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लिव-इन रिश्तों पर न्यायपालिका की अलग-अलग राय

विभिन्न उच्च न्यायालयों एवं उसी उच्च न्यायालय की समकक्ष पीठों द्वारा हाल के दिनों में लिए गए असंगत न्यायिक फैसले, जबकि कुछ मामलों में लिव-इन रिश्तों में व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करने के संबंध में फैसले लिए जाने मामलों पर रोशनी।

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विभिन्न उच्च न्यायालयों के साथ-साथ उसी उच्च न्यायालय की समकक्ष पीठों द्वारा कुछ मामलों में लिव-इन रिश्तों में रह रहे व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करने के संबंध में लिए गए हालिया असंगत न्यायिक स्थितियों के आवेग की रौशनी में ईशान चौहान और प्रीतेश राज बताते हैं कि कैसे सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ विभिन्न वैधानिक प्रावधान इस प्रकार के रिश्तों की वैधता के बारे में पूरी तरह से स्पष्ट हैं और व्यक्ति के बिना किसी हस्तक्षेप के चुनने की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।

घर एक ऐसी अवधारणा है जो समाज को उसकी जड़ों से जोड़े रखता है, लेकिन हमारी तेजी से बदलती इस दुनिया में घर की बुनियादी परिभाषा ही लगातार मंथन की अवस्था से गुजर रही है। अब यह अनिवार्य रूप से उस परिवार के बारे में ही नहीं सुझाता जिसके सदस्य वैवाहिक बंधन से ही बंधे हों। इस मुद्दे पर अभी तक जो कानून काम करते आये हैं, वे बदलती हवा के झोंकों से अछूते रहे हैं, जबकि परिवार को लेकर अवधारणा ही व्यापक हो चुकी है।

लिव-इन रिलेशनशिप ने हाल के दिनों में सहस्राब्दी के युवाओं के बीच में अच्छी-खासी पैठ हासिल कर ली है, जो इसे एक विकल्प के तौर पर पसंद करते हैं या इसे वैवाहिक दिशा में एक अंतिम कदम मानते हैं।

हालाँकि, इस तथ्य के बावजूद कि लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा कम से कम महानगरीय शहरों में समाज का अंग बन चुकी हैं, देश भर में मौजूद विभिन्न न्यायालयों ने आमतौर पर इस प्रकार के रिश्तों को मान्यता देने से इंकार करते हुए रुढ़िवादी तरीके से व्यवहार किया है। यह अंततः ऐसे संबंधों में रह रहे जोड़ों के दावों और स्वतंत्रता के अधिकार में अतिक्रमण में तब्दील हो जाता है।

यहाँ पर हम व्यक्तिगत स्वायत्तता के मसले को एक सिद्धांत के तौर पर मान्यता देने और यह जमीन पर कैसे काम करता है, इसके बीच के विरोधाभास की तह में जाने का प्रयास करेंगे।

उच्च न्यायालयों की अलग-अलग राय  

लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे व्यक्तियों द्वारा सुरक्षा के लिए आवेदन करने पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की एक एकल पीठ ने हाल ही में कहा था कि, 

“लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा हो सकता है कि सभी को स्वीकार्य न हो, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि इस प्रकार रिश्ता अवैध है या विवाह की पवित्रता के बगैर साथ रहना एक प्रकार का अपराध है।”

कुछ इसी तरह के प्रस्ताव को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की एक अन्य समकक्ष पीठ और जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा दोहराया गया था। इसमें किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद के दावे का इस्तेमाल करने के अधिकार की स्वतंत्रता और गरिमा को उसके मौलिक अधिकारों से अविभाज्य रूप में जुड़े होने का समर्थन किया गया था।

हालाँकि, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की ही एक समकक्ष पीठ ने कुछ दिन पहले इसी प्रकार के एक जोड़े को निम्नलिखित आधार पर सुरक्षा देने से इंकार कर दिया था:

“इस पीठ के सुविचारित दृष्टिकोण में जैसा कि दावा किया गया है यदि इस प्रकार की सुरक्षा प्रदान की जाती है तो समाज का समूचा सामाजिक ताना-बाना ही गड़बड़ा सकता है।”

