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जेएनयू और बाकी देश : अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं, लेकिन...

जेएनयू देश नहीं है, लेकिन जेएनयू कोई अलग-थलग द्वीप या टापू भी नहीं है। वरना क्या वजह है कि एक तयशुदा हार के बाद भी एबीवीपी जो आरएसएस का छात्र संगठन है, इस कदर बौखलाया है कि हमले पर उतारू है।
2019 elections

“असली लड़ाई तो जेएनयू से बाहर लड़ी जाएगी”, आज ये बात कहना एक अधूरा वक्तव्य और आधा सच है। जेएनयू पर एक बार फिर हमले से अब ये तय हो गया है कि लड़ाई जेएनयू के भीतर और बाहर दोनों जगह है। इसलिए कोई मोर्चा खाली नहीं छोड़ा जा सकता। जेएनयू पर फरवरी 2016 में जो हमला शुरू हुआ वो आज तक जारी है। और छात्र संघ चुनाव बाद हुआ ये ताज़ा हमला ये बताने के लिए काफी है कि भीतर की लड़ाई भी कितनी महत्वपूर्ण है।

जेएनयू देश नहीं है, लेकिन जेएनयू कोई अलग-थलग द्वीप या टापू भी नहीं है। वरना क्या वजह है कि एक तयशुदा हार के बाद भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का छात्र संगठन है, इस कदर बौखलाया है कि हमले पर उतारू हैं और विश्वविद्यालय प्रशासन भी हिंसा करने वाले तत्वों पर कार्रवाई करने की बजाय उन्हीं के साथ खड़ा दिख रहा है। साफ है ये सब अचानक या अनायास नहीं है। न सिर्फ ये छात्र संघ चुनावों में हार की बौखलाहट का नतीजा है, बल्कि ये एक सोची-समझी योजना का हिस्सा है जिसके तहत एक प्रगतिशील लोकतांत्रिक संस्थान जिसकी साख दुनियाभर में है उसे बर्बाद किया जाना है। बंद किया जाना है। क्योंकि वहीं से उनके खिलाफ केवल युवा ही नहीं, नये विचार भी निकल रहे हैं जो पुरातनपंथी मनुवादी विचारधारा से मेल ही नहीं खाते बल्कि उसे खुलेआम चुनौती भी देते हैं। ये सब आरएसएस के उसी ब्राह्मणवादी ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना के विरुद्ध जाता है और “अपनी सरकार” होने के बाद भी ये सब जारी रहे इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है!इसलिए 2016 के बाद से हमलों का जो सिलसिला जारी रहा वो न केवल बदस्तूर जारी है बल्कि आगे भी जारी रहने वाला है।

जेएनयू की परंपरा और छात्र-शिक्षक जेएनयू को बचा लेंगे इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए, लेकिन उसके बाहर देश को बचाने की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या इसी नीति और रणनीति के तहत देश बच पाएगा जो जेएनयू में अपनाई गई। जेएनयू के भीतर लेफ्ट यूनिटी तो हुई लेकिन बिरसा-आंबेडकर-फूले स्‍टूडेंट एसोसिएशन (बापसा) और छात्र राजद जैसी ताकतें अलग-अलग रहीं। कांग्रेस का छात्र संगठन भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआई) तो पहले से अलग चुनाव लड़ता ही है। लेकिन इसके बाद भी छात्रों ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए एबीवीपी को एक काउंसलर से ज्यादा जगह नहीं दी। लेकिन क्या जेएनयू के बाहर भी आरएसएस और बीजेपी से लड़ने के लिए यही रणनीति कारगर हो पाएगी?

2019 की लड़ाई के लिए विपक्ष महागठबंधन की बात तो कर रहा है लेकिन उसका कोई रोडमैप नहीं दिखाई दे रहा। कांग्रेस के बड़े नेता बयान देते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन जैसा कुछ भी नहीं है। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल पिछले दिनों एक टीवी इंटरव्यू में कहते हैं कि अलग-अलग राज्यों के स्तर पर गठबंधन किया जा सकता है। केंद्र की सरकार जिसका रास्ता लखनऊ और पटना से जाता है में भी स्थिति बहुत साफ नहीं है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव गठबंधन के लिए कोई भी कुर्बानी करने को तैयार हैं लेकिन मायावती इसके लिए तैयार नहीं दिखती। सोमवार को एनडीटीवी के एक विशेष कार्यक्रम में अखिलेश यादव कहते हैं कि गठबंधन के लिए उन्हें दो कदम पीछे भी हटना पड़े तो वे हिचकेंगे नहीं, लेकिन इससे पहले बहजुन समाज पार्टा (बीएसपी) की मुखिया मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहती हैं कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही समझौता या गठबंधन किया जाएगा, अब ये सम्मानजनक सीटों का अर्थ या फार्मूला क्या है, कहना मुश्किल है। इसी के साथ वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पुराने अंदाज में बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस की भी आलोचना करती हैं। यानी 2018 के अंत में भी दोनों से अपनी समान दूरी दिखाती हैं।

उधर जहां अखिलेश समान विचारधारा और सामाजिक बदलाव वाले नये संगठन या नेता जैसे जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर आज़ाद आदि का भी स्वागत करने को तैयार दिखते हैं, वहीं मायावती ऐसा बड़ा दिल नहीं दिखाती। वे दलित उभार के नये प्रतीक भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद को लेकर भी एक दूरी बरतती दिखती हैं। जबकि चंद्रशेखर ने जेल से बाहर आते ही महागठबंधन को सहयोग और समर्थन देने की घोषणा की और मायावती के बारे में पूछने पर उन्हें अपनी बुआ कहते हुए सामाजिक रैलियों के द्वारा उनके ऊपर गठबंधन  में शामिल होने के लिए दबाव बनाने की बात कही लेकिन मायावती को उनसे बेहद परहेज है और वे कहती हैं कि चंद्रशेखर से उनका कोई रिश्ता नहीं है। भीम आर्मी और चंद्रशेखर को लेकर उनका पहले भी यही रवैया रहा और आज बदली हुई परिस्थिति में भी वही है।

उधर लेफ्ट यानी वामपंथ अपनी भूमिका एक संघर्षशील सैद्धान्तिक एकता के तौर पर देखता है। उसके लिए केवल सीटों के आधार पर चुनावी गठबंधन या जोड़-तोड़ महत्वपूर्ण नहीं है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) की पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि अलग-अलग प्रदेशों के स्तर पर गठबंधन बन सकता है, राष्ट्रीय स्तर पर किसी गठबंधन जैसी बात अभी नहीं है। उन्होंने कहा कि हां, इतना ज़रूर ध्यान रखा जाएगा कि बीजेपी को सरकार से हटाने के लिए वोट का बंटवारा न होने पाए।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी-लेनिनवादी यानी सीपीआई-एमएल की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन का भी यही कहना है कि एक व्यापक एकता ज़रूरी है लेकिन अलग-अलग राज्यों को अलग-अलग देखना होगा। उन्होंने कहा कि यूनिटी या एकता का मतलब जोड़-तोड़ नहीं होता, जोड़-तोड़ या सिर्फ चुनावी गठबंधन का नतीजा लोगों ने बिहार में देखा जहां महागठबंधन में शामिल नीतीश जी की जेडीयू फिर एनडीए में चली गई। इसलिए लेफ्ट केवल अंकगणित के जोड़-घटाव की एकता की बजाय फासीवाद के विरोध में सामाजिक और राजनीतिक हर मोर्चे पर एक सैद्धान्तिक और वैचारिक संघर्षशील एकता का पक्षधर है।

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