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इतवार की कविता : 'पितृपक्ष' विशेष

इतवार की कविता में और 'पितृपक्ष' के समय आज पढ़िये वीरेन डंगवाल की कविता पितृपक्ष…
पितृपक्ष
सौजन्य : प्रभात ख़बर

इतवार की कविता में और 'पितृपक्ष' के समय आज पढ़िये वीरेन डंगवाल की कविता पितृपक्ष...

पितृपक्ष / वीरेन डंगवाल 

मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर

तुम्हारे छज्जे पर

पूड़ी और मीठे कद्दू की सब्ज़ी के लालच में

टेरूँगा नहीं तुम्हें

न कुत्ता बनकर आऊँगा तुम्हारे द्वार

रास्ते की ठिठकी हुई गाय

की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा

वत्सल उम्मीद की हुमक के साथ

 

मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर

नमी बनकर

जिसके स्पर्श मात्र से

जाग उठता है जीवन मिट्टी में

 

कभी-कभी विद्रूप से भी भर देगी तुम्हें वह

जैसे सीलन नई पुती दीवारों को

विद्रूप कर देती है

ऐसा तभी होगा जब तुम्हारी इच्छाओं की इमारत

बेहद चमकीली और भद्दी हो जाएगी

पर मैं रहूँगा हरदम तुम्हारे भीतर पक्का

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