहे हैं, और इसी तरह दूसरे धर्म या तबके के लोग एक दूसरे से दूरी बनाकर रहते आये हैं। यही वजह तो नहीं कि भारत में मान्यतायें कभी आज़माई ही नहीं गईं?

हां, और मुझे ऐसा ज़रूर लगता है कि हाल के दिनों में आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में हुए बदलाव के चलते उन लोगों की ओर से ज़्यादा आकांक्षा ज़रूर पैदा हुई है, जिनके भीतर इस तरह की पहले कभी कोई आकांक्षा नहीं थी। मिसाल के तौर पर, निम्न-जाति के हिंदू, जिनके परिवारों ने पिछले दो दशकों में अच्छा-ख़ास कारोबार बढ़ा लिया है, अब वे अपने बच्चों को विश्वविद्यालय भेजने का ख़र्च उठा सकते हैं। उनकी कुछ ख़ास तरह की शिक्षा तक पहुंच हो गयी है, इससे भी आकांक्षा के क्षेत्र को विस्तार मिला है। आप असल में उन लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, जो वहां पहले से ही मौजूद हैं, मेरा मतलब हिंदुओं में उच्च जातियों से है।इस तरह, यह एक नयी स्थिति है...एक ऐसी स्थिति, जो एक असरदार संस्कृति को आज़मा रही है। ऐतिहासिक रूप से हम जानते हैं कि जब तक किसी प्रभावशाली संस्कृतियों को आज़माया नहीं जाता, उन पर सवाल नहीं किये जाते या फिर उन्हें चुनौती नहीं दी जाती, और किसी भी तरह से उन्हें ख़तरा महसूस नहीं होता, तब तक हम कभी नहीं जान पाते कि वे क्या करेंगी या क्या नहीं करेंगी।

इस समय के लिहाज़ से भारत की (इस) प्रमुख संस्कृति, मेरा मतलब उस हिंदू संस्कृति से है, इस समय इसे आज़माया जा रहा है, कई आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बदलावों के चलते इस पर दबाव पड़ रहा है। यही वह स्थिति है, जो बदली है। इससे पहले तो हिंदू पृष्ठभूमि वाला/वाली कोई कथित उदारवादी किसी ख़ास घेरे में अपना जीवन बिता सकते थे। वह यह कहते हुए ख़ुद को उदार होने की तरह पेश कर सकते/सकती हैं, 'देखो मेरे पास एक ऐसा रसोइया है, जो मुसलमान है'। लेकिन, यह एक बहुत ही स्पष्ट तौर पर परिभाषित हैसियत वाला रिश्ता रहा है और वह यह कि मुस्लिम रसोइये को एक परिवार के सदस्य की तरह माना तो जाता रहा है, लेकिन उस रसोइये को अपनी जगह मालूम है।

अब इस बात की भी संभावना है कि उस मुस्लिम रसोइया की कोई ऐसी संतान हो, जिसके पास बेहतर शिक्षा हो, और वह एक रसोइया नहीं बनना चाहता हो, बल्कि एक सफ़ेदपोश पेशेवर बनना चाहता हो, और जो उन लोगों के आधिपत्य और उनकी पुरानी हैसियत को चुनौती दे रहा हो, जिसके घऱ में उसके माता-पिता काम करते थे। इन बदल रही आकांक्षाओं का मतलब तो यही है कि कुछ कंगूरों को तबाह किया जा रहा है।

बेशक, अभी भी ऐसे लोग बचे हुए हैं, जो उन पुराने ढांचों और कंगूरों को बनाये रखना चाहते हैं, लेकिन क्योंकि उन्हें चुनौती दी जा रही है, इसलिए पुरानी स्थितियां बिखर रही हैं। समकालीन भारत की "समस्या" ही यही है कि पुरानी हैसियतों पर उन लोगों की तरफ़ से सवाल उठाये जा रहे हैं, जिन्होंने पहले ऐसा कभी नहीं किया था।

इससे पहले, कथित उदारवादी हिंदू कहते थे कि हमें इनदूसरे लोगोंके साथ कोई समस्या नहीं है, ऐसा इसलिए था, क्योंकि उनकी हैसियत को लेकर कभी कोई ख़तरा ही नहीं था और उनके सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व को कभी चुनौती नहीं दी गयी थी।

तो क्या एक तरह से दशकों से आरक्षण के ज़रिये जो निम्न जाति की स्थिति में बदलाव आया है, उससे वास्तव में इस 'उदारवाद' को चुनौती मिली है ?

