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“सर्वोत्कृष्टता के संस्थान” या “बहिष्कार के संस्थान”

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उच्च शिक्षा में सुधार अभियान के अंतर्गत 2017 में सर्वोत्कृष्ट संस्थान योजना (आईओई) की शुरुआत की है। लेकिन यह योजना शुरुआत से ही कई विवादों से ग्रस्त रही है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उच्च शिक्षा में सुधार अभियान के अंतर्गत 2017 में सर्वोत्कृष्ट संस्थान योजना (आईओई) की शुरुआत की है। लेकिन यह योजना शुरुआत से ही कई विवादों से ग्रस्त रही है। जिओ इंस्टीट्यूट को इस उत्कृष्ट संस्थान का तमगा दे देना, जिसकी अभी पहला शैक्षणिक सत्र ही प्रारंभ नहीं हुआ है, उन विवादों में से एक है। इस तरह की अनेक त्रुटियों ने उस महत् लक्ष्य को परास्त कर दिया है, जिसे लेकर इस योजना की शुरुआत की गई थी। अगर इसकी साख में बट्टा नहीं लगने देना है, इसकी विश्वसनीयता बहाल करनी है तो इन गड़बड़ियों में अवश्य ही सुधार किया जाना चाहिए। बता रहे हैं शुभंकर तिवारी और शुभ मित्तल

शिक्षा मंत्रालय ने 29 अक्टूबर 2020 को ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी सर्वोत्कृष्ट संस्थान की औपचारिक रूप से मान्यता दे दी। इसके साथ ही यह विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा 2017 में, देश में उच्च शिक्षा सुधार अभियान के अंतर्गत प्रभावशाली शिक्षण केंद्रों में शुमार हो गया।

 इस तमगा के साथ ढेर सारी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है, इस योजना का लक्ष्य बेशुमार धन कोष, संरचनागत सुविधाएं, अवसरों और स्वायत्तता की अपनी खोज के साथ विश्वस्तरीय शिक्षण और अनुसंधान संस्थान की तरफ उन्मुख होने का है।

 हालांकि यह योजना अपने प्रारंभ से ही कई विवादों से घिरी रही है। उदाहरण के लिए जिओ इंस्टिट्यूट को सर्वोत्कृष्ट संस्थान से नवाजे जाने की मुहिम ऐसी ही है कही जाएगी, जिसका पहला अकादमिक सत्र ही शुरू नहीं हुआ है। तो इस योजना में कौन-कौन से निहित लक्ष्य हैं, जो उस उद्देश्य को पूरा करेंगे जिसके लिए इसे लागू किया गया था?

यूजीसी ने यूजीसी ( सर्वोत्कृष्ट संस्थान के रूप में सरकारी संस्थानों की घोषणा) के निर्देश-2017, और यूजीसी ( डीम्ड यूनिवर्सिटी को सर्वोत्कृष्ट संस्थान बनाया जाना) नियमन-2017; इन दो नियमनों को इस योजना के तहत सरकारी संस्थानों और डीम्ड यूनिवर्सिटी को सर्वोत्कृष्ट संस्थान बनाए जाने के लिए जारी किए हैं। इन दोनों नियमनों में एक सबसे बड़ा अंतर यह है कि आईओई योजना के तहत चुने गए सरकारी संस्थानों को अगले 5 साल के लिए 1000 करोड़ की धनराशि मिलेगी, लेकिन निजी संस्थान को कोई धन आवंटन नहीं होगा। 

इन नियमों के अनुसार, अधिकार सक्षम विशेषज्ञ कमेटी (ईईसी) को ऐसे संस्थानों के चयन और उनकी निगरानी की जिम्मेदारी दी गई है। इस कमेटी को नियमन में दिए गए विभिन्न गाइडलाइंंस को ध्यान में रखते हुए काम करना है। 

वर्तमान सूची के साथ दिक्कतें 

जिओ इंस्टिट्यूट को सर्वोत्कृष्ट संस्थान का दर्जा दिए जाने के बाद बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ है। जिसके बाद में सरकार ने स्पष्टीकरण दिया कि प्रायोजित संगठन जैसे रिलायंस फाउंडेशन को “ग्रीन फील्ड श्रेणी” के अंतर्गत सर्वोत्कृष्ट संस्थान ( डीम्ड यूनिवर्सिटी होने लायक) के तहत पूरी तरह से नया प्रस्ताव जमा कर सकते थे। 

यूजीसी ने यूजीसी ( सर्वोत्कृष्ट संस्थान के रूप में सरकारी संस्थानों की घोषणा) के निर्देश-2017, और यूजीसी ( डीम्ड यूनिवर्सिटी को सर्वोत्कृष्ट संस्थान बनाया जाना) नियमन-2017 इन दो नियमनों को इस योजना के तहत सरकारी संस्थानों और डीम्ड यूनिवर्सिटी को सर्वोत्कृष्ट संस्थान बनाए जाने के लिए जारी किए हैं।  

