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क्या मेरा पीएम चोर है?

"चोर" टैग से छुटकारा पाना नरेंद्र मोदी का दायित्व है। रफ़ाल सौदे में बचाव के लिए उनके पास एकमात्र उपाय 'पारदर्शिता' ही है, न कि इंकार करना।

मेरा पीएम चोर है

अपने ही प्रधानमंत्री को चोर कहना क्या उचित है?

ये सवाल पिछले कई हफ्तों से सोशल मीडिया में बहस का विषय बना हुआ है। इसकी शुरुआत उस समय से हुई जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान की रैली में कहा, "गली गली मेरा शोर है, देश का चौकीदार चोर है"। कांग्रेस लगातार आक्रामक बनी रही, यहां तक कि एक हैशटैग भी चलाया, #मेरा प्रधानमंत्री चोर है। बीजेपी ने भी इसके जवाब में ट्विटर पर हैशटैग चलाया, #पूरा ख़ानदान चोर है।

इस तरह का अभद्र राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप इस देश में कोई नया नहीं है। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से लेकर अब तक ऐसे कई उदाहरण आपको मिल जाएंगे, इसकी गणना कोई भी कर सकता है। लेकिन पहली बार धोखाधड़ी का प्रत्यक्ष आरोप बोफोर्स तोप घोटाले (1980 के दशक के मध्य से 1990 के दशक के शुरुआत में) को लेकर सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ लगाया गया। वीपी सिंह ने राजीव गांधी की कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया और इसके चलते "गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है" के नारे लगने लगे। उस वक्त राहुल गांधी 17 या 18 वर्ष के ज़रूर रहे होंगे। 2जी घोटाले (2000 के मध्य से लेकर अंतिम समय तक) के दौरान भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाले विपक्ष ने संसद में यही नारे लगाए।

आज राहुल गांधी नरेंद्र मोदी पर हमला करने के लिए इसी नारे का फिर से इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन अचानक हमें बताया जाता है कि प्रधानमंत्री पद का सम्मान करना चाहिए। कुछ वरिष्ठ पत्रकार भी इस तर्क को उचित बता रहे हैं। यह पूछने के बजाय कि क्या कांग्रेस पीएम को चोर बता कर अपनी ही ज़मीन खो देगी, उन चैनलों को इस पर चर्चा करना चाहिए कि धोखाधड़ी का आरोप लगने के बाद क्या बीजेपी अपनी विश्वसनीयता खो रही है। फिर भी, गोदी मीडिया अब मुझे चकित नहीं करता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजीव गांधी की तरह मोदी इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, वह भी "मिस्टर क्लीन" की लहर पर सवार हो गए। लेकिन बोफोर्स घोटाले ने उस छवि को धूमिल कर दिया, और उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद को गंवा दिया। वीपी सिंह, आईके गुजराल और एबी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने लेकिन क़ानून की अदालत में भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं दे सके। फिर भी, यह एक परीक्षण का मामला था कि कैसे लोगों की धारणा उनके चेहरे पर चुनाव में बदलाव कर सकती है और एक नेता की प्रतिष्ठा को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकती है।

इस इतिहास की जानकारी होने के बावजूद, रफ़ाल मामले में मोदी का संवेदनाहीन प्रबंधन उलझन में डाल रहा है, भले ही राहुल गांधी इस मुद्दे पर क़ायम रहें। मोदी सरकार ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दौरान हुए क़रार को बदल दिया और तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति ओलांद के साथ साल 2015 में एक नया समझौता किया। पहले के समझौते के मुताबिक़, भारत को वर्तमान में हुए 36 विमानों के क़रार के मुकाबले 126 लड़ाकू विमान मिलना था। ये विमान कथित रूप से काफ़ी महंगे भी हो गए हैं। इसके अलावा, मोदी सरकार ने अनिल अंबानी के नई लॉन्च की गई कंपनी के बजाय एक अनुभवी सरकारी कंपनी एचएएल को इस क़रार से बिल्कुल अलग कर दिया। मोदी ने उन गंभीर आरोपों में से किसी का भी जवाब नहीं दिया है, जो क्रोनी पूंजीवाद, निहित हितों और भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते हैं।

ओलांद के हाल के बयान ने भारत सरकार के लिए और भी बुरा कर दिया है। यह बताया गया था कि रफ़ाल सौदे के दौरान अनिल अंबानी ने ओलांद के साथी की फिल्म प्रोजेक्ट में पैसा निवेश किया था। इसके बारे में पूछे जाने पर, ओलांद ने एक फ्रांसीसी संवाददाता से कहा कि रफाल सौदे के लिए अनिल अंबानी की कंपनी का सुझाव फ्रांस सरकार ने नहीं दिया था।

रफ़ाल सौदे में किसे फ़ायदा पहुंचा?

