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किसानों और पेप्सिको के बीच विवाद से जुड़ा पूरा मामला क्या है?

एक्ट की धारा 39 में लिखा है कि किसान बीज के साथ चाहे जो मर्जी वह कर सकते हैं केवल शर्त यही है कि उन्हें ब्रांडेड बीज के तौर पर रजिस्टर्ड हुए बीज का नाम, अपने बीज के लिए नहीं रखना है और ना ही यह दावा करते हुए अपने बीज की बिक्री करनी है कि उनका भी बीज वही है जो रजिस्टर्ड ब्रांडेड बीज है।
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image courtesy- the hindu

कानूनों की कहानी अजीब होती है। हम में से बहुतों को पता नहीं होता कि कानून क्या है? फिर भी हम से अपेक्षा की जाती है कि हम कानून का उल्लंघन न करे। इसके पीछे की समझ  है कि हर व्यक्ति के पास एक सामान्य समझ है कि उसे क्या करना चाहिए अथवा नहीं। फिर भी हमारे समाज की  जटिलताएं ऐसी है कि  कानून को वैसे स्वरुप भी दिखने को मिलते है, जिसे सही या गलत के सामान्य से खांचे में नहीं बांटा जा सकता है। गुजरात के किसानों को पेप्सिको कम्पनी ने ऐसी ही  क़ानूनी  पेचीदिगियों में फंसाने की कोशिश की है। 

मामला यह है कि पेप्सिको कम्पनी ने गुजरात के साबरकांठा के नौ  किसानों पर आलू की एक ख़ास किस्म उगाने के आरोप में केस दर्ज कर दिया है। आलू के किस्म एफसी-5 की खेती और उसकी बिक्री करने के आरोप में मामला दर्ज कराया है। खाद्य और पेय क्षेत्र की मशहूर अमेरिकी पेप्सिको कम्पनी आलू के इस किस्म का इस्तेमाल lays ब्रांड के चिप्स बनाने में करती है। पेप्सिको कम्पनी का दावा है कि साल 2016 में उसने आलू के इस किस्म का प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट के अंतर्गत प्लांट वैराइटी सर्टिफिकेट ले लिया था। इसलिए इसकी पैदवार और बिक्री पेप्सिको कम्पनी की सहमति के बिना कोई और नहीं कर सकता है। इस समय भारत के अलग-अलग इलाकों में तकरीबन 2400 किसान इस अमेरिकी कम्पनी के लिए आलू उत्पादन का काम कर  रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात समझने वाली  है कि आखिरकार एक आम किसान को यह कैसे पता चलेगा कि किस बीज का पेटेंट करवा लिया गया है और इसकी पैदवार नहीं करना चाहिए। और अगर किसान पैदवार कर देता है तो क्या उसपर क्षतिपूर्ति देने का केस दर्ज का दिया जाएगा ?

नागरिक समाज और किसान संगठन से जुड़े 200 लोगों ने केंद्र सरकार को इस मामलें में दखल देने के लिए चिट्ठी लिखी है। किसान संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट के अंतर्गत उन्हें किसी भी बीज से पैदावार और बिक्री करने अधिकार हासिल है। शर्त यह है कि बीज ,रजिस्टर्ड वैरायटी के तहत ब्रांडेड बीज ना हो।  

इस मामले पर आगे बढ़ने से पहले यह समझ लेते हैं कि प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट क्या है ? साल 2001 में इस कानून को लागू किया गया था। साधारण शब्दों में ऐसे समझिये कि यह कानून बीज के साथ शोध करकर उन्नत किस्म की बीज बनाने वाले के अधिकार का संरक्षण करता है। यहां यह समझने वाली बात है कि उन्नत किस्म बनाने की क्षमता केवल किसी कम्पनी के पास ही नहीं होती है।  यह काम एक शोधार्थी से लेकर कम्पनी और कम्पनी से लेकर एक किसान तक कर सकता है। इसलिए इस कानून के अंतर्गत  सभी तरह के हितधारकों जैसे कि किसी कम्पनी , शोधार्थी और किसान सबको संरक्षण मिला है।  कहने का मतलब यह है कि जब तक अमुक हितधारक से अनुमति नहीं ले ली जाती , तब तक पैदवार कर बिक्री नहीं की जा सकती है।  लेकिन आम किसानों को छूट देते हुए यह नियम है कि वह किसी भी किस्म के बीज की पैदावार कर अपने लिया उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन   रजिस्टर्ड ब्रांडेड बीजों से एक शर्त भी जुडी है। यह शर्त है कि रजिस्टर्ड ब्रांडेड बीजों की पैदवार और इस्तेमाल तो एक किसान बिना अनुमति के भी कर सकता है लेकिन कमर्शियल वजह से किसान उस बीज का विक्रेता नहीं बन सकता है। इस एक्ट के तहत फसलों के तकरीबन 3500 बीजों की वैराइटी को रजिस्टर्ड सर्टिफिकेट दिया गया है। यह सर्टिफिकेट 15 साल की अवधि के लिए दिया जाता है। 

इस मसले पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कानून विशेषज्ञ शालिनी भूटानी कहती हैं कि हमारे देश के  प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट की बहुत बड़ी खासियत यह है कि इससे विश्व व्यापार संगठन के ट्रेड रिलेटेड इंटेलेक्टुअल प्रॉपर्टी राइट्स के तहत निर्धारित किये जाने वाले शर्तों और इसके विरोध में किसानों द्वारा उठायी गयी आवाजों दोनों का संतुलन हो जाता है। साधारण शब्दों में इसे ऐसे समझा जाए कि जब wto ने किसी के बौद्धिक सम्पदा को संरक्षित करने के लिए सभी सदस्य  देशों से कानून बनाने के के लिए कहा तो भारत के किसानों के तरफ से आवाज उठी कि हम तो परम्परागत ज्ञान के आधार अपना उत्पादन करते हैं , इस पर किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं होता, इस पर पूरे समुदाय का अधिकार होता है, इसलिए आखिरकार यह कैसे संभव है कि हमारे जीवन जीने के तरीके पर ही कानून बने।  इसलिए भारत ने एक रास्ता निकाला कि प्लांट ब्रीडर यानी पौधों पर शोध के माध्यम से पौधों की नई किस्म का उत्पादन करने वाले लोगों  और किसानों के हितों दोनों का संरक्षण हो जाए। इसलिए इस एक्ट की धारा 39 में लिखा है कि किसान बीज के साथ चाहे जो मर्जी वह कर सकते हैं केवल शर्त यही है कि उन्हें ब्रांडेड बीज के तौर पर रजिस्टर्ड हुए बीज का नाम, अपने बीज के लिए नहीं रखना है और ना ही यह दावा करते हुए  अपने बीज की बिक्री करनी है कि उनका भी बीज वही है जो रजिस्टर्ड ब्रांडेड बीज है। इसलिए पेप्सिको कम्पनी द्वारा दर्ज किये गए केस का कोई आधार ही नहीं बनता है क्योंकि किसानों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। भारतीय कानून के अनुसार किसानों पर कोई केस नहीं बनता है, एक करोड़ की क्षतिपूर्ति तो बहुत दूर की बात है। अब देखने वाली बात यह है कि अपने कानून के जरिये भारत सरकार किसानों के हितों का संरक्षण कर पाती है नहीं ?

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