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खाद्य असुरक्षा और व्यापार माया

वित्तीय प्रेस, दुनिया भर में, जिनेवा में हाल ही में हुई विश्व व्यापार संगठन वार्ता के पतन के लिए भारत को जिम्मेदार ठहरा रही है। बड़े स्तर पर गलत सूचना अभियान को देखते हुए, जिसका कि ज्यादातर भारत में पूंजीवादी प्रेस द्वारा नगाड़ा पीटा जा रहा है, यह जरुरी हो जाता है कि इसके झूठ को पकड़ा जाए, जिसके तहत अफवाह और आधे अधूरे सच को हर दिन फैलाया जा रहा है।

जिनेवा में, भारत और अन्य विकसित देशों (क्यूबा, वेनेज़ुएला और बुलिविया) ने कहा कि खाद्य सब्सिडी के मुद्दे का स्थायी समाधान खोजने के लिए प्रस्तावित व्यापार सुविधा समझौते को प्रासंगिक (TFA) बनाया जाए जोकि गरीबों की जरूरत को संबोधित कर सके। वार्ता इसलिए विफल नहीं हुई कि भारत और कुछ अन्य विकासशील देशों का रवैया अनुचित रहा, बल्कि इसलिए विफल हुई क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने कृषि पर समझौते में उस अप्रिय खंड/हिस्से को बदलने के लिए तैयार नहीं थे जोकि विकासशील देशों को अपने लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से रोकता है।

बाली में पिछली मंत्रिस्तरीय विश्व व्यापार संगठन बैठक में (दिसम्बर, 2013), जी-33 (जोकि विकसित देशों का एक समूह है, जोकि वर्तमान में 43 देशों का समूह है) ने प्रस्तावित किया है कि टी.ऍफ़.ए. तभी आगे बढ़ाया जाए जब विश्व व्यापार संगठन इस बात के लिए राजी हो कि इस समझौते से विशेष रूप से विकृत खंड को हटाया जाए जोकि इसमें 1994 के कृषि पर समझौते के वक्त से इसमें मौजूद है। इस अनुच्छेद के तहत, देशों को कृषि के लिए उनके समर्थन को सीमित करने की बात कही है जिसके मतलब है कि कुल खाद्यान्न उत्पादन का केवल 10% ही सार्वजनिक भंडारण के लिए रखा जा सकता है। भारत में लंबे समय इस तरह की समर्थन वाली परम्पराओं को लागू किया जा रहा है जैसे: खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों और कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के लिए खाद्यान्न की खरीद। सब्सिडी पर कैप भारी पड़ती है क्योंकि सब्सिडी को 1986-88 कृषि कमोडिटी की कीमतों के आधार पर निर्धारित किया गया जो आज तक आस्तित्व में है। अगर खाद्य सब्सिडी पर कैप को लागू करना है, तो यह खाद्यान्न की 60 किग्रा प्रति व्यक्ति के प्रावधान को खण्डित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को खतरे में दाल देगा जिसे कि भारतीय संसद ने पास किया है। हालांकि, कृषि समझौते  में सरासर निर्मित अन्याय इस बात को सुनिश्चित करता है कि अमरीका कोई भी दंड नहीं लगाएगा चाहे फिर कई कार्यक्रमों के तहत खाद्य समर्थन के लिए 385 किलो अनाज़ प्रति व्यक्ति का प्रावधान, खाद्य कूपन, बाल पोषण कार्यक्रम आदि के तहत दिया जा रहा हो। बाली में, आखिरी मिनट में एक सौदा हुआ, जिसके तहत खाद्य सब्सिडी पर इस अनुच्छेद को नहीं हटाया गया, लेकिन 2017 तक इस प्रावधान के समाधान को लागू करने से रोक दिया गया,(तथाकथि “शांति अनुच्छेद” के तहत) और वह उसके आखरी समाधान के लिए लंबित पड़ा हुआ है।

  कृषि पर समझौते में दोहरे मापदंड

आइये हम विश्व व्यापार संगठन समझौते में कृषि पर समझौते (AoA) के अन्यायपूर्ण अनुच्छेद  जिस पर कि 1994 में हस्ताक्षर किए गए थे की जांच करें। जिस बुनियादी सिद्धांत के तहत कृषि पर समझौता कार्य करता है उसके तहत देशों को अपनी कृषि उपज पर सब्सिडी नहीं देनी चाहिए, क्योंकि यह वैश्विक व्यापार को ‘धवस्त’ कर देगा। इसके परिणाम के रूप में सभी देशों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, को दी जा रही सब्सिडी के स्तर की घोषणा करनी होगी – जिसे कि समर्थन का कुल लक्ष्य (AMS) कहा गया है। ज्यादातर विकसित देश (जिसमें बहरत सहित 61से 71 देश हैं) ने या तो समर्थन के कुल लक्ष्य को शून्य या नकारात्मक घोषित किया है, क्योंकि वे कृषि उत्पाद पर सब्सिडी देने के लिहाज़ से काफी गरीब हैं। इसके विपरीत विकसित देशों में समर्थन का कुल लक्ष्य (AMS) काफी उच्च स्तर पर है। समझौते के तहत समर्थन के कुल लक्ष्य में 1995-2001 के 6 साल के दौरान 20% की कटौती करनी थी। क्योंकि 1994 में समझौते पर हस्ताक्षर करते वक्त विकसित देशों ने बहुत अधिक सब्सिडी दिए जाने की सूचना दी थी, यहाँ तक कि बड़े स्तर पर कटौती के बावजूद अमरीका को विशाल 19 अरब डॉलर और यूरोपियन यूनियन को 72 अरब यूरो की सब्सिडी देने की अनुमति मिल गयी, इसके विपरीत, विकसित देशों ने अपने आपको शून्य सब्सिडी निजाम में बंद कर लिया, और वे उस समझौते से बांध गए जिसमे भविष्य कोई सब्सिडी दिए जाने की मनाही थी।

