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कश्मीर समस्या : एक ‘मेड इन इंडिया’ समस्या

यह त्रासदी ही है कि भारत ने 1992 के बाद उस वक्त मौका खो दिया जब भारत के गृह मंत्रालय की रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में जो भी कुछ गलत हो रहा है उसके लिए मुख्य जिम्मेदार पाकिस्तान को बताया।
pulwama attack
Image Coutesy: Livemint

यह पहले भी कहा जा चुका है कि जब लंबे समय से लंबित विवाद को हल करने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है, तो सभी रास्ते नरक में चले जाते हैं’ पुलवामा में आत्मघाती हमले में कम से कम 40 सीआरपीएफ जवानों की जान चली गई। जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर सैन्य और सुरक्षा तंत्र तैनात होने के बावजूद, किसी को कोई सुराग नहीं था कि आत्मघाती दस्ता तैयार हो रहा है। पूर्व विशेष सचिव, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, वप्पला बालाचंद्रन ने हाल ही में लिखा है कि "मानव खुफिया तंत्र हमेशा जम्मू-कश्मीर में एक मुद्दा रहा है" और विशेष रूप से 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, “युवाओं का अलगाव" सरकार से बढ़ गया है। उन्होंने कहा, "जब घर में ही सुरक्षा बलों को उनके आतंक विरोधी अभियानों के दौरान आम जनता ने बाधित करना शुरू कर दिया था, तो यह घर-घर विद्रोह का खास मामला बन गया है

इसे त्रादी ही कहा जाएगा कि भारत ने 1992 के बाद उस वक्त मौका खो दिया जब भारत के गृह मंत्रालय की रिपोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में जो भी कुछ गलत हो रहा है उसके लिए मुख्य जिम्मेदार पाकिस्तान को बताना शुरु कर दिया और फिर शुरु हुई “सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देने से बाज़ आए” की बयानबाजी। इसका सीधा अर्थ था कि हर पिछली सरकार को टकराव को बढ़ाने के और आहिस्ता आहिस्ता संवैधानिक स्वायत्तता को खत्म करने, एक दो से मुक्ति और फिर गलत कदमों के जरिये असंतोष को बढ़ावा देना साथ भ्रष्ट और  बलपूर्वक तरीके से स्थिति को ओर खराब करना। ये हालात पाकिस्तान के 'परेशान पानी में मछली पकड़ने' का मार्ग प्रशस्त करते है, यानी पाकिस्तान इन हालात का फायदा उठाता है।

नया जीवनदान

जैश-ए-मोहम्मद जो 2003 तक ठंडा पड़ गया था, NDA-II के शासन के तहत फिर से पुनर्जीवित हो गया, यानी एन.डी.ए. ने इसे नया जीवन दान प्रदान किया, विशेष रूप से 8 जुलाई, 2016 के बाद से, जब भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन ऑल आउट' बड़ी ही लापरवाही से लागू किया जिसका मक़सद “आज़ादी” के आंदोलन को कुचलने का था। इसके परिणाम स्वरूप राज्य में स्थानीय उग्रवाद में वृद्धि हुई है और इससे भी अधिक उल्लेखनीय है कि आम लोगों में इसके लिए व्यापक समर्थन मिला है जो लोग हालत से निराश हैं और मोदी सरकार इसे हल करने के किसी भी राजनीतिक प्रयास के लिए शुरू करने से इनकार कर रही है।

मोदी सरकार के बलपूर्वक दृष्टिकोण को मुख्यधारा के हिंदुत्व समूहों का सक्रिय समर्थन प्राप्त है, जिन्हें "अशांत" जम्मू क्षेत्र में और देश के बाकी हिस्सों में कुछ भी धमाल मचाने की अनुमति दी हुई है। जबकि कई लोग कश्मीरी युवाओं के कट्टरपंथीकरण की बात उठाते हैं, लेकिन भारत भर में आधिकारिक तौर पर प्रोत्साहित हिंदुत्व कट्टरता पर आपराधिक चुप्पी देखने को मिलती है। जम्मू और कश्मीर की स्वायत्तता को नष्ट करने के अंतिम कदम के रूप में "राज्य को दिए गए विशेष दर्ज़े" को खत्म करने की मांग का दबाव और कश्मीरी मुस्लिमों (जैसा कि वे देश के बाकी हिस्सों में भारतीय मुसलमानों के साथ करते हैं) के साथ लिंचिंग, हिंसक सतर्कता गतिविधियों का संयोजन मदद करता है और वास्तविक मुद्दों पर से ध्यान हटा देता है। इसका एक नतीजा भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने, काम करने और अध्ययन करने वाले कश्मीरियों पर संगठित हमले के रूप में हो रहा हैं, ये हालात पुलिस और प्रशासन द्वारा दिए जा रहे खुले संरक्षण से ओर भी ज्यादा बदतर हुए हैं। कहा जाए तो उपरोक्त ने जै-ए-मोहम्मद को कश्मीरियों के खिलाफ भारतीयों को खड़ा करने के लक्ष्य को हासिल करने में मदद की है।