सच कहूं, तो यह विडंबना है कि कोटा और आरक्षण प्रणाली उदारवादी एजेंडे का ही एक हिस्सा था। लेकिन, वहीं ग़ैर-हिंदुओं के लिए (जाति के आधार पर) कोई आरक्षण नहीं है। यह एक अजीब स्थिति है, क्योंकि ऐसे बहुत सारे ग़ैर-हिंदू हैं, जिन्हें इस आरक्षण की ज़रूरत है। आरक्षण प्रणाली से ऐसे लोगों की आमद हुई है, जो उसी वर्ग में चले गये हैं, जिस वर्ग से उच्च जाति का ताल्लुक रहा है और इस मोड़ पर यह मुमकिन है कि कोई निम्न जाति का शख़्स चूंकि वह एक ख़ास वर्ग में चला गया है, इसलिए वह उसी वर्ग के किसी उच्च जाति से शादी कर सकता है। उच्च-जाति के उदारवाद के आज़माये जाने के लिहाज़ से इस तरह की शादियां मौलिक मोर्चे हैं।

उदारवाद महज़ नौकरी के आरक्षण को लेकर नहीं है, बल्कि यह तो इस बात को लेकर भी है कि आपका बेटा या बेटी किससे शादी कर सकता/सकती है, बतौर दोस्त उनके पास कौन-कौन से लोग होने चाहिए आदि। नौकरी में मिलने वाले आरक्षण ने निश्चित ही तौर पर एक ऐसे वर्ग के निर्माण की स्थिति पैदा कर दी है, जो पुराने उदारवाद पर सवाल उठा सकते हैं क्योंकि आरक्षण के ज़रिये लोगों ने शिक्षा हासिल की है और जिनकी सफ़ेदपोश पेशे में आमद हुई है और अब वे वहां जाति विशेषाधिकारों के कुछ रूपों पर सवाल तो उठा ही सकते हैं।

इस तरह, आरक्षण प्रणाली ने कुछ मायनों में भारतीय उदारवादी रवैये पर सवाल उठाने वाली स्थितियां पैदा तो की है। ऐसा निश्चित रूप से पहले नहीं था।

आपने कहीं कहा है कि मुसलमानों को अपनी जगह मालूम है। इसके साथ ही अगर आपके पास इसे दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है, तो आप सहनशील नहीं हो सकते। तो, ऐसे में क्या मुसलमान एक तरह से हिंदू भारत की सहिष्णु संस्कृति का शुभंकर बनकर रह गये हैं ?

भारत के ज़्यादातर हिस्सों में मज़बूत मुस्लिम मध्यम वर्ग नहीं है। आपके यहां मुस्लिम अभिजात वर्ग है, और मुसलमानों की बड़ी संख्या ग़रीबों की है। ऐतिहासिक रूप से ग़रीब मुसलमानों के मुक़ाबले अभिजात मुसलमानों का सांस्कृतिक और आर्थिक जुड़ाव हिंदू अभिजात वर्ग से कहीं ज़्यादा रहा है। ऐसे में मुसलमानों की आबादी के भीतर बड़ी संख्या में सफ़ेदपोश पशेवर नहीं आ पाये है। वे ज़्यादातर अनियमित नौकरियों में स्वरोजगार पाते हैं। ऐसा अक्सर इसलिए होता है, क्योंकि वे औपचारिक कार्य क्षेत्र में प्रवेश करने में सक्षम नहीं हैं। आख़िरकार यह तो भेदभाव बरते जाने वाली बात है।

