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महंगाई की मार मजदूरी कर पेट भरने वालों पर सबसे ज्यादा 

पेट्रोलियम उत्पादों पर हर प्रकार के केंद्रीय उपकरों को हटा देने और सरकार के इस कथन को खारिज करने यही सबसे उचित समय है कि अमीरों की तुलना में गरीबों को उच्चतर कीमतों से कम नुकसान होता है।
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देश इस समय महंगाई के सर्पिल चक्र की गिरफ्त में है जिसके परिणामस्वरूप लोगों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। कीमतों में हुई इस जानलेवा बोझ ने ग्रामीण एवं शहरी गरीबों की जिंदगी को बेहद कठिन बना डाला है।

अप्रैल माह के लिए खुदरा मुद्रास्फीति की दर 7.8% रही, जो कि पिछले आठ वर्षों में सबसे उच्च स्तर पर है; खाद्य वस्तुओं के मूल्य में मुद्रास्फीति बढ़कर 8.38% तक हो गई, जो पिछले सत्रह महीनों में सबसे अधिक है; और थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति अप्रैल में बढ़कर 15.08% हो गई, जो कि मौजूदा 2011-22 श्रृंखला में उच्चतम स्तर है।

आम लोगों, विशेषकर गरीबों के लिए इन शुष्क आंकड़ों के क्या मायने हैं? इसका नतीजा आटा, सब्जियों, खाद्य तेलों और रसोई गैस की बढ़ी हुई कीमतों में दिखाई देता है। इसका अर्थ है गरीब एवं निम्न-मध्यम आय-वर्ग के परिवारों के लिए अपने भोजन में कटौती करना, बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन में कटौती करना और जीने के लिए न्यूनतम स्तर को बनाये रखने हेतु आवश्यक किसी भी वस्तु की खरीद कर पाने में असमर्थता में होता है। पिछले एक साल के दौरान (मई 2021-मई 2022) उत्तर भारत के मुख्य आहार, आटे के दाम में 13% से अधिक की वृद्धि हो चुकी है, और दूध के दाम 50 रूपये प्रति लीटर से अधिक हो चुके हैं, खाद्य तेल की कीमत करीब 200 रूपये प्रति लीटर है और मौसमी सब्जियों की कीमतें आसमान छू रही हैं। 

मुद्रास्फीति का अर्थ है लाखों रेहड़ी-पटरी विक्रेताओं और छोटे-मोटे कारोबार चलाकर किसी तरह अपना जीवन बिता रहे लोगों के लिए आजीविका का नुकसान। यह छोटे एवं सूक्ष्म-उद्यमों को भी प्रभावित करता है।

महंगाई के इस सर्पिल चक्र में यदि कोई सबसे बड़ा कारक है तो वह है बढ़ती ईंधन की कीमतें। केंद्रीय सरकार की पेट्रोल, डीजल एवं तरल गैस के दामों में केंद्रीय करों में लगातार बढ़ोत्तरी की नीति के चलते पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दामों में अभूतपूर्व उछाल देखने को मिल रहा है। यह प्रकिया काफी पहले से शुरू हो गई थी, और यूक्रेन युद्ध ने सिर्फ स्थिति को और गंभीर बना दिया है। चूँकि ईंधन सार्वभौमिक तौर पर एक मध्यवर्ती-उत्पाद है, इसलिए पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी का सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है।

हमें इस बात को निश्चित रूप से रेखांकित करना होगा कि उपकर एवं अधिभार पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क का 96% और डीजल का 94% है। सबसे क्रूर बढ़ोत्तरी रसोई सिलेंडर में देखने को मिली है, जिसमें घरेलू 14.2 किलोग्राम सिलेंडर की कीमत में एक साल में 431.50 रूपये यानी 76% की बढ़ोत्तरी हुई है। एक वाणिज्यिक 19 किलोग्राम के सिलेंडर की कीमत अब 2,397 रूपये हो गई है, अर्थात 126% की बढ़ोत्तरी। [19 मई को सरकार के द्वारा नवीनतम मूल्य वृद्धि के बाद अब दिल्ली में रसोई गैस की कीमत 1000 रूपये प्रति सिलेंडर से अधिक हो चुकी है।]

मुद्रास्फीति की इस भयावह तस्वीर के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार का हैरान कर देने वाला निष्ठुर रवैया जिम्मेदार है। जिस दिन अप्रैल के लिए खुदरा मुद्रास्फीति के आंकड़े जारी किये गए थे, ठीक उसी दिन वित्त मंत्रालय की ओर से यह चित्रित करने की कोशिश की गई कि महंगाई से अमीरों की तुलना में गरीबों को कम नुकसान होता है। अप्रैल की मासिक आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है, “खपत के नमूने से जो तथ्य प्राप्त हुए हैं वे और भी पुख्ता तरीके से इस बात का इशारा करते हैं कि भारत में मुद्रास्फीति का उच्च-आय वर्ग वाले समूहों की तुलना में निम्न-आय वर्ग पर कम प्रभाव पड़ता है।” रिपोर्ट इस तर्क के साथ इस नतीजे पर पहुँचती है कि सुर्ख़ियों वाली खुदरा महंगाई का आबादी के विभिन्न हिस्सों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है, अर्थात शीर्ष 20%, मध्य 60% और सबसे निचले 20% पर उनके उपभोग पर खर्च के अनुसार अलग-अलग है।

