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अगर बजट से ज़रूरी संख्या में रोज़गार निर्माण नहीं होता तो बजट का क्या मतलब है!

अधिकतर मेन स्ट्रीम मीडिया में बजट को लेकर अधिकतर वही बहस पेश की जाती है जहां जनता को सशक्त करने की बजाय उद्योग धंधे के मुनाफे पर अधिक गौर किया जाता है।
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Budget

देश के बजट पर विचार करने के दो तरीके हैं। पहला यह है कि सरकार की नजर से विचार किया जाए जिसमें जनता को किनारे कर उद्योग धंधों और आंकड़ों पर फोकस हो। और दूसरा यह कि जनता की नजर से विचार किया जाए जिसमें सरकार का सारा फोकस जनकल्याण पर हो। बिजनेस पत्रकारिता से जुड़े ज्यादातर लोगों का फोकस बजट पर विचार करने के पहले वाले तरीके से होता है। इसलिए अधिकतर मेन स्ट्रीम मीडिया में बजट को लेकर अधिकतर वही बहस पेश की जाती है जहां जनता को सशक्त करने की बजाय उद्योग धंधे के मुनाफे पर अधिक गौर किया जाता है। दुखद बात यह है कि उद्योग धंधे के मुनाफे से ही आम जनता के जीवन के हालात सुधर पाएंगे जैसी बहसें पूरी मीडिया जगत में छाई रहती हैं।

जबकि बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। हमारे देश में ही केरल राज्य है। केरल राज्य ने जनता को केंद्र में रखते हुए इस बार का बजट पेश किया है। अर्थव्यवस्था में मांग की संभावनाएं पैदा करने के लिए तकरीबन 8 लाख नए रोजगार के अवसर बनाने का ऐलान किया है। मनरेगा में काम करने के दिनों को 40 से 75 करने का फैसला किया है। राज्य के सबसे गरीब पांच लाख लोगों को सूचीबद्ध करने का फैसला किया है। कहने का मतलब यह है कि केरल ने जनता को सशक्त कर अर्थव्यवस्था को मजबूती देने की नीति पर अमल किया है। और अभी तक के सभी मानक बताते हैं कि केरल राज्य भारत में बड़ी धूमधाम से अपनी जनता का खेवनहार बना हुआ है। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर 1 फरवरी को पेश होने वाले साल 2021- 22 के भारत सरकार के बजट पर विचार करते हैं।

- भारत की अर्थव्यवस्था की कमर कोरोना से पहले ही पूरी तरह से लचक चुकी थी। कोरोना की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था पर भयंकर मार पड़ी। और अर्थव्यवस्था की लचकी हुई कमर पूरी तरह से टूट गई। साल 1980 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था संकुचन में चली गई। साल 2020 की पहली तिमाही में - 23.9 फ़ीसदी की आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई और दूसरी तिमाही में -7.5 फ़ीसदी की। साल 2020 की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से नकारात्मक वृद्धि की दौर से गुजरने वाली है। अनुमान है कि साल 2020 की आर्थिक वृद्धि दर -7.7 फ़ीसदी रह सकती है। मोटे शब्द में कहा जाए तो यह कि अगर भारत की कुल जीडीपी तकरीबन 200 लाख करोड़ रुपए की है तो 2020 में भारत की कुल जीडीपी महज तकरीबन 1 लाख 84 हजार करोड़ रुपए की रही।

- सबसे पहले बात करते हैं इंफ्रास्ट्रक्चर पर। कोरोना की महामारी ने भारत के स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे की असली हकीकत बता दी। कोरोना से दुनिया ने बहुत कुछ गहरा न सीखा हो लेकिन एक बात तो उसके सामने है कि स्वास्थ्य ढांचे होना बहुत जरूरी है। पिछले साल की बजट में साल 2020 से लेकर 2025 के बीच इंफ्रास्ट्रक्चर में तकरीबन 111 लाख करोड़ रुपए से 7300 प्रोजेक्ट की परिकल्पना की गई थी। यानी हर साल इस पर तकरीबन 20 लाख करोड रुपए खर्च होने की बात थी। लेकिन बजट से पिछले साल इसमें केवल 4.2 लाख करोड रुपए का आवंटन किया गया था। इसमें से भी अभी तक बहुत पैसा खर्च नहीं हुआ है। पूरा साल बंद रहा तो यह इलाका भी बंद रहा। अगर बुनियादी ढांचे से जुड़े क्षेत्र में सरकार अपने ही बजट के मुताबिक इस साल 20 लाख करोड रुपए खर्च करने का इरादा कर ले तो अच्छी खासी बुनियादी ढांचे भी तैयार हो जाएंगे और इससे बड़ी मात्रा में रोजगार भी निकल आएगा। पिछले 4 सालों में केवल सड़क बनाने से तकरीबन 50 करोड़ व्यक्ति दिवस का रोजगार मिला है। तो कहने का मतलब यह है की बुनियादी ढांचे में अगर ठीक से निवेश हो और ठीक से काम हो तो दैनिक मजदूरी पर काम करने वाली बहुत बड़ी आबादी को रोजगार मिलने की संभावना बनती है।

