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इतवार की कविता : 'पुनल तुम आदमी निकले...'

इतवार की कविता में आज पढ़िये सस्सी-पुन्नू की प्रेमकहानी पर नए ज़ाविये से लिखी इमरान फ़िरोज़ की यह नज़्म।
सस्सी-पुन्नू
त्रिलोक सिंह की कृति

सस्सी : इमरान फ़िरोज़

इंट्रोडक्शन : बुनियादी तौर पर यह नज़्म, हमारे दौर के feminism का नौहा है। और इसके लिए मैंने जब बा-क़ायदा तौर पे सोचना शुरू किया तो मुझे जो किरदार हमारी हिन्दुस्तानी तारीख़ में सबसे ज़्यादा अपील करता था, वो "सस्सी" का था। क्योंकि हमारी जितनी भी दास्तानें हैं, हीर राँझा, सोहनी महिवाल, मिर्ज़ा साहिबा... उन तमाम दास्तानों में आज की जो औरत है, उसके मसायल, जितने भी उसके pathos हैं, या जितने भी उसके ख़म हैं, उनकी सही manifestation सस्सी के किरदार में होती है।

इसका background ये है कि सस्सी भंभोर के शहर में पैदा होती है लेकिन इसके वालिद को बताया जाता है कि तुम्हारी ये बेटी तुम्हारी बदनामी का सबब होगी... तो जिस तरह से हज़रत मूसा का वाक़या है... इसे एक सन्दूक में बंद कर के वो बहा देते हैं और धोभीघाट का एक धोभी इसे उठा के adopt कर लेता है। वहीं से ये जवान होती है, बहुत ख़ूबसूरत होती है और बादशाह जो है वो ख़ुद इसका रिश्ता मांगता है धोबियों से लेकिन बाद में उसे पता चल जाता है कि ये उसकी बेटी है और वो दोबारा उसको महल में ले आता है। इसी दौरान वो कहानी शुरू होती है जो "सस्सी-पुन्नू" की लव स्टोरी है, लेकिन ये ज़्यादा अहम नहीं है। वो कहानी तो सबने सुनी होगी कि she was betrayed by Punnu और जब पुन्नू चला जाता है केच के शहर के तरफ़ तो ये उसके पीछे जा कर सेहरा में चलते हुए मर जाती है लेकिन जो कहानी है, जो myth है वो ये कहती है कि पुन्नू भी केच के शहर से आ कर सस्सी की क़ब्र पर ठहरता है और उसकी मौत भी वहीं पर होती है।
अब ये जो नज़्म है वो उस मंज़र से शुरू होती है जब पुन्नू उसके साथ धोखा करने के बाद केच के शहर से पलटकर उसकी क़ब्र में आता है।

पेश है इमरान फ़िरोज़ की यह नज़्म...

पुनल अब लौटना कैसा?
मुहब्बत ख़ानवादे के हरम में गड़ गई अब तो,
मेरे हर ख़्वाब पे मट्टी की चादर चढ़ गई अब तो,
मेरे इशवे मेरे गमज़े अदाएं मर गईं अब तो,
दुआएं मर गईं अब तो वफ़ाएँ मर गईं अब तो,
पुनल अब लौटना कैसा?

पुनल सहरा गवाही है,
ये साँसों की तनाबों पर तना ख़ैमा गवाही है,
हथेली की दरारों में छुपे आँसू गवाही हैं,
खनकती रेत में उलझे अटे गेसू गवाही हैं,
के मैंने इंतेहा तक इंतेहा से तुमको मांगा है

शहरों भंभोर के ख़स्ता मुहल्लों के फ़क़ीरों से,
सड़क पर बिछ गए हर दम दुआ करते ग़रीबों से,
यतीमों से ज़ईफ़ों से दिलों के बादशाहों से,
नियाज़ों में दुआओं में सदाओं में पुकारा है,
अमावस रात में उठ कर ख़लाओं में पुकारा है,
पुनल तुम क्यों नहीं आए?

पुरानी ख़ानक़ाहों में शहर के आस्तानों पर,
मज़ारों मस्जिदों में मंदिरों में देख लो जा कर,
कहीं तावीज़ लटके हैं, कहीं धागे बंधे होंगे,
कहीं दीवार पर कुछ ख़ून के छींटे पड़े होंगे,
पुनल मंज़र दुहाई हैं, ये सब इसकी गवाही हैं,
के मैंने बेनिशानी तक निशां से तुमको मांगा है।

तुम्हारे केच के रस्ते पे मैं हर शाम रुकती थी,
हर इक राह-रू के पैरों को पकड़ कर इल्तेजा करती,
के मेरा ख़ान लौटा दो, मेरा ईमान लौटा दो,
कोई हँसता कोई रोता कोई सिक्का बढ़ा देता,
कोई तुम्हारे रस्ते की मसाफ़त का पता देता,
वो सारे लोग झूठे थे सभी पैमान कच्चे थे,
पुनल तुम एक सच्चे थे, पुनल तुम क्यों नहीं आए?