एक ही उच्च न्यायालय की समकक्ष पीठों के फैसले एक दूसरे से पूरी तरह से विपरीत दिशा में दिए गए हैं। इससे न्यायिक फैसले संबंधी प्रक्रिया लंबी खिंचने के साथ-साथ संदिग्ध प्रकृति की हो जाती है। जिन्होंने लिव-इन रिश्तों में रहने को अपनाया है, ऐसे व्यक्तियों को सामाजिक मानदंडों एवं पारिवारिक अपेक्षाओं का उल्लंघन करने पर सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी आखिरकार अदालतों पर ही है।

ऐसी परिस्थितियों में देश भर में उच्च न्यायालयों के द्वारा मुक्तलिफ़ विचारों को प्रतिपादित करने से इस मुद्दे पर अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई है और कोई ठोस न्यायिक घोषणा इस मामले को शांत नहीं कर पा रही है।

यहाँ तक कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी एक हाल के फैसले में अपना मत दिया था कि भारत एक रुढ़िवादी समाज है जहाँ पर लड़कियां आमतौर पर भविष्य में विवाह होने की संभावना के बगैर कामुक गतिविधियों में लिप्त नहीं होती हैं। यदि इस प्रकार का दृष्टिकोण लिया जाता है तो नतीजा भी कुछ वैसा ही देखने को मिलेगा जैसा कि पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा बाद वाले फैसले में लिव-इन रिलेशनशिप को ठुकरा दिया गया था।

हमारे विचारों और उनपर आगे चलकर किये गए कार्यों की वैधता समाज की समग्र सहमति से उपजती है, जो या तो इसे स्वीकार करती है या इसे कुछ शर्तों के साथ ख़ारिज कर देती है या पूरी तरह से अस्वीकार कर देती है। इसलिए, सामाजिक मानदंडों में बदलाव के साथ, क्रियान्वयन की वैधता में एक ढांचागत बदलाव आया है। किसी समय जिस पर भौहें तरेरी जाती थीं, उस लिव-इन रिलेशनशिप की प्रथा को अब शहरी भारत में सहवास की एक सामान्य प्रथा के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है।

ऐसी परिस्थितयों में, उच्च न्यायालयों के मुक्तलिफ़ विचारों को जनता द्वारा विवाह की पुरातन धारणा के अनुरूप बिना किसी औपचारिक संबंधों के अपनी पसंद के व्यक्तियों के साथ सहवास करने के अधिकार पर अतिक्रमण करने के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है। 

यह दुविधा की स्थिति परस्पर विरोधाभासी फैसलों से निकलकर आ रही है जिसने न सिर्फ आम आबादी के बीच में अराजकता की स्थिति को पैदा कर दिया है बल्कि कानून को लागू कराने वालों के बीच में भी ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। इसके अलावा इसने एक ऐसी उथल-पुथल की स्थिति भी पैदा कर दी है जिसमें क़ानूनी बारीकियों से अनजान नागरिक अनिश्चय की स्थिति में हैं कि लिव-इन रिलेशनशिप को कानून के तहत मान्यता दी भी गई है या नहीं।

भारत में लिव-इन रिश्तों से संबंधित संवैधानिक एवं वैधानिक प्रावधानों का विश्लेषण 

लिव-इन रिलेशनशिप को अभी तक भारतीय कानूनों के तहत परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए, ऐसे संबंधों में रहने वाले व्यक्तियों पर कोई विशिष्ट अधिकार या दायित्व तय नहीं होता है जो इसी प्रकार की विशिष्ट स्थितियों में शामिल हैं। भारतीय विधाई शक्तियों के लिए लिव-इन रिलेशनशिप अभी भी एक विदेशी अवधारणा बनी हुई है, जिसके बारे में अभी तक संसद या राज्य विधानसभाओं की चारदीवारियों के भीतर बेहद कम या कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ है।

किसी व्यक्ति का लिव-इन रिश्ते में रहने का फैसला, अपनी समग्रता में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और 21 के प्रावधानों को आकर्षित करता है, जो क्रमशः किसी व्यक्ति की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता की आजादी के अधिकार को प्रतिपादित करता है। राज्य मशीनरी द्वारा किसी भी प्रकार की कार्यवाई जो व्यक्तियों के लिव-इन रिश्तों में जाने की क्षमता में हस्तक्षेप करता है, वो चाहे स्पष्ट तौर पर हो या चूक के तौर पर हो, एक प्रकार से किसी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।

सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार किसी भी व्यक्ति की निजता के अधिकार की रक्षा के महत्व को दुहराया है। ऐसे एक फैसले को 1994 में पीछे जाकर देखा जा सकता है, जब शीर्षस्थ अदालत ने कहा था कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 द्वारा इस देश के नागरिकों को गारंटीशुदा जीवन एयर स्वतंत्रता के अधिकार के साथ जुड़ा हुआ है, और यह अपने भीतर “अकेले छोड़ दिए जाने के अधिकार” को शामिल करता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी भी नागरिक को अन्य मामलों के अलावा अपने खुद की, परिवार, विवाह, संतानोत्पत्ति एवं मातृत्व की गोपनीयता की रक्षा करने का अधिकार है।

2018 के कॉमन कॉज मामले में हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसले में इस बात को संक्षेप में कहा गया था कि:

“निजता की सुरक्षा का दायरा कुछ ऐसे फैसलों को शामिल करता है जो मानव जीवन चक्र को बुनियादी तौर पर प्रभावित करते हैं। यह व्यक्तियों के बेहद निजी एवं अन्तरंग फैसलों की रक्षा करता है जो उनके जीवन और विकास को प्रभावित करते हैं।”

अंततः, यह ऐतिहासिक के.एस. पुट्टास्वामी के फैसले में देखने को मिला था, जिसमें इस मामले को अंततः इस अवलोकन के साथ रखा गया था कि किसी भी व्यक्ति को इस बात की पूरी आजादी है कि वह अपने जीवन चक्र पर पड़ने वाले बुनियादी प्रभाव के मामले में विचार-विमर्श और उस पर अमल कर सके, और राज्य या समाज को नैतिकता की आड़ में इस अधिकार पर हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।

लिव-इन रिलेशनशिप को खुद सर्वोच्च न्यायलय के द्वारा स्पष्ट तौर पर मान्यता दी गई है: पहली बार इसे 2006 में लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार में लागू किया गया था। इस मामले में यह माना गया था कि कोई भी बालिग़ महिला “अपनी पंसद के किसी भी व्यक्ति के साथ शादी करने या साथ रहने के लिए स्वतंत्र है।” 

इसके बाद, एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) मामले में, शीर्षस्थ अदालत ने स्पष्ट रूप से घोषित किया था कि नैतिकता और आपराधिकता सह-व्यापक नहीं हो सकती है। इसकी टिप्पणियों को यहाँ पर संपूर्णता में पुनः प्रस्तुत करना उचित होगा:

हालाँकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत में विवाह एक महत्वपूर्ण सामजिक संस्था है, लेकिन हमें इस तथ्य के प्रति भी अपने दिमाग को खुला रखने की जरूरत है कि यहाँ पर निश्चित तौर पर कुछ ऐसे व्यक्ति या समूह हैं जो इसी प्रकार के दृष्टिकोण को नहीं मानते। निश्चित रूप से, हमारे देश के भीतर कुछ ऐसे स्वदेशी (जनजातीय) समूह हैं जिनके यहाँ वैवाहिक बंधन के बाहर यौन संबंध कायम करना एक सामान्य परिघटना के तौर पर स्वीकार्य हैं। यहाँ तक कि समाज की मुख्यधारा में भी, ऐसे लोगों की भारी तादाद है जो पूर्व वैवाहिक यौन संबंध बनाने में कुछ भी गलत नहीं देखते हैं। सामाजिक नैतिकता का विचार मूलतः स्वाभाविक रूप से व्यक्तिपरक मसला है और आपराधिक कानून को व्यक्तिगत स्वायत्तता के क्षेत्र में अनुचित रूप से हस्तक्षेप करने के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।” 

जैसा कि उपर उल्लेख किया गया है सर्वोच्च न्यायलय द्वारा निर्धारित संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अतिरिक्त कुछ वैधानिक प्रावधान हैं जो लिव-इन रिश्ते में रह रहे व्यक्ति के अधिकारों का बचाव करते हैं। 

इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2015, जिसने लिव-इन रिलेशनशिप को धारा 2(एफ) के तहत “घरेलू रिश्ते” के दायरे के भीतर विशिष्ट रूप से मान्यता दी है। इसके आधार पर, लिव-इन संबंधों में रहने वाले व्यक्तियों को अब किसी भी प्रकार की घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान की जाती है क्योंकि उनके रिश्तों को विवाह के समान माना गया है।

इसके अतिरिक्त, सर्वोच्च न्यायालय ने तुलसा एवं अन्य बनाम दुर्घटिया एवं अन्य (2008) मामले में अपने फैसले में कहा था कि साथी के तौर पर लगातार और लंबे समय तक साथ रहने से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की अनुच्छेद 114 के तहत विवाह की धारणा को बल मिलता है।

उपरोक्त प्रावधानों के आलोक में, लिव-इन रिश्ते में शामिल व्यक्तियों को कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान की गई है।

ऊपर जो विश्लेषण पेश किया गया है उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या उच्च न्यायालय के उपरोक्त फैसले संवैधानिक मुआयने के आधार पर पारित किये गए हैं? प्रथम दृष्टया इसका उत्तर नहीं में होगा। 

शीर्षस्थ अदालत द्वारा न सिर्फ वैयक्तिक स्वायत्तता को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है बल्कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत लिव-इन रिश्तों में रहने के लिए भी वैधानिक मान्यता और साक्ष्य अधिनियम के तहत पूर्व संभावित खाका भी खींचा गया है।

संबंधित उच्च न्यायालयों के द्वारा लिए गए इन निर्णयों के परिणामस्वरूप ऐसे निर्णय हुए हैं जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के खिलाफ जाते हैं। ऐसे में ये संविधान के अनुच्छेद 141 के आधार पर स्वतः अपनी वैधता को खो देते हैं, जिसमें विशिष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट का कोई भी फैसला देश के प्रत्येक न्यायालय के लिए बाध्यकारी होगा।

आगे की राह 

जहाँ एक तरफ, दूरंदेशी और प्रगतिशील फैसलों जैसा कि उनमें से कुछ को ऊपर सूचीबद्ध किया गया है, उनके द्वारा अधिक समावेशी, समझदार, संवेदनशील और करुणामयी समाज की राह की ओर ले जाती है। वहीँ दूसरी तरफ हमारा न्यायशास्त्र ऐसी न्यायिक घोषणाओं से भरा पड़ा है जो इस दूरंदेशी-सोच वाले दृष्टिकोण पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। 

उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक फैसले को ही ले लीजिये, जहाँ पर एक महिला को एक ऐसे व्यक्ति को राखी की पवित्र गांठ बाँधने के लिए कहा गया था जिसने उसके साथ छेड़छाड़ की थी। इसी प्रकार से पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक शादीशुदा जोड़े द्वारा सुरक्षा प्रदान किये जाने के अनुरोध को इस छुद्र आधार पर ठुकरा दिया था कि उनकी उम्र में दिखने वाला स्पष्ट अंतर संदेह का आधार बनता है इसलिए पुलिस अधीक्षक को उनके व्यक्तिगत मामलों में जांच करने की आवश्यकता है।

न्यायालयों के ऐसे फैसले व्यक्तियों की निजी मामले में हस्तक्षेप करने वाले होते हैं। जैसा कि पूर्व में दर्शाया गया है, यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा स्पष्ट रूप से क़ानूनी एवं संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट किया गया है।

न्यायिक संस्थानों को इस अंतर को विभिन्न स्तरों पर पाटने की कोशिश करने की आवश्यकता है ताकि पूरे देश भर में नागरिकों को प्रदान किये गये अधिकारों और प्रतिबंधों में एकरूपता को मुहैय्या कराने के लिए कानूनों की सुसंगत, प्रगतिशील व्याख्या को सुनिश्चित किया जा सके।

(ईशान चौहान एक लेखक के साथ-साथ पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के न्यायाधिकरण के विधि सहायक हैं। प्रीतेश राज नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ, रांची में कानून स्नातक के तीसरे वर्ष के छात्र हैं। व्यक्त किये गये विचार निजी हैं।) 

साभार: द लीफलेट  

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