विश्लेषण के एक पहलू से इस निष्कर्ष के बनावटीपन को उजागर किया जा सकता है। मासिक आर्थिक रिपोर्ट ने ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में विभिन्न उपभोक्ता वर्गों में मुद्रास्फीति की प्रभावी दर में बदलाव को बेहद कुशलता से उजागर किया है। मुद्रास्फीति कीमत में बदलाव का संकेत देती है। इसलिए, यदि एक वर्ष में शहरी गरीबों के लिए मुद्रास्फीति की दर उच्च रही है और बाद के वर्ष में यह तुलनात्मक रूप से कम है, तो ऐसे में कीमतों के संदर्भ में कुलमिलाकर प्रभाव अधिक बना रहेगा, भले ही प्रभावी मुद्रास्फीति में कमी आ गई हो। उदाहरण के लिए, यदि शहरी गरीबों के लिए प्रारंभिक कीमतें 100 रूपये थीं, तो अगले वर्ष 6.8% की वृद्धि के साथ, लागत 106.8 हो जायेगी, और फिर यदि प्रभावी मुद्रास्फीति दर घटकर 5.7% रह जाती है, जैसा कि रिपोर्ट बताती है, तो तीसरे साल के अंत तक प्रभावी मूल्य 112.89 हो जाता है (106.8 रूपये पर 5.7%)।

इसलिए पहले साल में यदि कीमत 100 रूपये थी, और तीसरे वर्ष तक यह 112.89 रूपये हो जाती है, तो यह सभी खपत करने वाले वर्गों में सर्वाधिक वृद्धि है, जिसे रिपोर्ट भ्रामक रूप से छिपाती है। अन्य श्रेणियों के लिए, संयुक्त प्रभाव अपेक्षाकृत कम है, हालांकि सभी समूहों और ग्रामीण एवं शहरी उपभाक्ताओं के लिये कीमतों में वृद्धि हुई है। इसलिए, शहरी क्षेत्रों में गरीब सबसे अधिक प्रभावित हैं, भले ही प्रभावी मुद्रास्फीति की दर 6.8% से घटकर 5.7% हो गई है।

यह विचार कि मुद्रास्फीति धनी लोगों को अधिक प्रभावित करती है को ख़ारिज किया जाना चाहिए। महंगाई उन लोगों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है जो मजदूरी के जरिये अपनी आय अर्जित करते हैं और बचत के नाम पर उनके पास मामूली जमाराशि होती है। विशेषकर, खाद्य वस्तुओं में मुद्रास्फीति उन लोगों को आहत करती है जो खाद्य पदार्थों के शुद्ध खरीदार हैं। धनी एवं उच्च-मध्यम वर्ग के लोग अपनी आय को वित्तीय साधनों और स्टॉक मार्केट के माध्यम से बचाव कर पाने में सक्षम हैं, जहाँ कीमतें मुद्रास्फीति की दर के साथ बढ़ती रहती हैं और इस प्रकार उनकी आय को काफी हद तक सुरक्षित बनाये रखती हैं।

मुद्रास्फीति आम तौर पर आय को गरीबों से अमीर की ओर हस्तांतरित कर देती है क्योंकि गरीब के पास अपनी वास्तविक आय में नुकसान की भरपाई करने के लिए कोई अन्य तंत्र उपलब्ध नहीं रहता है, जो कि अमीर के पास मौजूद रहता है। बाजार पर नियंत्रण होने के कारण कॉर्पोरेट अपने मुनाफे की दर को बरकारर रखते हुए उच्च लागत के बोझ को उपभाक्ताओं के उपर डाल देते हैं। इसके अलावा, मुद्रास्फीति के कारण, वास्तविक बचतकर्ताओं की ब्याज से होने वाली वास्तविक आय जहाँ घट जाती है, वहीं कर्जदारों को प्रभावी रूप से कम ब्याज दरों का भुगतान करना पड़ता है। चूँकि मेहनतकश लोग ही बड़े पैमाने पर बचतकर्ता होते हैं, वहीँ पूंजीपति अधिकांशतः कर्जदार होते हैं, ऐसे में यहाँ पर भी मेहनतकश लोगों को ही अधिक नुकसान झेलना पड़ता है। 

मूल्य वृद्धि से लड़ने के लिए, वाम दलों ने पेट्रोलियम उत्पादों पर सभी अधिभारों एवं उपकरों को वापस लेने का आह्वान किया है, जो कि पेट्रोल और डीजल की कीमतों को काबू में लाने का एकमात्र उपाय है। उन्होंने सभी आवश्यक वस्तुओं, विशेषकर खाद्य तेल और दालों की आपूर्ति के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने का भी आह्वान किया है। बड़े पैमाने पर आय एवं आजीविका को हुए नुकसान को देखते हुए, जो कि दो साल के कोविड-19 काल के दौरान और भी बदतर हुई है, उनकी ओर से सभी गैर-आयकर देने वाले परिवारों को 7,500 रूपये प्रति माह नकद हस्तांतरण किये जाने की मांग की जा रही है। 

बेरोजगारी की समस्या  को दूर करने के लिए तत्काल कदमों को उठाने के साथ-साथ मूल्य-वृद्धि को रोकने की ये मांगें सभी वाम एवं लोकतांत्रिक ताकतों के लिए प्राथमिक एजेंडा होना चाहिए। वाम दलों ने 25 मई से 31 मई के बीच में इन मांगों पर देशव्यापी संघर्ष का ऐलान किया है। महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ ऐसे संघर्ष एवं आंदोलनों को समूचे देश भर में विस्तारित एवं तेज किये जाने की आवश्यकता है।   

(आईपीए न्यूज़ सर्विस)

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Inflation Spiral is Hitting the Working Poor the Hardest

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