भारत में मुसलमानों की बड़ी संख्या कभी भी भारतीय पहचान की प्रमुख धारणाओं को चुनौती देने की स्थिति में नहीं रही। इसलिए, भले ही हम भारत को एक बहुत ही सांस्कृतिक बहुलता वाले देश के तौर पर देखें, लेकिन भारतीयता को सौंदर्यबोध से व्यक्त करने के प्रमुख सार्वजनिक तौर-तरीक़ों पर अगर आप ग़ौर करें, उदाहरण के लिए, जिस तरह हमारे सार्वजनिक समारोहों की शुरुआत होती है, जिस तरह जहाजों को लॉन्च किया जाता है, जिस तरह किसी चीज़ का उद्घाटन किया जाता है, तो आपको ये सभी तौर-तरीक़े हिंदू या हिंदू प्रतीकवाद से जुड़े हुए मिलेंगे। अगर आप किसी संगीत समारोह में जाते हैं, तो आपको दीपक की रोशनी मिलती है।यह भी एक विशिष्ट हिंदू अनुष्ठान है।

भारत में जो कुछ भी हुआ है, दरअसल वह हिंदू संदर्भवाद नामक किसी चीज़ की स्थापना है। यह वह बड़ा संदर्भ है, जिसके भीतर भारत और भारतीय अपने सांस्कृतिक लोकाचार को व्यक्त करते हैं, वह गहराई से हिंदू हैं। सचाई तो यही है कि इसके लिए कभी कोई चुनौती ही नहीं रही। हालांकि, हम एक ऐसे समूह का ज़िक़्र करते हुए यह कहते रहते हैं कि हम बहु-सांस्कृतिक हैं, जो आपको किसी भी तरह से चुनौती इसलिए नहीं देने वाला है क्योंकि यह वर्ग आर्थिक और राजनीतिक रूप से ऐसा करने में असमर्थ है।

यही वजह है कि मुसलमान भारतीय उदारवाद का एक शुभंकर बन गये हैं, क्योंकि वे कभी भी यह तर्क देने की स्थिति में ही नहीं रहे कि भारतीयता को व्यक्त करने के प्रमुख या सबसे लोकप्रिय तौर-तरीक़े हिंदू थे। आपके यहां कभी भी भारतीय उद्घाटन समारोह या जहाज को लॉन्च किये जाने का कोई समारोह ऐसा नहीं होता हैं, जिसमें उन तौर-तरीक़ों को अपनाया जाता हो जिनका जुड़ाव मुस्लिम तौर-तरीक़ों से हों। हालांकि, मुसलमान भारतीय उदारवाद का शुभंकर बन गये हैं, क्योंकि उन्होंने इस बात का प्रमाण दे दिया है कि हिंदू धर्म एक उदार धर्म है। हिंदू यह कहने की स्थिति में रहे हैं कि देखो, हम मुसलमानों के साथ मिलते-जुलते हैं, हमारे पास मुस्लिम रसोइये हैं, हमारे पास मुस्लिम भोजन हैं, शायरी आदि हैं। मुसलमान भारतीय सहिष्णुता के शुभंकर यानी हानिरहित प्रतिनिधि बनकर रह गये हैं।

वे महज़ एक शुभंकर बनकर इसलिए रह गये हैं, क्योंकि शुभंकर बड़े व्यापक तौर पर निष्क्रिय ही होते हैं। आप जिन्हें चुनते हैं, उनके साथ आप कुछ भी कर सकते हैं। आप उस शुभंकर को जो भी मायने देना चाहते हैं, दे सकते हैं। किसी शुभंकर के पास अपना कोई मायने नहीं होता। इस तरह, आप उस आबादी से चाहे जैसे निपट लें, जो ख़ुद को कोई मायने नहीं दे पा रही। यह लगातार सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रदान करता रहा है, कभी सवाल नहीं करता, न ही यह कहने की स्थिति में रहा है कि वह ऐसा कुछ नहीं बनना चाहता, जो भारतीय उदारवाद के लिए सांस्कृतिकऔचित्य’ प्रदान करे। यानी, मसलन, मैं एक सफ़ेदपोश पेशेवर बनना चाहता हूं, न कि उस तरह का मुसलमान, जो आपको लगता है कि यह सुनिश्चित करने का एक ऐसा आधार देगा कि भारतीय उदारवाद और हिंदू धर्म बहुत उदार हैं और मेरे वूजद का आधार बनाये रख रहा है।