यह सच है कि 2001 में संसद पर हुए हमले के बाद, कश्मीरी आम लोगों के गुस्से और उनके दैनिक जीवन में वे आम शत्रुता का लक्ष्य बन गए। लेकिन यह अभी भी संगठित भीड़ के हमलों का रुप धारण नहीं कर पाया था, तब जब राज्य सरकारें उत्तर भारत के कई हिस्सों में, विशेष रूप से भाजपा शासित राज्यों में दूसरे रास्ते की तलाश कर रही थी। यह याद रखने की बात है कि शायद ही कभी कश्मीर में उग्रवाद के तीन दशकों के इतिहास में भारत में भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों आम नागरिकों के नरसंहारों पर शोक व्यक्त किया गया हो, या इनाम और पदोन्नति के लिए मारे गए लोगों के खिलाफ, युवाओं को गोलियों (छर्रों)  से अंधा कर दिए जाने या हजारों को हिरासत में लिए जाने के खिलाफ कुछ हुआ हो। इससे ऐसा लगता है जैसे भारतीय केवल सैनिकों की मौत की परवाह करते हैं, नागरिकों की नहीं, जो कि उनके अपने साथी नागरिक होते हैं।

जानमाल के नुकसान को कम करके नहीं आंकना चाहिए

यदि हम वास्तव में परवाह करते हैं और सीआरपीएफ जवानों के जीवन की हानि पर चिंतित हैं, तो यह सही होगा कि हम जम्मू और कश्मीर में लंबे समय से सैन्य तैनाती के प्रभाव के बारे में विचार करें, जो जवानों के मनोबल और उनके दिन, महीने बाद महीने, साल-दर-साल, सतर्क होने की शर्त है जोकि संभव नहीं हैं जैसा कि वे छोटी अवधि के लिए कर सकते हैं। इसके अलावा, अगर तीन दशकों में भी कश्मीर विवाद का कोई सैन्य समाधान नहीं हुआ है, तो फिर यह दृष्टिकोण क्यों बरकरार है? शायद अब यह पूछने का सबसे अच्छा समय है कि सैन्य समस्या को हल करने वाली समस्या को गंभीर और ईमानदारी से राजनीतिक पहल करने की आवश्यकता है। वरना, हो यह रहा है कि सिपाही भी हिंदुत्व की दगाबाज राजनीति करने के लिए सिपाही बन गए हैं। गौर कीजिए कि पुलवामा हमले के बाद जम्मू में क्या हुआ था।

जम्मू-कश्मीर पर नई दिल्ली द्वारा पिछले आठ महीनों से शासन किया जा रहा है, पहले राज्यपाल के शासन जरिये और अब राष्ट्रपति शासन के तहत। पूरे राज्य को अक्टूबर 1990 के बाद से ही एक "अशांत क्षेत्र" घोषित किया गया है, जिसमें सुरक्षा बल के कर्मियों के लिए खास कानूनी ताकत और असाधारण कानूनी प्रतिरक्षा है। फिर भी, 14-18 फरवरी से चार दिनों के लिए, हिंदुत्व की भीड़ कर्फ्यू के बावजूद, कश्मीरी और जम्मू के मुसलमानों पर स्वतंत्र रूप से हमला करने और संपत्तियों, वाहनों और दुकानों को नष्ट करने के लिए इकट्ठा हो सकती है। यहां तक कि सेना के फ्लैग मार्च ने भी इन गुंडों को नहीं रोका, अच्छी तरह से जानते हुए कि प्रशासन को ऐसे तत्वों को संरक्षण देने से कोई नुकसान नहीं होगा उन्होंने ऐसा किया।

यह ज्ञात है कि पुलिस ने ज़रा सी बात पर प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। लेकिन, शायद ही कभी हिन्दूवादी गुंडों के खिलाफ ऐसा किया गया हो, जब वे मुसलमानों पर जानलेवा हमले कर रहे हों। उत्तराखंड में, जो एक भाजपा शासित राज्य है, कश्मीरी छात्रों को उनकी पढ़ाई छोड़ देहरादून छोड़ने के लिए टार्गेट किया गया, धमकाया गया और मजबूर किया गया। उत्तराखंड पुलिस ने अपने हिंदुत्व की उद्घोषणाओं को अपनी वफा दिखायी और जब संविधान का उल्लंघन किया, तब उन्होंने चुनिंदा कश्मीरी मुस्लिमों के खिलाफ उनके विचारों को पोस्ट करने के लिए राजद्रोह और अन्य दंड प्रावधानों के साथ आरोप लगाते हुए मुकदमा दायर किया था, जबकि खून खोलाने वाले पोस्टर, पर्चा, घृणास्पद भाषण हिन्दूवादी गुंडों और उनके नेताओं को स्वतंत्र रूप से चलाने की अनुमति दी गई थी।

