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कम मज़दूरी के कारण बिहार के मनरेगा श्रमिक काम छोड़ने के लिए हो रहे हैं मज़बूर

सबसे गरीब तबके के मजदूरों का कहना है कि दैनिक मजदूरी राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम है और वह भी समय से नही मिलती है।
 मनरेगा
साभार - इण्डिया टुडे

गया (बिहार): महेशर मांझी, लखन भुइया और जनक भुइया, तीनों  में जो एक समान बात है– वह यह है कि वे भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं जो अपने जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन ये तीनों महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण विकास गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत काम करने से खुश नहीं हैं क्योंकि इसके तहत उन्हे दैनिक मजदूरी 176.90 रूपए मिलता है, जो अकुशल मजदूरों के लिए बिहार सरकार के अपने घोषित न्यूनतम मजदूरी 257 रुपये प्रति दिन से काफी कम है।

40 वर्ष के मांझी ने कहा, "हम मनरेगा के तहत काम करने के लिए ज्यादा उत्सुक नहीं हैं क्योंकि हमारे जैसे मजदूरों के लिए दैनिक मजदूरी दर प्रचलित दैनिक मजदूरी दर से भी कम है।" वे सबसे गरीब मुसहर जाति से संबंधित हैं और गया जिले के छोटे से कस्बे  मोहनपुर प्रखंड में लखीपुर पंचायत में रहते हैं।

मांझी ने मनरेगा के तहत "सबसे कम" दैनिक मजदूरी के खिलाफ अपने गुस्से का इज़हार किया। “यह हम जैसे गरीबों का शोषण है। बढ़ती महंगाई के बावजूद सरकार पिछले चार-पांच वर्षों से हमें वही मज़दूरी दे रही रही है जो पांच साल पहले थी।'' भुइया ने कहा कि मनरेगा के तहत कड़ी मजदूरी करनी पड़ती है जैसे कि मिट्टी काटना। और ऐसे कामों के एवज में मजदूरी  काफी कम है। मनरेगा के तहत दैनिक वेतन अकुशल श्रमिकों के लिए राज्य सरकार के घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम नहीं होना चाहिए।
 
मांझी और भुइया एक दलित मुसहर समुदाय से हैं, जो सदियों से समाज के सबसे अधिक हाशिये के वर्गों में से एक है। वे अपने परिवारों के साथ फूस के मकानों में रहते हैं, जो गर-मज़रुआ (सरकारी-लावारिस) ज़मीन पर बने हैं क्योंकि न तो उनके पास और न ही उनके पिता या दादा के पास ज़मीन रही है। पीढ़ियों से वे भूमिहीन कृषि श्रमिकों के रूप में अपनी आजीविका कमा रहे हैं।

उन्ही की तरह, निकटवर्ती सरियावन पंचायत के लालपुर मुसहरी के निवासी रामजीत मांझी और मोसादजी मांझी जो मोहनपुर ब्लॉक कार्यालय से बहुत दूर नहीं हैं, ने कहा कि जब वे मनरेगा के बजाए अन्य जगहों पर काम करते हैं तो उन्हें अधिक दैनिक मजदूरी मिलती है। मुसद्दी जी "हमें मनरेगा के तहत कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर किया गया है। यह हमारे जैसे गरीबों के लिए उचित नहीं है". उन्हें दुख होता है कि मनरेगा के तहत कम दैनिक मजदूरी का भी भुगतान समय पर नहीं किया जाता है। मांझी ने कहा, "मनरेगा के तहत हमारे काम के भुगतान की मजदूरी  दो से तीन महीने से लंबित पड़ी हैं।"रामजीत, और मोसद्दी ने कहा कि पिछले तीन महीनों से वे अपने गाँव में मनरेगा के तहत काम नहीं कर रहे है। उन्होंने कहा, 'अगर हमें निजी कामों में ज्यादा दिहाड़ी मिलती है, तो हम मनरेगा के लिए काम क्यों करेंगे।'

भुइया ने कहा कि कड़ी मेहनत करने के दो महीने बाद हमारे बैंक खाते में भुगतान किया जाता हैं। उन्होंने कहा, "नवंबर 2018 के तीसरे और चौथे सप्ताह मेरा काम पूरा हो गया था, लेकिन मुझे अभी तक भुगतान नहीं किया गया है".  बोधगया में एक छोटे ठेकेदार, सतेंद्र सिंह ने कहा कि ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण और निर्माण कार्य में मजदूरों की दैनिक मजदूरी 250 से 300 रुपये तक है, जबकि शहरों में उन्हें 350 से 400 रुपये का भुगतान किया जाता है।बोधगया में बारा पंचायत के एक मजदूर सुरेश यादव ने शिकायत की कि सरकार ने शायद ही मनरेगा के तहत कम मजदूरी दर की कभी परवाह की है, साथ ही यह भी कहा कि यह हमारे जैसे मजदूरों के लिए बहुत ही निराशाजनक स्थिति है। मोहनपुर में पंचायत रोज़गार सेवक के नेता दिलीप चौधरी ने स्वीकार किया कि दैनिक मजदूरी कम होने के कारण मजदूर मनरेगा के तहत काम करने के लिए तैयार नहीं हैं।बिहार में मनरेगा के बारे में उपलब्ध आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 38 जिलों में 534 ब्लॉकों के तहत 8,529 ग्राम पंचायतों में काम चल रहा है।

सीटू के एक नेता अरुण मिश्रा ने कहा '' बिहार और देश भर में मनरेगा के तहत हजारों मजदूरों का शोषण किया जा रहा है।कम से कम मजदूरों को न्यूनतम दैनिक मजदूरी दी जानी चाहिए, जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर के विपरीत है. मिश्रा ने कहा कि कम दैनिक वेतन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ था जिसके तहत कहा गया है कि राज्य की मजदूरी दर से कम मजदूरी किसी भी तरह मजबूर श्रम के समान है।

बिहार में जन आंदोलनों के राष्ट्रीय गठबंधन के महेंद्र यादव ने कम मजदूरी दर को "असंवैधानिक" करार दिया, क्योंकि यह राज्य की न्यूनतम मजदूरी दर से कम है।पिछली बार मनरेगा मजदूरी और राज्य न्यूनतम मजदूरी 2009 को समान रुप में लाया गया था, लेकिन तब से कई राज्यों ने मजदूरी को बढ़ाने की घोषणा की है। मिश्रा ने कहा, "गरीब मजदूरों और कामगारों के लिए, सरकार शायद ही मजदूरी बढ़ाती है. मनरेगा को कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 2006 में लॉन्च किया था, इस कानून के तहत हर साल ग्रामीण लोगों को अकुशल मैनुअल काम करने के इच्छुक तबके को 365 दिनों में से न्यूनतम 100 दिन का रोजगार मुहैया कराने का वादा करती है।
 
 

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