समस्या तो तभी पैदा होती है, जब वह शुभंकर कह उठता है कि वह शुभंकर नहीं बनना चाहता, वह तो आपके जैसा बनना चाहता है। यह शुभंकर अब शुभंकर नहीं बना रहना चाहता। यह कहीं ज़्यादा मिला-जुला व्यक्तित्व रखना चाहता है। यह शुभंकर महज़ ऐसा व्यक्ति, संस्कृति, धर्म नहीं होना चाहता, जो उदार होने का दावा करने वाले दूसरे धर्म और संस्कृति के लिए संगीत और भोजन प्रदान करे।

आपकी बात सुनते हुए मैं कश्मीर के बारे में सोच रहा था। लेकिन, मसलन क्या यह एक सचाई है कि(पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल) नेहरू कश्मीर को इसलिए भी हाथ से नहीं देना चाहते थे, ताकि भारत का बहु-संस्कृतिवाद साबित किया जा सके? मेरा मतलब है, अगर मुस्लिम बहुल राज्य दूसरी तरफ़ चला जाता, तो आप यह नहीं कह सकते थे कि आप ज़बरदस्त बहु-सांस्कृतिक हैं।

यह एक अहम बात है, क्योंकि, मान लीजिए कि अगर सभी मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र पाकिस्तान चले गये होते...जो किदो देशों के इस सिद्धांतको साबित भी करता कि पाकिस्तान में मुसलमान हैं, भारत में हिंदू हैं, ठीक है ? लेकिन, ऐसे में निश्चित रूप से मुझे लगता है कि नेहरू जैसे किसी मज़बूत शख़्सियत का यह एक मजबूत हिस्सा था, जो मुझे किसी भी दूसरे लोगों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा वास्तविक उदारवादी दिखते हैं, लिहाज़ा भारतीय संघ के अलावा कश्मीर की कोई और जगह हो, इसे लेकर उदारवाद का एक चेहरा बनाने की सोच नेहरू की रही हो। मगर, यह मौलिक रूप से इस धारणा को कमज़ोर कर देता है कि भारत एक ऐसा उदार देश है, जहां विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रह सकते हैं।

तो, क्या आप यह कहेंगे कि कश्मीर मुद्दा भी उस मूलभूत समस्या का ही एक हिस्सा है, जो भारतीय उदारवाद के ख़ुद के भीतर भी है ?

बिल्कुल, मैं तो यही कहूंगा। निश्चित ही रूप से सैद्धांतिक तौर पर तो यही धारणा है कि कोई भी राष्ट्र-राज्य अपने क्षेत्र का हिस्सा देने को लेकर सहमत नहीं होगा, क्योंकि यह एक संप्रभु और मज़बूत राष्ट्र-राज्य के विचार को कमज़ोर करता है। लेकिन, इस बात से इतर, कश्मीर मुद्दा उदारवाद की समस्याओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। कोई शक नहीं कि इस समय यह भारत में हिंदू दक्षिणपंथ की समस्या में भी उलझ गया है।

हमने न सिर्फ़ मुसलमानों, बल्कि उदारवादियों की ओर से भी नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 और नागरिकों के प्रस्तावित राष्ट्रीय रजिस्टर के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन को देखा है। क्या ऐसे में आप कहेंगे कि ये विरोध प्रदर्शन एक संकेत है कि भारतीय मुसलमानों ने अपनीस्थिति को भुला दियाहै ?

मुझे भी ऐसा ही लगता है; निश्चित रूप से ऐसे वातावरण में इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ सार्वजनिक रूप से विरोध करने का यह विचार जहां राजनीतिक रार का एक बड़ा कारण है, कुछ लोगों का तर्क है कि यह स्थिति मुसलमानों की अपनी स्थिति को 'भूला देने' की तरह भी है। मुझे ऐसा लगता कि उदारवादियों के बीच भी विरोध के इन तरीक़ों को लेकर बेचैनी की भावना है। पुराने दौर के उदारवादियों के बीच इस बात को लेकर बेचैनी है कि पहले आप उनसे बात कर सकते थे और उन्हें मना सकते थे और अब यह संभव नहीं है। दिल्ली के शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ हुए 2019-2020 के विरोध का प्रतीक बहुत अहम है, इसने मुसलमानों की पहचान के उस नये रूप को लेकर चल रही बेचैनी को बढ़ा दिया है, जिसे ज़्यादा से ज़्यादा आमूलचूल परिवर्तनवादी, ज़ोरदार और आक्रामक माना जाता है।

