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राष्ट्र-निर्माण के वैकल्पिक कार्यक्रम और एजेंडा पर जन-गोलबंदी ही विपक्ष के अभियानों, यात्राओं की सफलता की कसौटी

संघ-भाजपा, विशेषकर मोदी-शाह जोड़ी के लिए यह do or die battle है। घटनाओं के पैटर्न से यह साफ है कि यह एक no holds barred लड़ाई होने जा रही है, जिसे जीतने के लिए वे कुछ भी उठा नहीं रखेंगे।
bharat jodo
22 अगस्त को दिल्ली में हुई भारत जोड़ो यात्रा बैठक का एक दृश्य। फ़ोटो साभार: ट्विटर

देश की राजनीति एक बेहद नाजुक चरण में प्रवेश कर गयी हैआज़ाद भारत के सम्भवतः सबसे फैसलाकुन आम चुनाव के लिए  एक तरह से count-down शुरू हो गया है और राजनीतिक बिसात बिछने लगी है। यह चुनाव महज नई सरकार का गठन नहीं करेगावरन इस देश में लोकतन्त्र की तकदीर तय करेगा। अब से लेकर 2024 तक की और उसके बाद की संभावनाओं को लेकर लोग तमाम आशंकाओं से घिरे हैंतो हाल में थोड़ी उम्मीद भी पैदा हुई है।

संघ-भाजपाविशेषकर मोदी-शाह जोड़ी के लिए यह do or die battle है और इसे हर हाल में जीतने के लिए उन्होंने सारे घोड़े छोड़ दिये हैं। घटनाओं के पैटर्न से यह साफ है कि यह एक no holds barred लड़ाई होने जा रही हैजिसे जीतने के लिए वे कुछ भी उठा नहीं रखेंगे।

गुजरात सरकार द्वारा 15 अगस्त के दिन जघन्य हत्याकांड और गैंग-रेप के अपराधियों की सजा-माफी और रिहाईजो दिल्ली से हरी झंडी के बिना सम्भव नहीं थी और उन सजायाफ्ता नृशंस अपराधियों के फूल माला पहनाकर स्वागत से पूरा देश shocked रह गया है। इंसाफइंसानियतसभ्यता के मूल्यों पर इससे बड़ा प्रहार हो नहीं सकता। बलात्कार और हत्या के साम्प्रदायीकरण का यह अभूतपूर्व मामला है।

गोधरा-कांड के बाद हुई  बर्बर मुस्लिम- विरोधी हिंसा के दौरान अंजाम दिए गए इस  कांड की CBI जांच हुई थी और आरोप सिद्ध होने के बाद इन अपराधियों को सजा मिली थीबाद में सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़िता को 50 लाख का मुआवजा भी दिलवाया था। (नौकरी तथा आवास देने को कहा था जो अब तक नहीं मिला।)

भले ही आड़ तकनीकी तौर पर नियम कानून की ली जा रही होलेकिन संघ-भाजपा के लोगों द्वारा ऐसे बर्बर अपराधियों के स्वागत-सत्कार और वहां के भाजपा विधायक द्वारा उन्हें संस्कारी होने के प्रमाणपत्र ने इसके पीछे के सारे राजनीतिक मन्तव्य को साफ कर दिया है।

दरअसलयह संदेश देने की कोशिश है कि हिंदुत्व के विजय अभियान में उसके वीर सैनिकों ने तब जो कार्रवाइयां कींउसके लिए केंद्र की तत्कालीन हिन्दू- विरोधी सरकार ने उन्हें सजा दिलवाई लेकिन अब भाजपा के हिन्दू-राज में न सिर्फ उन्हें छोड़ा जा रहा है बल्कि उनका अभिनन्दन किया जा रहा है।

यह एक तरह से मोदी के मुख्यमंत्रित्व के दौरान हुए उस पूरे घटनाक्रम को justify करने  की कोशिश है तथा इसका मकसद उस बर्बर मुस्लिम-विरोधी आक्रामकता की यादों को ताजा कर आसन्न गुजरात विधानसभा चुनाव में ध्रुवीकरण है।

कोई अचरज नहीं कि वहां बड़ी महत्वाकांक्षा  लेकर चुनावी मुहिम में उतरे अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी इस पूरे प्रकरण पर अवसरवादी चुप्पी साधे हुए हैं।

