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क्या तोगड़िया सफल हो गये हैं ?

भाजपा की सफलता में महाभारत की तरह की कूटनीतियों की बड़ी भूमिका रही है, किंतु कूटनीति दुधारी तलवार होती है वह कभी कभी खुद को भी नुकसान पहुँचा देती है।
praveen togadiya
courtesy : News 18

भाजपा अपने पूर्व रूप भारतीय जनसंघ के समय से सच को जानते समझते हुए, राजनीतिक स्वार्थवश गढी हुयी कहानियों, बनाये गये इतिहासों, और मिथकों का सहारा लेती रही है। ऐसा करते समय उन्हें अनेक प्रचारकों का सहारा लेना होता है, जिसमें यह खतरा हमेशा बना रहता है कि ऐसे सहयोगी असंतुष्ट होने की दशा में सारी कूटनीति का खुलासा कर के ताश के महल को धाराशायी कर सकते हैं। यही कारण रहा है कि भाजपा ने हमेशा मीडिया को नियंत्रित करने की नीति प्राथमिकता पर रखी है, जिसमें वह अब तक सफल रही है। मोदी शाह काल में तो सच को सामने न आने देने के मामले में अति ही कर दी गई है।

उल्लेखनीय है कि भाजपा के पहले अध्यक्ष मौल्लि चन्द्र शर्मा ने संघ के हस्तक्षेप से नाराज होकर ही त्यागपत्र दिया था, व बलराज मधोक जैसे पार्टी अध्यक्ष ने पदमुक्त होने के बाद बहुत सारे रहस्य खोले थे किंतु वे आमजन तक नहीं पहुँच सके। उल्लेखनीय यह भी है कि पिछले वर्षों में जब उमा भारती ने पार्टी छोड़ कर नई पार्टी बनाई थी तब तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था कि भाजपा में कभी खड़ा विभाजन नहीं हुआ, अर्थात यह दो फाड़ नहीं हुयी, जिन छोटे मोटे लोगों ने पार्टी से दूरी बनाई है वे हाशिए पर ही रहे। उनकी यह बात सही साबित हुई जब शिवराज सिंह के मुखर विरोध के बाद भी उमा भारती की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया, बस शर्त केवल यह रही कि वे अपने मूल क्षेत्र मध्य प्रदेश में सक्रियता नहीं दिखायेंगीं, जहाँ उन्होंने कभी पार्टी को सत्ता दिलवायी थी व अलग पार्टी बना कर विधानसभा चुनाव लड़ने पर 12 लाख वोट प्राप्त किये थे। सखलेचा, कल्याण सिंह, मदनलाल खुराना, येदुरप्पा, केशू भाई पटेल, जसवंत सिंह, योगी आदित्यनाथ, आदि अनेक लोगों का विरोध अल्पावधि तक ही रहा और वे लौट कर घर वापिस आ गये। एक समय था जब 2004 का आम चुनाव हारने की जिम्मेवारी मोदी पर डालते हुए आज की सबसे बड़ी समर्थक स्मृति ईरानी ने उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए अनशन भी किया था। प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित होने तक नरेन्द्र मोदी का चारों ओर से विरोध हुआ किंतु उसके बाद तो उनकी ऐसी अन्धभक्ति पैदा की गयी कि उन्हें देवता का दर्जा दिया जाने लगा, सम्बित पात्रा जैसे प्रवक्ताओं ने तो टीवी चैनलों पर उन्हें पिता तुल्य बतलाया। मोदी ने अपने अन्ध समर्थन की दम पर अमित शाह को न केवल निर्विरोध अध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया, अपितु राज्यसभा में भी बैठा दिया गया। अडवाणी, जोशी, शांता कुमार, गोबिन्दाचार्य की बोलती बन्द कर देने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि की आवाज तूती की आवाज बन कर रह गयी। पुणे के सांसद नाना पटोले ने तो स्तीफा ही दे दिया। किंतु पूर्ण सत्ता का पहली बार रसास्वादन कर रहे भाजपा के भक्त समर्थकों पर कोई असर नहीं हुआ भले ही नोट बन्दी, जीएसटी आदि अनेक असफल योजनाएं व्यापक आलोचना का शिकार हुयी हों और  दिल्ली, पंजाब और बिहार के चुनावों में करारी हार के साथ गोवा व मणिपुर में दल बदल का सहारा लेना पड़ा हो।