इस योजना की दूसरी खामी थी, सर्वोत्कृष्ट और स्थापित संस्थाओं की सूची से जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली ( जेएनयू) का नदारद होना। न केवल जेएनयू राष्ट्रीय संस्थान श्रेणी के ढांचे में लगातार शीर्ष10 संस्थानों में शुमार रहा है बल्कि इसने विगत 50 वर्षों में सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में बेशुमार योगदान किया है। दूसरी ओर, जिसका पहला शैक्षणिक सत्र ही 2021 से पहले शुरू नहीं हो सकता है,जेएनयू के विशाल छात्रों और शिक्षकों की तादाद बनाने में लंबा समय लेगा। इसके अलावा, जिओ इंस्टीट्यूट को कैंपस के निर्माण की नियत तिथि की घोषणा न करने के लिए ईईसी से पहले ही तीखी आलोचनाएं झेलनी पड़ी है। किसी भी सूरत में, केवल कागजी मसौदे को किसी भी तरह से “वर्षों की विरासत” से आगे नहीं रखा जा सकता।

सर्वोत्कृष्ट संस्थान की सूची में दूसरी दिक्कत “वैविध्यपूर्ण क्षेत्रों का अभाव” है, क्योंकि इसमें मुख्य रूप से प्रौद्योगिकी संस्थानों की प्रधानता है। आईआईएम अहमदाबाद, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जैसे संस्थान अपने क्षेत्रों के महत्वपूर्ण संस्थान हैं; वे भी सर्वोत्कृष्ट शिक्षण संस्थान की सूची में शामिल नहीं हैं।.

सूची से शीर्ष श्रेणी के एनएलयू जैसे संस्थान गायब 

प्रतिष्ठित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज भी है, जिसे सर्वोत्कृष्ट संस्थान की सूची में सूची में स्थान नहीं दिया गया है। यद्यपि बाद में सफाई दी गई कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज और एनएएलएसआर (नलसार) के कुलपतियों ने इस स्कीम में अपने को दर्ज कराने के लिए पहले आवेदन नहीं दिया था। ऐसा इसलिए हो सकता है कि योजना ने खास क्षेत्र में काम करने वाले सीमित विश्वविद्यालय के बजाय बहुउद्देशीय विश्वविद्यालयों के चयन को अपनी पहली वरीयता दी थी।

इस योजना की दूसरी खामी थी, सर्वोत्कृष्ट और स्थापित संस्थाओं की सूची से जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली ( जेएनयू) का नदारद होना। जेएनयू न केवल राष्ट्रीय संस्थान श्रेणी के ढांचे में लगातार 10 शीर्ष संस्थानों में शुमार रहा था बल्कि इसने विगत 50 वर्षों में सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में बेशुमार योगदान किया है।  

एनएलएसआइयू के तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर ( डॉक्टर) आर आर वेंकट राव के वक्तव्य ने इस तरफ इशारा भी किया था। हालांकि यह मांग सर्वोत्कृष्टता की उस मंशा के विपरीत है, जिसको लक्ष्य करके यह योजना बनाई गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2010 में टिप्पणी की थी कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी “औसत दर्जे के संस्थानों के सागर के बीच सर्वोत्कृष्टता के प्रायद्वीप है”। दुर्भाग्य से, राज्य विश्वविद्यालय के अंतर्गत होने से स्वायत्तता की कमी से एनएलयू कई तरह की दिक्कतों, मसलन वित्तीय संसाधनों का अभाव और घरेलू असमानुपातिक आरक्षणों के साथ राज्य सरकारों द्वारा मुश्कें बांधने की चालों का सामना करते हैं। इन सबके बावजूद, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज लगातार प्रमुख विद्वानों, कानूनविदों, न्यायाधीशों और वादियों को तैयार करती रही हैं। लिहाजा, ये अभी ढेर सारे वित्तीय संसाधनों, सुविधाओं, अवसरों और स्वच्छता की मांग करते हैं, जिन्हें यह योजना मुहैया करा सकती है ताकि वे सर्वोत्कृष्टता के प्रायद्वीप बने रहें। 

श्रेणी के साथ मनोग्रंथी

इस तथ्य के साथ कि देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों ने विगत में विभिन्न वैश्विक श्रेणियों में बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है,ऐसे में इस स्कीम के अंतर्गत अच्छा प्रदर्शन पर बल दिया गया है। गाइडलाइन 4.1(xix) कहती है,“सर्वोत्कृष्टता के अंतर्गत संस्थान को विश्व स्तर के किसी भी शीर्ष 500 विश्वविद्यालयों के श्रेणीगत ढांचे (जैसे,टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग या क्यूएस या शंघाई जियाओ यूनिवर्सिटी) में आने के लिए उनकी स्थापना के पहले 10 वर्षों में सर्वोत्कृष्ट संस्थान के रूप में घोषित किया जाए।’’

गाइडलाइन 6.6.2 कहती है : सर्वोत्कृष्ट संस्थान लगातार नेशनल इंस्टीट्यूशन रैंकिंग फ्रेमवर्क के अंतर्गत जारी रहेंगे और अधिसूचना के 5 वर्षो के भीतर अपने आप अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित सूची में शुमार हो जाएंगे। तब से इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय श्रेणी-क्रम ढांचे के अंतर्गत परिगणित होते रहना चाहिए।” 