इस विरोध ने उन लोगों को भी खुलकर सामने आने का विचार दिया, जो पहले सार्वजनिक रूप से दिखायी नहीं देते थे; मुसलमानों का एक वर्ग जो पहले ख़ुद नहीं बोलता था, इस विरोध के समय बोलता हुआ दिखा। पहले इस तरह के विरोध की अगुवाई आमतौर पर मुस्लिम अभिजात वर्ग किया करता था, लेकिन इस विरोध ने इस धारणा को भी बदलकर रख दिया है। यह ज़रूरी नहीं रह गया कि मुस्लिम कुलीन वर्ग ही व्यापक मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करे। हर तरह के लोग सड़कों पर निकल रहे हैं !

मुझे लगता है कि ऊंची जाति के हिंदु मुस्लिम अभिजात वर्ग के साथ आसानी से घुल-मिल लेते हैं। यही बात मुस्लिम अभिजात वर्ग के लिए भी सच है। उन्हें ग़ैर-संभ्रांत मुस्लिम आबादी से निपट पाना कहीं ज़्यादा मुश्किल लगता है और इसलिए इनकी इसी बेचैनी से कुछ बदलाव आया है और ’ये लोग’ शायद एक ऐसे समाज में रहने के लिए पर्याप्त रूप से आभारी नहीं हैं, जो कि बहुत उदार है।

हक़ीक़त यही है कि भारत के उदारवादी हलकों में कभी भी उदारवाद पर चर्चा नहीं हुई। लेकिन, सवाल है कि इस हक़ीक़त को छुपा कौन रहा है, कांग्रेस पार्टी ? या यही उदारवादी अभिजात वर्ग, जो उस बेचैनी का सामना नहीं करना चाहता ?

कुछ ख़ास बातों में तो कांग्रेस और उदारवादी अभिजात वर्ग के बीच समानता रही है या कम से कम इनका एक दूसरे पर असर तो ज़रूर रहा है। मोटे तौर पर, पचास, साठ, या सत्तर के दशक में ग़ैर-दक्षिणपंथियों के साथ-साथ हिंदू दक्षिणपंथियों कहा करते थे कि भारत एक बहुत ही उदार देश है, हिंदू धर्म बहुत उदारवादी धर्म है। इसलिए, मुझे नहीं लगता कि आप इसे किसी एक विशेष समूह में डाल सकते हैं। लेकिन, इसमें शक नहीं है कि बहुत लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ने भारत को लेकर मौलिक रूप से बहुत उदार देश होने के विचार को बढ़ावा दिया।

लेकिन, कांग्रेस ने भी उन्हीं विचारों को सामने रखा, जो इतिहासकारों और राष्ट्रवादियों की तरफ़ से लिखे गये उन लेखों की तरह तिर रहे थे, जिन्होंने भारतीय इतिहास में जाकर आधुनिक इतिहास को पढ़ते हुए मध्ययुगीन या प्राचीन भारत को आधुनिक रूप में प्रस्तुत कर दिया था। लेकिन, आप यह तो नहीं कह सकते कि सम्राट अकबर एक आधुनिक उदार व्यक्ति के बराबर था। भारत में सभी ने यही कहा कि भारत एक उदार देश है और उन्होंने ऐसा बचाव वाली व्यवस्था के सिलसिले में भी कहा है, यह प्रणाली ख़ास तौर पर उस औपनिवेशिक अनुभव से मिली है, जो भारतीयता को लगातार नकारात्मक संदर्भ में ही प्रस्तुत करता रहा है। इसलिए, मुझे लगता है कि कई राष्ट्रवादियों ने जिन विचार पर कुंडी लगा दी, वह था-ज़रूरी’ भारतीय उदारवाद, ज़रूरी भारतीय धर्मनिरपेक्षता, ज़रूरी भारतीय बहु-संस्कृतिवाद, ज़रूरी भारतीय क्षमता और यह कहना मुश्किल है कि किसी भी समूह ने इन विचारों को बढ़ावा दिया हो।