- भारत के एमएसएमई सेक्टर में तकरीबन 6 करोड़ छोटी बड़ी इकाइयां काम कर रहे हैं। कुल जीडीपी में इनका हिस्सा तकरीबन 29 फ़ीसदी का है। और तकरीबन 11 करोड़ लोगों का रोजगार का यह क्षेत्र है। चूंकि पूरी अर्थव्यवस्था की स्थिति गड़बड़ है इसलिए इस क्षेत्र की स्थिति भी गड़बड़ है। जानकारों का कहना है कि धीरे-धीरे यह भी पटरी पर आएगी। यहां की सबसे बड़ी समस्या पूंजी की कमी या बैंकों से कर्ज लेकर उस पर बैठ जाना है। रोजगार से जुड़े लोगों को खूब लाभ कमाने के चक्कर में न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी देना है। अगर इस क्षेत्र की गंभीर कमियों पर ईमानदार सरकारी हस्तक्षेप हो तो बहुत बड़ी मात्रा में रोजगार देने वाले इस क्षेत्र से लोगों की आमदनी में अच्छा खासा सुधार हो सकता है। साथ में अगर इमानदार माहौल बनता है तो बहुत बड़ी आबादी सरकारी नौकरी का लालच छोड़ क्षेत्र में उद्यमिता को अपनाने की राह पर बढ़ सकती है। 

-- विनिर्माण यानी मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े उद्योगों का आकार तकरीबन 32 करोड रुपए का है। कुल जीडीपी में इसका योगदान तकरीबन 16 फ़ीसदी का है। और इस क्षेत्र से तकरीबन 11 करोड लोगों का गुजारा होता है। अर्थव्यवस्था की पूरी सेहत पर इसकी सेहत निर्भर करती है। उदाहरण के तौर पर अगर लोगों की जेब में आमदनी होगी तभी वह गाड़ी खरीदेंगे। और आमदनी तभी होगी जब लाभ का बहुत बड़ा हिस्सा केवल नियोक्ताओं के पास न रहकर कर्मचारियों में बटेगा। कोरोना से पहले ही इस क्षेत्र में बहुत बड़ी कमी आई थी। गाड़ियां बिक नहीं रही थी।

बुनियादी ढांचा, सूक्ष्म लघु व कुटीर उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र की ऊपरी जानकारी से यह साफ है कि भारत में रोजगार के बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं। यह संभावनाएं तब पूरी तरह से फलीभूत नहीं होती हैं जब सरकार खुद को केवल इन क्षेत्रों को रेगुलेट करने तक के कामों से जोड़े रखती है। इन क्षेत्रों में अगर जनकल्याण को देखते हुए ईमानदार सरकारी हस्तक्षेप हो तो गरिमा पूर्ण वेतन और मजदूरी के साथ बहुत बड़ी मात्रा में रोजगार पैदा किया जा सकता है। मौजूदा समय में अगर लोगों की जेब में पैसा नहीं होगा तो वह खर्च नहीं करेंगे। और जब खर्च नहीं करेंगे तो अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिलेगी। लोगो की जेब में पैसा पहुंचाने का सबसे बड़ा जरिया यही है कि उन्हें गरिमा पूर्ण वेतन और मजदूरी पर काम दिया जाए। मानव संसाधन का इस्तेमाल किया जाए। 

मौजूदा समय में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकॉनमी के मुताबिक मौजूदा बेरोजगारी दर शहरों में 8.8 फ़ीसदी के पास पहुंच गई है और गांव में 9.2 फ़ीसदी के पास पहुंच गई है। 

सीएमआईई के अध्यक्ष महेश महेश व्यास के मुताबिक हर महीने भारत में तकरीबन 8 लाख लोग किसी भी तरह की नौकरी की खोज में निकलते हैं। यानी भारत को हर साल तकरीबन एक करोड़ नए नौकरी की जरूरत होती है। 

अगर सब कुछ पूरी तरह से निजी हाथों को सौंप दिया जाए तो इस जरूरत को पूरा करना बहुत मुश्किल है। वजह यह है कि भारत के ऊपर 10 फ़ीसदी लोगों के पास भारत की तकरीबन 50 फ़ीसदी से अधिक की संपदा है। यानी निजी करण केवल मुनाफा ही पालता रहता है। आम जनता को इससे फायदा नहीं पहुंचता। चरमराई हुई भारत की अर्थव्यवस्था बड़ी आसानी से पटरी पर आ सकती है। लेकिन इसके लिए पूरे सरकारी नजरिए का बदलना जरूरी है। प्रभात पटनायक जैसे बहुत सारे अर्थशास्त्रियों की राय है कि बिना लोगों की मांग बढ़ाएं अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आ सकती। और लोगों की मांग तभी बढ़ेगी जब लोगों के पास रोजगार और गरीब पूर्ण वेतन और मजदूरी हो। इसके लिए जिस तरह की नीति चाहिए वह मौजूदा सरकारी नीति से बिल्कुल अलग सोच की मांग करती है। क्या कोरोना जैसी महामारी के बाद पेश होने वाला भारत का बजट अपनी चिंतन की गहरी खामियों की तरफ देखेगा? यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन उम्मीद तो नाउम्मीदी के बराबर है। क्योंकि किसान संगठनों के मुताबिक कहा जाए तो सरकार अंबानी और अडानी की है

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