इसके अलावा, “ऐसे 500 सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय श्रेणी के विश्वविद्यालयों में ही आने का उनका लक्ष्य नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें अपनी जगह सुरक्षित रखते हुए सर्वोच्च 100 संस्थानों की श्रेणी में शुमार होने पर नजर रखनी चाहिए।” गाइडलाइंस 6.7.2 के मुताबिक, “इस योजना के लिहाज से वैश्विक श्रेणी का महत्व यह है कि ऐसी अर्हता पूरी न करने वाले संस्थानों को सर्वोत्कृष्टता की सूची से हटा दिया जाएगा, और इस श्रेणी में आने के एवज में पैराग्राफ 6.1 के अंतर्गत दी जाने वाली किसी या सभी अतिरिक्त मदद को वापस ले लिया जाएगा।” 

 विश्वसनीयता का मसला

रिलायंस को विश्व श्रेणी दिए जाने में सबसे बड़ी दिक्कत है कि यह विश्वसनीयता के पैमाने पर खरा उतरने के बावजूद वह संस्था अनेक अवसरों पर सवालों के घेरे में आई है। उदाहरण के लिए क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग एच-इंडेक्स का उपयोग करती है, जो एक वैज्ञानिक को उनके शोध पत्रों के प्रकाशनों की संख्या के आधार पर मिलने वाले उच्च अंकों की गणना पर निर्भर करती है। इस मानक की आलोचना मुख्य रूप से दो कारणों को लेकर की जाती है : इसने दिखाया है कि एच-इंडेक्स मीट्रिक्स पर सबसे ज्यादा निर्भर करता है; जैसे, क्षेत्र, समय और प्लेटफार्म पर; और इसीलिए उत्तरदायी तुलनाओंं में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। दूसरे,एच-इंडेक्स किसी भी तरह से एक विश्वविद्यालय के अनुसंधान कार्यक्रमों की स्थिति की समझ नहीं देता है और यह केवल किसी एक शोधार्थी और उनके शोध-पत्रों के प्रकाशन की व्यक्तिगत उपलब्धि का ही संकेतक है।

 जिओ इंस्टीट्यूट को कैंपस के निर्माण की नियत तिथि की घोषणा न करने के लिए ईईसी से पहले ही तीखी आलोचनाएं झेलनी पड़ी है। किसी भी सूरत में, केवल कागजी मसौदे को किसी भी तरह से “वर्षों की विरासत” से आगे नहीं रखा जा सकता।

ऐसी श्रेणियों पर भरोसा समतावाद,समानता, सार्वजनिक भलाई और जवाबदेही के सिद्धांतों से दूर ले जाएगा। सर्वोच्च 500 या सर्वोच्च 100 की संस्थानों की सूची में श्रेणीबद्ध किए जाने की खोज संस्थाओं के श्रेणीकरण का कारण बनेगी। यह विगत में फ्रांस और जर्मनी में हो चुका है। इसलिए राष्ट्रीय और वैश्विक श्रेणी किसी संस्था की प्रगति के मूल्यांकन का संकेतक तो हो सकती है,किंतु सर्वोत्कृष्ट संस्थान योजना के तहत उन्हें शुमार किया जाना समस्यात्मक होगा। 

तिरछा लैंगिक अनुपात 

 हाल के दिनों में, सर्वोत्कृष्टता को “आईवी लीग ऑफ इंडियन इंस्टीट्यूशंंस’’के रूप में संभावनाशील माना जा रहा है। हालांकि यह सत्य से काफी दूर है क्योंकि यह सरकार की सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय श्रेणियों के संदर्भ मेंं कागजी ख्याति पाने की मनोग्रंथि से ज्यादा कुछ नहीं है। इसके अतिरिक्त, जेंडर अनुपात जैसे कारकों को इस योजना की गाइडलाइंंस में उल्लेख नहीं किया गया है। यह अज्ञानता इस तथ्य के बावजूद है कि सर्वोच्च श्रेणी के संस्थान अपनी स्थापना के समय से ही जेंडर अनुपात मामले में तिरछे हैं। यह “सर्वोत्कृष्ट संस्थान” को “बहिष्कार के संस्थान” बनाता हुआ ज्यादा लगता है। 

 इसके अलावा, इस योजना के जरिये सर्वोत्कृष्ट संस्थान की सूची से जेएनयू जैसे प्रमुख संस्थानों को गायब होना और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज के साथ सौतेला व्यवहार खतरनाक है। अत: सरकार के लिए इन खामियों को दुरुस्त करने और यह महसूस करने का वक्त है कि उच्च शिक्षा में सुधार का लक्ष्य उनको संशोधित करके ही हासिल किया जा सकता है। 

(शुभंकर तिवारी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में तीसरे वर्ष के छात्र हैं जबकि शुभ मित्तल नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु में दूसरे वर्ष के छात्र हैं। आलेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं।) 

यह आलेख मूलतः लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

“Institutions of Eminence” or “Institutions of Exclusion”?

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