बहरहाल यह तो बस बानगी है जिससे समझा जा सकता है कि संघ-भाजपा आगामी चुनावों को जीतने के लिये किस हद तक जा सकते हैं। उनके desperation का ताजा उदाहरण है उस इकलौते टीवी चैनल का hostile take-over जहाँ आलोचना और असहमति के स्वर के लिए थोड़ा space अभी बचा रह गया था।

समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ भाजपा के शस्त्रागार का दूसरा सबसे बड़ा हथियार बन कर उभरा है "भ्रष्ट" विपक्षी नेताओं के खिलाफ एजेंसियों का इस्तेमाल। मोदी जी ने 15 अगस्त के अपने भाषण में साफ इशारा कर दिया कि वे भ्रष्टाचार और वंशवाद को चुनाव में विपक्ष के खिलाफ प्रमुख मुद्दा बनाने जा रहे हैंजाहिर है इसके लिए विपक्ष के अनेक चुनिंदा नेताओं के खिलाफ बड़ी कार्रवाइयां होंगीं। विपक्ष को मिलने वाले सम्भावित राजनीतिक लाभ की आशंका ही इससे उन्हें रोक सकती है।

बहरहाल इन कार्रवाइयों की विरोधी नेताओं को डरानेब्लैकमेल करने और राजनीतिक समर्पण के लिए मजबूर करने में चाहे जो भूमिका होपरन्तु इनकी जनता के बीच अब इस रूप में बहुत साख नहीं बची है कि यह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कोई पवित्र युद्ध चल रहा है और मोदी-शाह इसके मसीहा हैं। एजेंसियों के इस्तेमाल के over use ने अब इस हथियार को भोंथरा बना दिया है और महज विपक्ष के नेताओं के खिलाफ इनके selective इस्तेमाल ने इनकी विश्वसनीयता करीब करीब खत्म कर दी है।

इसीलिए नोटबन्दी के माध्यम से अमीरों के काले धन और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मोदी द्वारा युद्ध छेड़ने के दावे को आमगरीब जनता का जिस तरह समर्थन मिला थाअब वैसा शायद ही हो। यह इसलिये भी कि वह दौर मोदी से जनता की उम्मीदों के परवान चढ़ने का दौर थालेकिन आज उनके कार्यकाल के साल बीतने पर आम जनता महंगाईबेकारी और अनगिनत तकलीफों से जिस तरह दो चार हैउसमें अब उनसे कोई सकारात्मक उम्मीद शायद ही किसी को बची हो।

इस बदलते माहौल का ही प्रतिबिंम्ब है बिहार  का नाटकीय घटनाक्रम। इसने न सिर्फ बिहार के अंदर राजनीतिक शक्ति-संतुलन बदल दिया है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर यह नए सामाजिक राजनीतिक ध्रुवीकरण का उत्प्रेरक और प्रस्थान बिन्दु बन सकता है। बिहार में जिस तरह सभी प्रमुख राजनीतिक ताकतें- कांग्रेसवामपंथ तथा पुराने सोशलिस्ट-जनता दल धारा की पार्टियां-एक मंच पर आई हैं और 2024 में भाजपा को सत्ताच्युत करने की दिशा ले रही हैंवह आने वाले दिनों में पूरे देश के लिए मॉडल बन सकता है।

बिहार के घटनाक्रम ने पूरे देश में यह उम्मीद जगा दी है कि 2024 का चुनाव खुला हुआ है और मोदी-शाह के दमघोंटू राज से मुक्ति की संभावना अभी जिंदा है।

राजनीतिक विश्लेषकों ने क्षेत्रवारसीटवार भी आंकलन करके दिखा दिया है कि मोदी की 2024 में वापसी अब आसान नहीं है। देश के विभिन्न इलाकों में किसानों और नौजवानों समेत  विभिन्न तबकों के असंतोष के बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं- चाहे वह लखीमपुर से लेकर दिल्ली तक किसानों की हलचल हो या बेरोजगारी के खिलाफ दिल्ली से बिहार तक युवाओं  की बढ़ती पहल हो। आने वाले दिनों में महंगाईरोजगार समेत अन्य ज्वलंत जनमुद्दों तथा लोकतंत्र की रक्षा के सवाल को लेकर मोदी राज के खिलाफ व्यापक आधार वाले जनान्दोलन के हालात बन रहे हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा को नागरिक समाज के संगठनों ने भी समर्थन दिया है।