इसका लंबा और छोटा कारण यह है कि यदि भारत में कश्मीर के लोगों के लिए कोई जगह नहीं है, और अगर यह संदेश पूरे देश में चलाया जाता है, तो इसका दोष पाकिस्तान को देना बेकार साबित होगा।

इस गड़बड़ से बाहर निकलने का रास्ता

तो, इस प्रक्रिया को उलटने के लिए क्या किया जा सकता है? क्या भारत को पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान में जेएम डीप स्टेट की उपज़ है? परेशानी यह है कि भारत के विकल्प सीमित हैं।

मसलन, कूटनीति को ही लें। पुलवामा में आत्मघाती हमले से एक हफ्ते पहले, भारत के विदेश मंत्री ने लोकसभा को बताया था कि भारत ने पाकिस्तान को सफलतापूर्वक अलग-थलग कर दिया है। लगभग उसी समय, पाँच दिवसीय नौसैनिक अभ्यास में भाग लेने के लिए 46 देश पाकिस्तान में एकत्रित हुए। पुलवामा के बाद, जब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस, मोहम्मद बिन सलमान, भारत की अपनी यात्रा से पहले पाकिस्तान गए थे, तो न केवल सदी ने न केवल सात एमओयु करीब 20 अरब डॉलर के मूल्य के हस्ताक्षर किए, बल्कि संयुक्त बयान में दोनों ने "संयुक्त राष्ट्र सूचीबद्ध शासन" के राजनीतिकरण की भी आलोचना की थी। जो पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक देश घोषित करने और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल द्वारा सूचीबद्ध जेएम पर प्रतिबंध लगाने के भारतीय प्रयासों को रोकता है। आत्मघाती बम विस्फोट के बाद भारत के समर्थन में आए तीन देशों में से किसी ने भी पाकिस्तान का नाम नहीं लिया। वास्तव में, भारत का सर्वदलीय प्रस्ताव स्वयं पाकिस्तान या जैश-ए-मोहम्मद के नाम का उल्लेख करने में विफल रहा। चीन के ग्लोबल टाइम्स ने भारत को याद दिलाया कि चीन और पाकिस्तान की आलोचना करने से पहले "भारत सरकार को अपनी आतंकवाद विरोधी नीति पर अधिक आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और कश्मीर के भारतीय नियंत्रित हिस्से को बेहतर ढंग से संचालित करने के तरीके पर अधिक ध्यान देना चाहिए।"

मुद्दा यह है कि यह वृद्धि ‘ऑपरेशन ऑल आउट’ के साथ हुई है। और इसके बाद जो भी कदम उठाया जाता है वह एक बढ़ती प्रतिक्रिया है। आम चुनावों के आने से भाजपा अंध राष्ट्रवाद और युद्ध उन्माद को भुनाने के लिए बेताब है, यह निश्चित रूप से एक ऐसी चीज के लिए ज़ोर देगा, जिसे ‘समाधान’ के संकल्प’ की प्रतिक्रिया के रूप में पेश किया जा सकता है। इसलिए, जब हम इंतज़ार करते हैं कि आगे क्या होगा, तो हमें कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा। सितंबर 2016 में, जब तथाकथित 'सर्जिकल स्ट्राइक' की गई थी, जिसमें आतंकवादियों के एक अस्थायी लॉन्चिंग पैड को नष्ट कर दिया गया और जिसमें 39 लोग मारे गए थे, और डीजी मिलिट्री ऑपरेशन्स ने तुरंत पाकिस्तान को अपने जवाबी हमले की जानकारी दी कि यह एक बार का हमला था। उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि भारत दोनों सेनाओं के बीच युद्ध को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यह तब सच था, जैसा कि आज है। विशेष रूप से उस भूमिका की पृष्ठभूमि में, जो कि पाकिस्तान ने 1973 में सैगोन-जैसी पराजय के बाद अदा की थी की याद दिलाती है और जो स्थिति अमेरिका के अफगानिस्तान से वापसी के लिए अफगान संघर्ष के संकल्प से अमरीका को बचाने के लिए खेल रहा है।

इसलिए, हमें पुलवामा से सही सबक लेने की जरूरत है। जब तक सरकार जम्मू-कश्मीर में परिवर्तन नहीं करेगी आत्मघाती हमले बढ़गे। हिजबुल मुजाहिदीन भी आत्मघाती हमलों के पक्ष में सामने आ रहा है, भविष्य खतरे से भरा है। असफल सैन्य दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना अविवेकपूर्ण होगा। एक नीति से जुड़ा कोई मुकुट नहीं है जो विफलता के सभी लक्षण दिखाता है। भारत को ऐसी नीतियों से कटने की जरूरत है। यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि यद्यपि प्रति-विद्रोह एक सैन्य सिद्धांत है, लेकिन यह राजनीतिक पहल है जो इसे समाप्त करती है, विशेष रूप से जहां हमारे अपने लोग इसके शिकार हों।

