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जानिए : क्या है धारा-7 और सरकार और आरबीआई विवाद का पूरा सच

आप जानते हैं कि क्या है धारा-7 और सरकार इसके इस्तेमाल पर क्यों आमादा है? आरबीआई को लेकर सरकार ने जिस विशेषाधिकार का आज़ादी के बाद से कभी प्रयोग नहीं किया, उसका मोदी सरकार क्यों प्रयोग कर रही है?
आरबीआई विवाद। सांकेतिक तस्वीर

जब चुनाव में अरबों-खरबों फूंककर सरकारें बनती और बिगड़ती हैं तब यह मुश्किल हो जाता है कि देश की वे संस्थाएं जो आर्थिक कामकाज की देखभाल करती हैं, वह सरकारों के हस्तक्षेप या रोक-टोक के बिना काम कर पाएं। बैंकों की निगरानी करने वाली संस्था यानी रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (आरबीआई) भी इसका अपवाद नहीं है, लेकिन मोदी सरकार ने जो किया है वो अभूतपूर्व है। मोदी सरकार ने आजादी के बाद से लेकर अभी तक इस्तेमाल नहीं की गई आरबीआई आधिनियम की धारा 7 का पहली बार उपयोग किया है। 

क्या है धारा-7? 

वैधानिक तौर पर आरबीआई सरकारी हस्तक्षेप के बिना काम करने वाली स्वायत्त संस्था है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। परोक्ष रूप से सरकार आरबीआई के कामकाज में हस्तक्षेप करती रहती है।  आरबीआई के पूर्व गवर्नर रेड्डी ने एक बार मजाक में कहा था कि ‘हाँ मैं आजाद हूँ और आरबीआई एक स्वायत्त संस्था है लेकिन यह बात भी मैं वित्त मंत्री की अनुमति लेने के बाद कह रहा हूँ।’ 
आरबीआई अधिनियम की धारा-7 सरकार को यह अनुमति देती है कि वह जनहित में आरबीआई को अपने निर्देशों के आधार पर काम करने के लिए कहे। आजादी से लेकर अब तक इस धारा का इस्तेमाल नहीं किया गया था। जिसका मतलब यह था कि यह कहा जा सकता था कि आरबीआई की स्वायत्तता के साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है, लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि आरबीआई की आजादी को खुले तौर पर हड़पने की कोशिश की जा रही है। 

आखिरकार धारा-7 का इस्तेमाल क्यों ? 

पिछले हफ्ते आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विमल आचार्या ने केन्द्रीय बैंक के कामकाजी आजादी पर जोर देते हुए अपनी बात रखी, जिसका सीधा मतलब था कि सरकार आरबीआई के कामकाज में अड़ंगा लगा रही है। कुछ ऐसी ही बात आररबीआई के वर्तमान गवर्नर उर्जित पटेल भी कर चुके हैं। 
यहाँ यह गौर करने वाली बात होगी केंदीय बैंक के यह दोनों उच्च अधिकारी मोदी सरकार के दौरान नियुक्त किये गये अधिकारी हैं। और दोनों इस समय अपने लिए नहीं बल्कि आरबीआई की तरफ से बोल रहे हैं। 
विमल आचार्या ने अपनी बात रखते हुए कहा कि केन्द्रीय बैंक की आजादी को कम करना जोखिम से भरा है, इसका परिणाम बहुत कष्टकारी हो सकता है। पूंजी बाजार पर भरोसा कम हो सकता है। जो सरकार केंद्रीय बैंक की आजादी का सम्मान नहीं करती है उसे वित्तीय बाजार के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। आरबीआई की तरफ से जाहिर किया गया यह बहुत गंभीर गुस्सा था। अब सवाल उठता है कि आरबीआई ने ऐसा कहा क्यों और आरबीआई और सरकार के बीच चल रहे झगड़े का कारण क्या है? 