पुनल भंभोर की गलियाँ, वो कच्ची ईंट की नलियाँ,
जिन्होंने ख़ादमाओं का कभी चेहरा नहीं देखा,
उन्होंने एक शहज़ादी का नौहा सुन लिया आख़िर,
धड़क जाती हैं वो ऐसे, अमावस रात में जैसे,
किसी ख़्वाबों में लिपटी माँ का बच्चा जाग जाता है,
वो सरगोशी में कहती हैं,
कि देखो भूख से ऊंचा भी कोई रोग है दिल का,
सुना करते थे के ये काम है बस पीर ए कामिल का,
के वो उलफ़त को मट्टी से बड़ा ऐजाज़ कर डाले,
ये किस गंदी ने अफ़शा ज़िंदगी के राज़ कर डाले,
पुनल मैं गंदी मंदी हो गई मैं यार की बंदी,
सो मेरी ज़ात से पाकीज़गी का खोजना कैसा?
पुनल अब लौटना कैसा?

ख़ुदा के वास्ते मत दो, ख़ुदा के पास बैठी हूँ,
रहीन-ए-ख़ाना-ए-कर्ब-ओ-बला के पास बैठी हूँ,
फ़लक इक आईना-ख़ाना जहाँ से रौशनी जैसी दुआएं लौट आती हैं,
ज़मीं संगलाख़ वीराना जहाँ पर जाने वाले लौट कर आते नहीं लेकिन सदाएँ लौट आती हैं,
ख़ुदा के वास्ते मत दो

पुनल आवाज़ मत देना,
मैं अब आवाज़ की दुनिया से आगे की कहानी हूँ,
मैं उन शहरों की रानी हूँ,
जहाँ मैं सोच के बिस्तर पे ज़ुल्फ़ें खोल सकती हूँ,
जहाँ मैं बेकरां राज़ों की गिरहें खोल सकती हूँ,
जहाँ पर वक़्त साकित है निगाह-ए-यार की सूरत,
जहाँ पर आशिक़ों के जिस्म से अनवार की सूरत,
मुहब्बत फूट कर इक बेकरां हाले में रक़्सां है,
मगर आवाज़ मत देना, कि हर आवाज़ सदमा है
पुनल आवाज़ मत देना

पुनल तुम आदमी निकले,
किसी हौआ की सूनी कोख से दूजा जनम लेकर भी तुम एक आदमी निकले,
मैं आदमजामज़ादी थी, मैं शहर-ए-आरज़ू की हसरत-ए-नाकाम ज़ादी थी,
मगर फिर भी पुनल तुम से, तुम्हारे दीदा-ए-गुम से,
मेरी चाहत ने जिस अंदाज़ से नज़र-ए-करम मांगा,
बताओ इस तरह इतनी रियाज़त कौन करता है?
बताओ ख़ाक से इतनी मुहब्बत कौन करता है?
तुम्हारे हर तरफ़ मैं थी, 
मेरी आवाज़ रक़्सां थी, मेरी ये ज़ात रक़्सां थी,
के जैसे फिर तवाफ़-ए-ज़िंदगी को ज़िंदगी निकले,
के जैसे घूम कर हर चाक पे कूज़ागरी निकले,
मगर तुम आदमी निकले, पुनल तुम आदमी निकले

पुनल वापस चले जाओ,
कहाँ इस ला-मकां नगरी में मातम करने आए हो,
पुनल ये रेत के ज़र्रे, ये ख़्वाहिश के फ़रिश्ते हैं,
जो अनदेखे परों के ज़ोम में टीलों के सीनों से,
उड़ानें चाहते हैं पार नीले आसमानों की,
उन्हें क्या इल्म के वो पार तेरे केच के जैसा,
ये ऊंटों की क़तारें, मेरे अश्कों की क़तारें हैं,
जो मेरे गाल के टीले के सेहरा से गुज़रती हैं,
तो मेरे दहन के सूखे कुएँ तक रेंग जाती हैं,
उन्हें क्या इल्म कि सूखा कुआं भंभोर के जैसा,
पुनल ये रेट के टीले, ये एहराम-ए-हक़ीक़त हैं,
न जाने कितने एहरामों तले क़ब्र-ए-मुहब्बत है,
कहाँ इस ला-मकां नगरी में मातम करने आए हो

तुम्हारे अश्क और नौहे यहाँ कुछ कर नहीं सकते,
उन्हें कहना जो कहते थे फ़साने मर नहीं सकते,
उन्हें कहना कि वो सस्सी जो आदमजामज़ादी थी,
जिसे दिल ने सदा दी थी जो अश्कों की मुनादी थी,
वो सस्सी हिज्र की रस्सी पे लटकी मर गई कबसे,
तलाक़ें ले के परदेसी सुहागन घर गई कब से,
यहाँ कोई नहीं रहता सिवाए रेग-ए-बिस्मिल के,
पुनल वापस चले जाओ

यहाँ अंधी हवाएँ ठोकरे खाती हैं टीलों से,
पता लेती हैं जाने कौन से बेनाम क़ातिल के,
यहाँ कोई नहीं रहता सिवाए रेग-ए-बिस्मिल के,
पुनल वापस चले जाओ...

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