एक सैन्य समाधान जिसके तहत सेना अपनी ही ज़मीन पर लोगों के खिलाफ लड़ रही है, को एरिया डोमिनेंस के लिए एक बड़ी ताकत तैनात करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, सीआरपीएफ में 61 बटालियन हैं, जम्मू-कश्मीर में 600 शिविरों में रहने वाले 70,000 जवान हैं। सेना की तैनाती का आकार चार गुना है। सेना प्रमुख का दावा है कि सेना "लोगों के साथ मिलकर काम करती है और लोगों के अनुकूल हैं और हम अपने कार्यों को बहुत ही दोस्ताना तरीके से करते हैं"। सवाल यह है कि कॉर्डन और तलाशी ऑपरेशन कठोर सर्दियों के महीनों में कैसे किए जाते हैं, जब युवाओं का पीछा किया जाता है, घरों को उड़ा दिया जाता है, लोगों पर काले  कानूनों के तहत केस लगाया जाता है, बंदियों को जम्मू-कश्मीर के बाहर की जेलों में स्थानांतरित कर दिया जाता है, जिससे दोस्तों और रिश्तेदारों का उनसे मिलना या आना-जाना महंगा पड़ता है। नेताओं को नजरबंद रखना, लोगों से मिलने के लिए उन्हे रोकना और जम्मू-कश्मीर के बाहर रहने वाले कश्मीरियों को दक्षिणपंथी हिंदुत्व उपद्रवियों द्वारा हमलों के लिए छूट देना जैसा  ’कुछ भी दोस्ताना नहीं है।

यह सच है कि इस टकराव के रंगमंच से बाहर क्या होता है, इसके लिए सेना को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन अभी तक जम्मू-कश्मीर में सेना के अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से दक्षिणपंथी हिंदुत्व संगठनों का साथ देते नही देखा गया था जब उनकी नाक के नीचे, आठ साल की बकरवाल लड़की का जम्मू क्षेत्र में बलात्कार किया गया, और उसे मार दिया गया तब हिंदुत्व के दगाबाजों ने दोषियों की गिरफ्तारी के खिलाफ दंगा किया, इस पर सेना के कमांडर चुप रहे, अशांत क्षेत्र और AFSPA लागू होने के बावजूद उनका यह रुख रहा। आर्मी के उच्च अफसर इस्लामवादियों द्वारा कट्टरता पर चयनात्मक चिंता में उलझाने की कोशिश तो करते हैं लेकिन वे हिंदुत्व कट्टरता को दोष कभी नहीं देते हैं।

आगे क्या?

हालांकि, बीजेपी के बदलने की संभावना बहुत कम है। न केवल आगामी आम चुनावों के कारण, बल्कि इसलिए भी कि बीजेपी की वैचारिक समझदारी इतनी कम है वह अपने यानी भारत के फायदे में सोच सके। इसके अलावा, प्रधानमंत्री जम्मू-कश्मीर पर किसी से सलाह लेने में विश्वास नहीं करते हैं; आखिरकार ये ऐसे 'नेता' हैं जो सब जानते हैं।

इसके अलावा, बीजेपी द्वारा सख्ती से निबटने की कवायद के तहत, यह काफी संभव है कि वे सैन्य प्रतिक्रिया का विकल्प चुनें। हालाँकि, जब तक इस तरह की सैन्य प्रतिक्रिया को प्रबंधित नही किया जाता है, जैसा कि 'सर्जिकल स्ट्राइक' के दौरान भारत और पाकिस्तान के डीजीएमओ के बीच किया गया था, तब तक इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि स्वतंत्र सैन्य हमला गलत साबित हो सकता है। लेकिन यह एक हताश बीजेपी है, जो तेजी से लोकप्रियता खो रही है, इसे पाने के लिए वह यह गलत कदम भी उठा सकती है।

नतीजतन, जमीनी हालात बिगड़ेंगे। उग्रवादियों के आत्मघाती हमलों को अंजाम देने के साथ, भारतीय सेना अपने आतंकवाद विरोधी अभियानों में और अधिक क्रूर हो जाएगी और जनता की राय संकट और निराशा के बीच झूलने लगेगी। इस मसले को हल करने में भारत की असमर्थता हमेशा इसे एक ऐसे मोड़ पर लाएगी जहां कश्‍मीर प्रश्‍न का संबंध है - यह एक संपूर्ण "मेड इन इंडिया" समस्‍या है।                                                            

 

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