ऐसी स्थिति में संघ के ही समान महत्व के एक सहयोगी संगठन के प्रमुख तोगड़िया द्वारा मोदी की ओर इशारा करते हुए सीधे एनकाउंटर का आरोप लगाना बहुत बड़ी घटना है। शाह मोदी के प्रबन्धन से चुनाव जीत कर सत्ता सुख पा रहे समर्थकों की सम्वेदनाएं मौथरी हो चुकी हैं। वे यह भूल चुके हैं कि संसद में दो सदस्यों की संख्या तक पहुँच चुकी भाजपा को दो सौ तक पहुँचाने में राम जन्मभूमि के सुप्त विषय पर आन्दोलन खड़ा करने में योजनाकार गोबिन्दाचार्य व अडवाणी की हिंसा उकसाने वाले नारों की रथयात्रा व उमा भारती समेत विश्व हिन्दू परिषद के तोगड़िया, ऋतम्भरा जैसे लोगों के उत्तेजक भाषणों, त्रिशूल दीक्षा, विवादास्पद स्थलों पर सरस्वती पूजा, आदि की बड़ी भूमिका रही थी। इनके सहारे कभी जो ध्रुवीकरण किया गया उसी के असर को गुजरात के नरसंहार व मोदी शाह की चुनावी योजनाओं में भुनाया गया है।

जब भी संघ परिवार में मतभेद उभरता है तब संघ प्रमुख अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करके शांत करते रहे हैं। संजय जोशी भले ही संघ के प्रिय लोगों में रहे हैं किंतु मोदी से नाराजी के चलते उन्हें कोने में बैठाने  में भी संघ के हस्तक्षेप की भूमिका रही है। उल्लेखनीय है कि तोगड़िया द्वारा बताये गये घटनाक्रम से एक दो दिन पहले उनकी भैयाजी जोशी और ऋतम्भरा के साथ बैठक हुयी थी। इससे पूर्व भुवनेश्वर में 29 दिसम्बर को विहिप के कार्यकारी बोर्ड की बैठक में तोगड़िया को कार्यकारी अध्यक्ष न बनने देने की कोशिश हुयी थी और गुजरात चुनाव में उन पर भाजपा विरोधी काम करने के आरोप भी सामने आये थे, किंतु न तो कार्यकारी अध्यक्ष तोगड़िया को हटाया जा सका और न ही अध्यक्ष राघव रेड्डी को हटाया जा सका। मोदी शाह जैसे लोगों को असहमति बिल्कुल भी स्वीकार नहीं होती इसलिए बहुत समय से लम्बित प्रकरणों को सामने लाया गया।

विहिप का ध्रुवीकरण ही भाजपा का मूल आधार रहा है। अगर किसी नाराजी में उसकी पुरानी योजनाओं का विश्वसनीय खुलासा हो जाता तो उसके विरोधियों की कही बातों को बल मिलता व उसकी ज्यादा किरकिरी होती । यह स्थिति संघ परिवार में किसी के हित में नहीं होती,  इसलिए हमेशा की तरह बात दबा दी गयी। तोगड़िया ने भी किसी ब्लैकमेलर की तरह अपने पूरे पत्ते नहीं खोले, और उचित समय का नाम लेकर धमकी दे दी। यह सौदेबाजी का अन्दाज़ था, इससे लगता है कि यह मामला अब ठंडे बस्ते में चला गया। अगर प्रकरण पहले ही वापिस लिये जाने का फैसला हो गया था तो उसे तीन साल तक कोर्ट को क्यों नहीं बताया गया व अभी सामने आने में तीन दिन क्यों लग गये! तोगड़िया ने सही समय पर नस दबा दी और बाजी पलट गयी। उमा भारती भी हमेशा इसका फायदा उठाती रही हैं।

इस घटनाक्रम से मोदी कमजोर पड़े हैं और सत्ता प्राप्ति की योजनाओं में किये गये अवैध, अनैतिक कामों में भागीदारी करने वालों का दबाव बढ सकता है। भाजपा की सफलता में महाभारत की तरह की कूटनीतियों की बड़ी भूमिका रही है, किंतु कूटनीति दुधारी तलवार होती है वह कभी कभी खुद को भी नुकसान पहुँचा देती है। सच तो यह है कि “ दादी के मरने का दुख नहीं है, दुख तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है”।

वीरेन्द्र जैन

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