चूंकि कांग्रेस बहुत ही लंबे समय तक सत्ता में थी और उसके पास एक ख़ास तरह के इतिहास को बढ़ावा देने के लिए संसाधन भी थे, इसलिए उसकी ज़िम्मेदारी थी। लेकिन, मैं इसका कुछ दोष पेशेवर इतिहासकारों को भी दूंगा। वे भारत में उदारवाद की उस धारणा के होने की बात लगातार सामने रखते रहे, जिसके बारे में मुझे लगता है कि वह भारत में थी ही नहीं और अब हम देख पा रहे हैं कि उदारवाद की परिस्थिति बनाने को लेकर बहुत ही कम काम किया गया है।

तो, आपकी बुनियादी आलोचना वास्तव में यही है कि उदारवादी अपना चेहरा आईने में देखने के बजाय ख़ुद को उस इच्छा से चिपकाए रहे, जो कि मिथक है ?

बिल्कुल, सही है। मुझे नहीं लगता कि आधुनिक भारतीय बौद्धिक परंपराओं के भीतर हमारे पास किसी तरह का कोई गंभीर आत्मनिरीक्षण भी था। हम हमेशा समकालीन विचारों की कुछ धारणा को पीछे धकेलने की कोशिश करते हैं, जो कि राष्ट्रवाद से दूर भारतीय अतीत में उभरी हैं और हम जो होना चाहते हैं, उसे ही हम जो हैं, समझ लेते हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि आधुनिक भारतीय बौद्धिक परंपराओं के साथ जो एक गंभीर समस्या है, वह यह है कि उन गंभीर सवालों के उठाये जाने का अभाव है, जिनके घेरे में ख़ुद विशेषाधिकार प्राप्त लोग आते हैं, सवाल पैदा होता है कि वे किस तरह विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग में दाखिल हो गये और वे क्यों मानते हैं कि भारत में कोई भेदभाव नहीं है।

और यह आत्मनिरीक्षण इसलिए अब मुमकिन नहीं है, क्योंकि राजनीतिक बहस बेहद ध्रुवीकृत हो गयी है, बहुत ही विरोधी हो गयी है ?

मैं सहमत हूं, और यही वह बात है, जो चीजों को और अधिक जटिल बना दे रही है, क्योंकि आप अगर भारतीय उदारवाद की समस्या को लेकर कोई सवाल करते हैं, तो संभवतः आपको हिंदू अधिकार की बहस में योगदान करने वालों की तरह देखा जा सकता है। इसलिए, आप सही हैं, बहुत से लोग यह तर्क देंगे कि भारतीय उदारवाद पर सवाल उठाने का यह एक ठीक समय नहीं है, क्योंकि इस समय जो कुछ भी हो रहा है, उसके ख़िलाफ़ यह आखिरी लड़ाई है। इसके बावजूद, मैं तो यही तर्क दूंगा कि जो कुछ भी हो रहा है, दरअस्ल वह इस हक़ीक़त का भी तो नतीजा है कि इस (यह धारणा कि भारत बहुत उदार है) पर कभी सवाल उठाया ही नहीं गया।

यह तो स्थिति की विडंबना ही है। इस समय लोग तर्क देंगे कि यह वास्तव में उदारवाद पर सवाल उठाने का यह सही समय नहीं हैं और मगर, हमें तो यह भी पता ही नहीं है कि आख़िर सवाल करने का सही समय क्या है।

लेकिन, अगर इस समय उदारवाद का परीक्षण किया जाता है, तो यह सत्ता में बैठी एक हिंदू राष्ट्रवादी सरकार का समर्थन करने जैसा होगा, यह क़दम चाहे जो कुछ भी हो, मगर उदारवादी रवैया तो नहीं है न ?