चाहे मोदी ने अंबानी की कंपनी को प्रोमोट करने के लिए कदम उठाया और चाहे बीजेपी इससे लाभान्वित हुई, ये वे सवाल हैं जिसका जवाब देश को चाहिए। ऐसे मामलों में, बोफोर्स की तरह खुल्लम खुल्ला रिश्वत का पता लगाने में मुश्किल होती है। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस में नवीनतम खुलासे सनसनी पैदा करने वाले हैं। इस अख़बार ने रिपोर्ट प्रकाशित की है कि रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने मोदी के रफ़ाल सौदे का विरोध किया था। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जनरल (सीएजी) वर्तमान में इसका लेखा परीक्षा कर रहे हैं, और दिसंबर तक इस पर रिपोर्ट आने का इंतज़ार किया जा रहा है। यह रिपोर्ट की सामग्री पर काफी निर्भर करता है।

बीजेपी ने इन आरोपों का आक्रामकता से जवाब दिया है। इसके कुछ जवाब, जैसे अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र और पाकिस्तान के समर्थन के आरोप, बताने के लायक भी नहीं हैं। यह याद रखना दिलचस्प है कि जब विपक्ष ने साल 1974 में इंदिरा सरकार के ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी आवाज़ उठाई थी तो नकारने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसी तरह का ऊटपटांग बयान दिया था।

प्रधानमंत्री मोदी के बचाव में सरकार ने रक्षा मंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक को मैदान में उतार दिया है। पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के कार्यकाल में ये सौदा किया गया था जो अभी गंभीर रूप से बीमार हैं। लेकिन मौजूदा रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण खुद ही विचित्र स्थिति में हैं। प्रेसवार्ता में किए गए संबोधन के दौरान इस मुद्दे पर उनके विचार में बदलाव उन्हें खुद आरोपी बना सकता है।

आम तौर पर, इस तरह के विवादों से रक्षा बलों को अलग रखा जाता है। लेकिन मोदी ने एयर चीफ मार्शल और अन्य अधिकारियों को भी इसमें शामिल कर लिया है, और रफ़ाल सौदे की मंज़ूरी का सर्टिफिकेट जारी करने को कहा गया। बोफोर्स घोटाले के दौरान भी इसी तरह की बात हुई थी। मुद्दा बोफोर्स या रफ़ाल की गुणवत्ता को लेकर नहीं है, यह सौदे में क्रोनिज्म को लेकर है।

अगर मोदी "चोर" टैग से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो उनके लिए एकमात्र उपाय पारदर्शिता है, न कि इंकार करना। उन्हें बिल्कुल पाक-साफ होना चाहिए और विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देना चाहिए। लोगों को विमानों की लागत का पता होना चाहिए। लोगों को पता होना चाहिए कि वैसी कंपनी जिसने इस क्षेत्र में कभी काम नहीं किया उसे क्यों अनुबंधित कर दिया गया। ये सब राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़ नहीं है। ये रणनीति राजीव गांधी के काम नहीं आई तो ये मोदी के लिए भी काम नहीं आएगी। वास्तव में, जवाब देने में मोदी द्वारा रूचि न लेना रफ़ाल सौदे के संबंध में लोगों के संदेह को और बढ़ाता है। अगर उनके पास कोई निहित हित नहीं है, तो वे सवालों के जवाब देने से डरते क्यों है? यह “56 इंच के सीने” पर गर्व करने वाले व्यक्ति का व्यवहार नहीं है।

सरकार को "चोर" शब्द का विरोध करने के बजाय रफ़ाल सौदे पर संयुक्त संसदीय समिति की विपक्ष की मांग को स्वीकार करना चाहिए। प्रधानमंत्री का पद किसी को राष्ट्र के प्रति सम्मान का आदेश देने के योग्य नहीं है। काम के ज़रिये से सम्मान हासिल किया जाना चाहिए। और इस संबंध में मोदी को अभी लंबा सफर तय करना है। अमेरिका में एक सार्वजनिक मंच से अभिनेता रॉबर्ट डी नीरो ने हाल ही में कहा, "लानत है ट्रंप।" हमें आभारी होना चाहिए कि भारत में ये चर्चा अभी तक नहीं हुआ है।

 

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