कारण नंबर 1 : पब्लिक सेक्टर बैंक की निगरानी 

पब्लिक सेक्टर यानी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की निगरानी करने की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय और आरबीआई दोनों की होती है। आरबीआई जिस तरह से प्राइवेट बैंक की निगरानी कर सकता है, वैसी निगरानी करने की अधिकारिता सरकारी बैंकों के लिए नहीं होती है। प्राइवेट बैंक द्वारा नियमों के उल्लंघन पर आरबीआई चाहे तो बैंक के प्रबंधन बोर्ड को बदल सकता है, बैंक का लाइसेंस खारिज कर सकता है, लेकिन सरकारी बैंकों के लिए इस तरह का कोई कदम उठाने का अधिकार आरबीआई के पास नहीं होता है। इसका मतलब यह है कि पिछले हफ्ते वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा की गयी यह आलोचना कि पब्लिक सेक्टर बैंक में बढ़ते हुए एनपीए के लिए आरबीआई जिम्मेदार है, किसी भी तरह से सही आलोचना नहीं मानी जा सकती है। उल्टा यह कहा जा सकता है कि सरकार खुद की नाकामी से बचने के लिए ऐसा बयान दे रही है जिससे आरबीआई के साख को नुकसान पहुंचता है। असलियत यह है कि निजी बैंक जब बाजार के नियम का उल्लंघन करते हैं, बढ़ते हुए कर्ज के संकट से उबरने के लिए आरबीआई द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन करते हैं तो आरबीआई उनपर कठोर दंड लगा देता है। सरकारी बैंकों के साथ ऐसा नहीं होता है। सरकारी बैंकों का मालिकाना हक सरकारों के पास होता है। सरकार के पास मालिकाना हक होने के कारण जनता का भरोसा सरकारी बैंक में बना रहता है और इस भरोसे का इस्तेमाल कर सरकार जिस तरह से चाहती है उस तरह से सरकारी बैंक को चलाती है। सरकारी बैंकों के लिए यह लचीलापन ठीक है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सरकारी बैंकों के लिए नियमों को धड़ल्ले से ताक पर रख दिया जाए और अर्थव्यवस्था को संकट की तरफ धकेल दिया जाए।

कारण नंबर 2 : पीसीए को कमजोर करना

बीमार बैंकों को सुधार पर राह पर जल्दी से चलाने के लिए आरबीआई द्वारा कुछ तरीके अपनाने का आदेश दिया जाता है। बीमार बैंक का यहाँ अर्थ उन बैंकों से है जिनके बैलेंस शीट की स्थिति बहुत खराब है यानी इनके द्वारा दी गयी कर्ज की राशि बढ़ रही है और इसकी उगाही नहीं हो पा रही है। कुल-मिलाकर इन बैंकों की वित्तीय स्थिति बहुत अधिक खराब है। आरबीआई ऐसे बैंकों को बचाने के लिए इन्हें बाजार में नये कर्ज देने से मना करता है। ऐसे ही तरीकों को आरबीआई का बैंकों के लिए प्राम्प्ट एंड करेक्टिव मिजर (PCA) कहा जाता है। इस समय पब्लिक सेक्टर के तकरीबन 11 बैंकों के साथ आरबीआई सुधार के यह उपाय अपना रही है और सरकार का कहना है कि आरबीआई इन बैंकों पर लगाये गये प्रतिबंधों को हटाए। इन पर प्रतिबन्ध लगाने से आर्थिक विकास रुक रहा है। इस पर विमल आचार्या ने अपने वक्तव्य में कहा की इन प्रतिबंधों को हटा लेने से कम अवधि में भी वित्तीय हालत की खस्ताहाली दिखेगी और लम्बी अवधि में भी डूबे हुए कर्जों का ढेर लग जाएगा, जिनसे इनसे बचने के लिए सरकार जनता पर बहुत अधिक कर लगाना शुरू कर देगी और अर्थव्यवस्था की क्षमता में भी कमी आएगी।

कारण नंबर 3 :  इ-पेमेंट तंत्र की निगरानी कौन करेगा?

इ-पेमेंट यानी डिजिटल तरीके से पैसे के लेन-देन के तरीके। इनसे जुड़े उपक्रम जैसे पेटीएम आदि की निगरानी कौन करेगा? इस पर निगरानी तय करने के लिए भारत सरकार ने एक कमेटी गठित की थी। इस कमेटी का सुझाव है कि इसपर निगरानी करने वाली संस्था आरबीआई से अलग होनी चाहिए। आरबीआई की इस पर घोर आपत्ति है। आरबीआई का कहना है कि जब सारे पेमेंट सिस्टम बैंकों से जुड़े हुए हैं तो इनपर निगरानी का अधिकार भी उसी संस्था को मिलना चाहिए जो बैंकों पर निगरानी करती है। यह एक जरूरी सहक्रिया का हिस्सा है। यह होने पर ही पेमेंट तंत्र पर जनता का भरोसा बढेगा।