हां, लेकिन यहां तो वही कुछ हो रहा है, जिसकी आशंका थी, क्योंकि पहले कभी उदारवाद का परीक्षण किया ही नहीं गया। अब जबकि इसका परीक्षण किया जा रहा है, तो बहुत से हिंदू यह तर्क देंगे कि यह (हिंदुत्व) तो हिंदू धर्म का एक मज़ाक है क्योंकि हिंदू धर्म हमेशा से एक उदार धर्म रहा है। और कहा जायेगा कि ये लोग, यानी मुसलमान जो कुछ भी सवाल कर रहे हैं, वह तो ग़ैर-मुनासिब है क्योंकिपाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जाता है, भारत में इनके साथ उससे कहीं बेहतर व्यवहार किया जाता है' यह भी कहा जाता है किमुसलमान, हिंदू धर्म के एक उदार धर्म होने का फ़ायदा उठाना चाहते हैं।

मौजूदा परिवेश हिंदू दक्षिणपंथियों और उन लोगों के लिए भी एक शानदार मोड़ है, जिन्हें कभी 'उदार' होने के तौर पर चिह्नित किया जाता था। यह हक़ीक़त भी इसी सवाल से काफ़ी हद तक जुड़ा हुआ है कि उदारवाद पर कभी सवाल ही नहीं उठाया गया।

ऐतिहासिक रूप से भारत में हमने एक विशेष प्रकार के हिंदू धर्म और धर्मनिरपेक्षता वाली हिंदू विश्वदृष्टि को ग़लत तरीक़े से स्वीकार किया है। यही असली समस्या है। भारत में हमारे पास वास्तविक धर्मनिरपेक्षता कभी थी ही नहीं; हमारे पास हिंदू धर्मनिरपेक्षता थी। लोगों के लिए अभी से हिंदू की ओर रुख कर जाना बहुत आसान है और कहा जा रहा है कि यह पूरी तरह से ठीक इसलिए है, क्योंकि आख़िरकार, हिंदू धर्म हमेशा से एक धर्मनिरपेक्ष धर्म रहा है।

उदारवाद को लेकर सवाल करने का सही समय कभी आया ही नहीं। हम अब भी सवाल पूछ सकते हैं, कितना बुरा हो सकता है ? आख़िर इससे बुरा और क्या हो सकता है ?

अगर भारत में गांधीवादी विचार का प्रतीक रहा वाक्य-विविधता में एकतापहली बार परीक्षण किये जाने पर नाकाम हो रहा है, तो क्या इसका मतलब यह है कि यह महज़ एक कपोल-कल्पित अवधारणा थी ?

हां, मुझे तो ऐसा ही लगता है। ख़ैर, विविधता में एकता वाला विचार मौलिक रूप से हिंदू अवधारणा पर ही आधारित थी। यह हमेशा से एक ऐसी विविधता रही, जिसे नियंत्रित कर पाने की परिकल्पना की गयी थी। यह वही विविधता थी जिसकी व्यापक पृष्ठभूमि हिंदू धर्म में थी। हिंदू धर्म एक ऐसा सांचा था, जिस पर इस विविधता को फैलने दिया गया। और वही हुआ, जो होना था।विविधता में एकताबुनियादी तौर पर एक बहुत ही सुखद विचार था क्योंकि यह सही मायने में वास्तविक विविधता को लेकर कभी था ही नहीं।

मसलन, असली विविधता का मतलब तो यही होगा कि राष्ट्र-राज्य के सार्वजनिक समारोहों में आपने मुस्लिम या ईसाई प्रतीकों को भी समायोजित किया होगा। लेकिन, अब भी यह पूरी तरह झूठ है। यहां तक कि नेहरूवादी उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता की ऊंचाई पर होकर भी हमारे पास कभी भी ऐसा सार्वजनिक क्षण नहीं आया, जब हिंदू तौर-तरीक़ों के अलावे किसी और धर्म के तौर तरीक़ों को भी अपना पाते। यही वह संदर्भ है, जिससेविविधता में एकताका विचार आता है। जो कुछ भी एकता या विविधता को लेकर चलता रहा है, उसे कभी चुनौती दी ही नहीं गयी और अब हम इसकी क़ीमत चुका रहे हैं।

क्या यह विविधता हमेशा हिंदू की शर्तों पर थी ?

पूरी तरह। हां, बहुत हद तक। बहुत हद तक ऐसा ही था।

आक़िब ख़ान मुंबई में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘Indian Liberalism is a Myth and Muslims Became its Mascot’—Sanjay Srivastava

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