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अगर अब भी नहीं जगे तो अगले 20 साल बाद जलवायु परिवर्तन से तबाही की संभावना : रिपोर्ट

इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोतरी की वजह से खूब अधिक बारिश होगी। सूखे की संभावना भी बढ़ेगी। हीटवेव का दंश भी झेलना पड़ेगा। हिमखंड पिघलेंगे। चक्रवाती तूफानों में बढ़ोतरी होगी। समुद्र का तापमान बढ़ेगा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी होगी।
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पिछले 20 लाख सालों में भी दुनिया उतनी अधिक गर्म नहीं थी जितना वह मौजूदा दौर में है। तापमान में 1 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी से झकझोर देने वाली बारिश 7 गुना अधिक बढ़ रही है। पिछले 3 हजार सालों में पृथ्वी के समुद्र स्तर में उतनी अधिक बढ़ोतरी कभी नहीं हुई जितनी अब हो रही है। उत्तरी ध्रुव पर मौजूद महासागर की हिम खंडों की ऊंचाई पिछले एक हजार सालों के मुकाबले हाल फिलहाल सबसे कम है। पृथ्वी की जलवायु में हो रहे यह कुछ ऐसे बदलाव हैं जिन्हें फिर से बदलने में हजार साल लग सकते हैं। अगर हम दुनिया की गर्माहट को जरूरी मात्रा में नियंत्रित करने में कामयाब भी होते हैं फिर भी ध्रुवों पर मौजूद हिमखंडो की लगातार हो रही पिघलाहट को रोकने में तकरीबन एक हजार साल लगेगा। समुद्रों का तापमान बढ़ता रहेगा और समुद्रों के जलस्तर में अगले सौ साल तक बढ़ोतरी होती रहेगी।

यह सारी बातें संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से जुड़े एक संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की छठवीं रिपोर्ट में प्रकाशित हुई है। साल 1990 के बाद हर सात साल के बाद यह संस्था जलवायु परिवर्तन पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करती है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों के जलवायु परिवर्तन अध्ययन को इस संस्था द्वारा जांचा परखा जाता है और उसके बाद यह रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। इस बार दुनिया के 195 देशों की 14 हजार वैज्ञानिकों पेपर के अध्ययन के बाद 234 लेखकों ने 3 हजार पन्नों से ज्यादा की यह रिपोर्ट तैयार की है।

चूंकि इसमें दुनिया के सभी प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों के अध्ययन को जांचा परखा जाता है। यह आरोप लगाने की संभावना कम होती है कि दुनिया के कुछ शक्तिशाली देशों ने मिलकर इस रिपोर्ट को तैयार किया है इसलिए इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता ज्यादा होती है।

इसी संस्था ने यह निर्धारित किया था कि अगर दुनिया को जलवायु परिवर्तन के भयंकर परिणामों से बचाना है तो इस सदी के अंत तक दुनिया के औसत तापमान की बढ़ोतरी को 19 वी सदी के अंत यानी कि औद्योगिक काल के तापमान के मुकाबले 2 डिग्री सेंटीग्रेड से कम रखना होगा। धीरे धीरे दुनिया के वैज्ञानिकों को लगा कि यह लक्ष्य भी ठीक नहीं है। अगर इसके मुताबिक भी चले तब भी दुनिया को जलवायु परिवर्तन के भयंकर परिणाम सहने होंगे। इसलिए साल 2015 के पेरिस सम्मेलन में यह समझौता बना कि इस सदी के अंत तक औसत तापमान में बढ़ोतरी 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह लक्ष्य भी अब छोटा साबित हो रहा है। जारी हुई इस रिपोर्ट के मुताबिक जिस गति से कार्बन उत्सर्जन हो रहा है उस गति से 2030 से पहले ही दुनिया के औसत तापमान में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक की वृद्धि हो जाएगी। यही इस रिपोर्ट की सबसे अधिक चिंताजनक बात है। इस रिपोर्ट से जुड़े वैज्ञानिकों का तो यहां तक कहना है कि बहुत बड़े स्तर पर कार्बन उत्सर्जन रोकने के बाद भी शायद 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक नियंत्रित करने के लक्ष्य को हासिल ना किया जा सके। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस सदी के अंत तक जितना कार्बन उत्सर्जन होना चाहिए उतने कार्बन उत्सर्जन का तकरीबन 86 फ़ीसदी हिस्सा हमने इस सदी के शुरुआती दो दशक में ही उत्सर्जित कर दिया है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोतरी की वजह से खूब अधिक बारिश होगी। सूखे की संभावना भी बढ़ेगी। हीटवेव का दंश भी झेलना पड़ेगा। हिमखंड पिघलेंगे। चक्रवाती तूफानों में बढ़ोतरी होगी। समुद्र का तापमान बढ़ेगा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी होगी। यह नई बात नहीं है। हकीकत तो यह है कि यह सारी दशाएं हम सब महसूस कर रहे हैं।

जहां तक बात रही भारत की तो मौजूदा वक्त में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। लेकिन प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस उत्सर्जन के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी है। भारत के मुकाबले अमेरिका में प्रति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तकरीबन 9 गुना अधिक होता है। यानी जलवायु परिवर्तन से संघर्ष करने के लिहाज से भारत से ज्यादा अमेरिका जैसे विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक बनती है। फिर भी हकीकत की बात यह है कि जब जलवायु में बदलाव होगा तो इसकी मार दुनिया के सभी देशों को सहना पड़ेगा। उन देशों को अधिक सहना पड़ेगा जिनके जमीन का जुड़ाव समुद्रों से भी है।