कारण नंबर 4  :  डूबे हुए कर्ज से बचने के लिए नियमों का पालन

साल 2018 की शुरुआत में ही आरबीआई ने बैंकों के लिए डूबे हुए कर्ज से बचने के लिए कुछ नियम बनाए थे और बैंकों को आदेश दिया था कि अगर बड़े कॉरपोरेट घराने कर्ज लौटाने में उन नियमों का अगर एक दिन भी उल्लंघन करते हैं तो उनके साथ उन नियमों का कठोरता से पालन किया जाए। सरकार का कहना है कि इन नियमों में छूट दी जाए। इन नियमों को कठोर ढंग से अपनाने पर पॉवर सेक्टर में काम करने वाले सीधे तौर पर निशाने पर आते हैं। जबकि ये आरोप खुले तौर पर लगते रहे हैं कि पॉवर सेक्टर के अडानी और अम्बानी जैसे उपक्रमों की सरकार के साथ सांठगांठ रहती है और बैंक इनपर पूरी तरह से मेहरबान रहते हैं।

कारण नंबर 5 : रिजर्व बैंक की नकद पूंजी पर किसका अधिकार? 

अपने पास रखे बॉन्ड पर मिलने वाले ब्याज की वजह से रिज़र्व बैंक के पास अच्छी खासी नकद राशि होती है। इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है। पूरी दुनिया के केन्द्रीय बैंक की तरह ही भारत के केन्द्रीय बैंक के पास भी एक अच्छी खासी राशि है। नोटबंदी के समय इसी राशि में से तकरीबन 30 हजार करोड़ रुपये रिज़र्व बैंक ने सरकार को दिए थे। रघुराम राजन इस पर खुश होते हुए कहते थे कि जितना ज्यादा सहयोग हमने किया है उतना ज्यादा सहयोग पिछले एक दशक में रिजर्व बैंक की तरफ से नहीं किया गया यानी इतनी बड़ी राशि रिजर्व बैंक की तरफ से सरकार को कभी नहीं दी गई। अब कहा जा रहा है कि सरकार रिज़र्व बैंक के पास रखी और नकद राशि को मांग रही है। विरल आचार्या का कहना है कि सरकार की तरफ से तकरीबन साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये की मांग की जा रही है। यानी रिज़र्व बैंक के हक पर सरकार अपना अधिकार चाहती है।
अब बात करते हैं कि आखिरकार इस अधिकार को हासिल करना गलत क्यों है? रिज़र्व बैंक अपने रोजाना के कामकाज को सही तरह से करने के लिए, विदेशी मुद्रा का नियमन करने के लिए, बैंकिंग संकट आने पर बैंकों का सहारा बनने के लिए, किसी बैंक का दिवालिया निकलने पर उस बैंक की सहायता करने के लिए इन पैसों का इस्तेमाल करती है। कहने का मतलब यह है कि केन्द्रीय बैंक अपने नियमों-कानून की वजह से बैंकों का बैंक जरूर कहा जाता है लेकिन इसकी साख या बैंकों का बैंक होना इस बात पर निर्भर होता है कि अर्थव्यवस्था में संकट आने के समय या बैंकिंग संकट आने के समय इन्हीं पैसों से सहायता की जाती है। इस तरह यह पैसे भारतीय अर्थव्यवस्था में साख बनाये रखने के लिए जरूरी हैं। सरकार के हाथ में इन पैसों के चले जाने का मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था की साख पर बट्टा लगा देना।
सरकार और आरबीआई के बीच चल रहे इन विवादों ने इतना बड़ा रूप ले लिए था कि सरकार ने आरबीआई अधिनियम के उस धारा का इस्तेमाल कर दिया जिसका आजादी के बाद से लेकर आज तक कभी इस्तेमाल नहीं किया गया था। धारा 7 यानी आरबीआई का निदेशक मंडल सरकार के निर्देश पर काम करेगा। 
समझा जा सकता है कि चुनाव नजदीक हैं, सरकार परेशान है। उसे और पैसा चाहिए, और ताकत चाहिए। और इसके बीच में सीबीआई या आरबीआई जो भी आएगा तो उसे बर्बाद कर दिया जाएगा! सरकार शायद यही संदेश देना चाहती है। 

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