कुल मिलाकर यह सब मोदी राज से मुक्ति के लिए तमाम राजनीतिक ताकतों एवं सामाजिक समूहों की बड़ी  गोलबंदी का संकेत हैं जो व्यापक जनता की आकांक्षा का प्रतिबिंब है।

स्वाभाविक रूप से मोदी-शाह जोड़ी के अंदर असुरक्षा का एहसास गहराता जा रहा है। न सिर्फ विपक्ष बल्कि पार्टी के अंदर के मोदी और शाह के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को भी निर्ममता पूर्वक निपटाया जा रहा है। हाल ही में पुनर्गठित पार्लियामेंट्री बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से गडकरी और शिवराज चौहान को बाहर का रास्ता दिखाए जाने और योगी की एंट्री न होने देने को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है।

बहरहाल कुछ विपक्षी दल अभी भी महज सोशल इंजीनियरिंग और दलों के गठजोड़ के भरोसे हैंउन्हें लगता है कि महंगाई बेरोजगारी से परेशान जनता विपक्ष की झोली में आ ही जायेगी और इस तरह वैतरणी पार हो जाएगी। यह सोच कितनी सत्य से परे और आत्मघाती हैइसका सबसे बड़ा उदाहरण 2019 का आम चुनाव है।

वोटों और सीटों के अंकगणित से अधिक जनता के बीच राजनीतिक केमिस्ट्री का महत्व है। हम नहीं भूल सकते कि पुलवामा-बालाकोट के घटनाक्रम ने रातोरात देश के पूरे राजनीतिक माहौल को बदल कर रख दिया था। 2019 के चुनाव पूर्व के रफाल और रोजगार जैसे सरगर्म मुद्दे अचानक पृष्ठभूमि में चले गए थे और पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद जिसका सीधा परिणाम ध्रुवीकरण होता हैवह पूरे परिदृश्य में छा गया था। जब तक मोदी और शाह के हाथ सत्ता की कमान हैविपक्ष को न सिर्फ सामान्य चुनाव के लिए बल्कि असाधारण स्थितियों के लिए भी अपने को तथा समाज को तैयार करना चाहिए।

बिहार और UP के विधानसभा चुनाव भी इस दृष्टि से जरूरी सबक देते हैं जहां बेहद नजदीक पहुँचकर भी विपक्ष जीत से वंचित रह गया था। बिहार में रोजगार के सवाल ने जो काफी देर सेचुनाव अभियान के दौरान उठाया गया थाकरीब करीब बाजी पलट दी थीठीक इसी तरह UP में विपक्षी गठबंधन 36% वोट के साथ भाजपा गठजोड़ के 41% के बिल्कुल निकट पहुंच गया था।  लेकिन जनता की भारी बदहाली और असंतोष तथा सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद अंततः दोनों जगह भाजपा की जीत को नहीं रोक जा सका था।

जाहिर है जनता मोदीत्व के जिस मोहपाश में फंसी हैउसे  जनता के जीवन की बेहतरी तथा राष्ट्र-निर्माण के वैकल्पिक एजेंडा पर लोकप्रिय गोलबंदी ( popular mass mobilisation ) के बल पर ही परास्त किया जा सकता है।

मूल बात जो प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं कि नवउदारवादी नीतियां जो फासीवाद के इस पूरे उभार के मूल में हैंउन्हें बदले बिना न जनता के जीवन में कोई बदलाव होने वाला है न ही फासीवाद विरोधी लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंचने वाली है।

इसके खिलाफ piecemeal लड़ाई किसी मुकम्मल अंजाम तक नहीं ले जा सकती। यह एक पूरा पैकेज है। जैसे आज़ादी की लड़ाई जनता के आर्थिक सामाजिक सवालों पर प्रतिबद्धता के आधार पर ही विराट जन-गोलबंदी में सफल हुई थी और अंजाम तक पहुंची थीवैसे ही आज लोकतन्त्र की रक्षा और देश के नवनिर्माण की लड़ाई भी जनता के मूलभूत सवालों को वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रम के माध्यम से एड्रेस करते हुए ही परवान चढ़ सकती है,  केवल आंशिक मुद्दों के आधार पर नहीं। आने वाले दिनों में विपक्षी दलों और नागरिक समाज के आन्दोलनोंअभियानोंयात्राओं तथा गठबंधनों की सफलता की यही कसौटी होगी। 2024 के असाधारण चुनाव के लिए यह एक जरूरी रणनीति भी है और अभीष्ट भी।

 (लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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