इसलिए यह रिपोर्ट कहती है कि भारत की समुद्री तटरेखा तकरीबन 7500 किलोमीटर से अधिक है। इसलिए बढ़ते हुए समुद्री जल स्तर से भारत को बहुत अधिक नुकसान भी सहना पड़ेगा। भारत पर आधारित इस रिपोर्ट का एक हिस्सा कहता है कि चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुंबई, सूरत विशाखापत्तनम जैसे शहर भारत के प्रमुख बंदरगाह हैं. यहां तकरीबन 28 लाख लोगों की आबादी रहती है। अगर समुद्र के जलस्तर में 50 सेंटीमीटर की भी बढ़ोतरी हुई तो यह शहर बाढ़ से डूब जाएंगे।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का इस रिपोर्ट पर बयान मडिया में छपा है। महासचिव कहते हैं कि साल 2013 में जब यह रिपोर्ट छपी थी तब वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के कारणों के तौर पर पूरी तरह से मानव जनित कारणों को जिम्मेदार ठहराने से हिचक रहे थे। लेकिन इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने माना है जलवायु में हो रहे बदलाव के लिए पूरी तरह से मानव जनित कारण ही जिम्मेदार हैं। मौजूदा वक्त में दुनिया का औसत तापमान औद्योगिक काल के मुकाबले 1.2 सेंटीग्रेड पहले ही बढ़ चुका है। इसलिए अगर 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तापमान रखना है तो इसके लिए असंभव लगने वाले कोशिशों को अमल में लाना होगा। दुनिया के विकसित देशों के संगठन जैसे कि G 20 और ऑर्गेनाइजेशन आफ इकोनामिक डेवलपमेंट काउंसिल को अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी। यह योजना बनानी होगी की दुनिया के अधिकतर देशों की कोयले और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम हो। सौर और वायु ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों पर निर्भरता बढ़े।

सुनीता नारायण देश की जानी मानी पत्रकार हैं जो जलवायु जैसे मुद्दे पर लंबे समय से एक कार्यकर्ता की तरह काम करते आ रही हैं। डाउन टू अर्थ पत्रिका में वे लिखती हैं कि समुद्र भूमि और जंगल यह तीनों मिलकर जलवायु के सफाई तंत्र के तौर पर काम करते हैं। ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन सोंकने का काम करते है। पेड़ों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन पेड़ बड़ी मात्रा में कटे हैं। इसलिए रिपोर्ट बताती है कि आने वाले समय में हम इस पर भरोसा नहीं कर सकते कि यह तीनों मिलकर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को उसी तरह से सोकेंगे जिस तरह से वह सोकते आ रहे है। इनकी सोकने की क्षमता पहले ही अपने शीर्ष पर पहुंच चुकी है।

इसलिए शून्य उत्सर्जन वाली पहल पर भी फिर से सोचने की जरूरत है। खतरे की घंटी ऐसी है कि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन जैसे देशों को अधिक जिम्मेदारी से काम करना होगा।यह कौन नहीं जानता कि जलवायु परिवर्तन में बड़़ा हिस्सा कुछ मुटठी भर देशों का है। अमेरिका और चीन मिलकर दुनिया के कुल सालाना उत्जर्सन का आधा हिस्सा वहन करते हैं। अगर हम 1870 से 2019 के बीच उत्सर्जन को देखें तो इसमें अमेरिका और यूरोपीय संघ का योगदान 27 फीसद और ब्रिटेन, जापान और चीन का योगदान 60 फीसदी मिलता है। दूसरी ओर कार्बन डाइऑक्साइड को नियंत्रित करने के लिए इन देशों का बजट उस सीमा तक नहीं है, जितना उनका उत्सर्जन है। इसलिए इस बड़े अंतर को समझना जरूरी है, तभी हम यह जान पाएंगे कि वास्तव में हमें करना क्या है।

पर्यावरण जलवायु के मसले पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी की माने तो अगर तापमान बढ़ोतरी का यही रवैया चलता रहा तो इस सदी के अंदर तक औसत तापमान में तापमान में 3 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक की बढ़ोतरी हो सकती है। (पूर्व औद्योगिक काल के मुकाबले) 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ोतरी ढेर सारी खतरा पैदा करती है तो 3 डिग्री सेंटीग्रेड तो बहुत बड़ी तबाही ला सकती है। जहां तक भारत की बात है तो हिंदू कुश के ग्लेशियर का इलाका खतरे की श्रेणी में है। इसी पर भारत की नदियों की निर्भरता है। अगर यह खतरे में हुआ तो मामला खाद्यान्न संकट तक पहुंच सकता है। 

भारत की 50 फ़ीसदी से अधिक की खेती बारिश पर निर्भर है। भारत में 10,000 से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। 7500 किलोमीटर की समुद्री तट रेखा है। यानी भारत जलवायु परिवर्तन के लिहाज से बहुत अधिक संवेदनशील क्षेत्र है। समुद्रों का तापमान बढ़ेगा और जब जमीन और समुद्र के तापमान के बीच फासला बढ़ेगा तो चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ेगी। इसकी तीव्रता बढ़ेगी। मौसम में असंतुलन बढ़ेगा। इसकी सबसे बड़ी मार भारत की आबादी सहेगी जो सबसे अधिक गरीब है, जिसकी संख्या भारत में 25 करोड़ से अधिक है।

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