कहानी यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। कृषि पर समझौता में भी घरेलू कृषि को समर्थन करने के लिए कुछ उपायों को परिभाषित किया गया है जिन्हें 'गैर व्यापार विकृत' कहा गया है। इन उपायों को तथाकथित 'ग्रीन बाक्स' में रखा जाता है और इस तरह की सब्सिडी की कोई सीमा नहीं है। विकसित देशों, बहुत चतुराई से, 'ग्रीन बाक्स' में शामिल, वे कृषि को कई प्रकार के घरेलू समर्थन पहले से ही प्रदान कर रहे हैं, जबकि विकासशील देश इस इंतिख़ाब का इस्तेमाल करने में असमर्थ हैं क्योंकि उनके पास इन सब्सिडी को उपलब्ध करने के लिए पैसा नहीं है। ‘ग्रीन बॉक्स’ सब्सिडी मे पर्यावरण के बचाव का प्रावधान है और किसानों को सब्सिडी का जिनका सीधे तौर पर उत्पादन से कोई सम्बन्ध नहीं है – जैसे कि उत्पादकर्ता को सीधे अदायगी, अयुग्मित आय समर्थन ( भूस्वामी को समर्थन देना चाहे वे युत्पादन करें या न करें); भिन्न तरह की बीमा अदायगी, अवकाश ग्रहण करने वाले उत्पादकों, आदि को ढांचागत समायोजन के तहत सहायता।

इस प्रकार, विकसित देश, दोनों मोर्चों पर लाभान्वित हुए। वे सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा बनाए रखने में सक्षम रहे, जिसे  'व्यापार विकृत' कहा गया है, और उसी समय उन्होंने बड़ी हुयी सब्सिडी को जारी रखा जोकि ‘ग्रीन बॉक्स’ में निहित थी। किस हद तक वे इसमें सफल रहे यह विश्व व्यापार संगठन के आंकड़ों से जाना जा सकता है जिसके तहत कृषि के लिए घरेलु समर्थन 1995 में 61अरब डॉलर से बढाकर 2010 में 130 अरब डॉलर कर दिया। युरिपियाँ यूनियन के सम्बन्ध में कृषि के लिए घरेलु समर्थन में 1995 के 90अरब यूरो के मुकाबले 2002 में गिरकर 70अरब यूरो रह गयी और 2006 में फिर से बढ़कर 90 अरब यूरो हो गयी।  

अन्यायपूर्ण प्रावधानों सेखाद्य सुरक्षा को खतरा

विवाद के अंतर्गत वर्तमान में जो मुद्दे हैं जिन्होंने भारत को जेनेवा में वार्ता रोकने के लिए मजबूर किया – वह है खाद्य सुरक्षा के लिए सार्वजनिक भण्डारण – जोकि वास्तविक रूप से ‘ग्रीन बॉक्स’ के तहत निहित है। हालांकि, सार्वजनिक भंडारण को शामिल किए जाने के लिए  उन्हें कुछ शर्तों के द्वारा सीमित किया गया है। कृषि पर समझौता कहता है कि सरकारें उत्पादकों से खाद्य खरीद सकती है और उनका वितरण के लिए भंडारण कर सकती है बशर्ते उन्हें ‘मौजूद बाज़ार दर’ पर खरीदा जाए और जोकि मौजूदा घरेलु कीमत से नीचे न हो। यह बताता हेई कि खरीद कीमत और 'बाहरी संदर्भ मूल्य' के बीच के अंतर को इसमें शामिल किया जाना चाहिए जिससे कि समर्थन का कुल लक्ष्य (AMS) में इसको शामिल किया जा सके, जिसे तथाकथित ‘विकृत व्यापार' सब्सिडी कहा जाता है। नाटक यहीं खत्म नहीं होता। इस 'बाहरी संदर्भ कीमत’ का जोड़ 1986-88 के वस्तुओं की कीमत के आधार किया गया है। देशों को खाद्यान्न के विशेष उत्पादन का कुल उत्पादन मूल्य का 10% समर्थन देने के लिए अनुमति दी गयी जिसे कि (डे मिनिमी समर्थन कहा गया)। दुर्भाग्य से इस संदिग्ध कहानी में इससे भी ज्यादा और कुछ है। विश्व व्यापार संगठन के एक अत्यंत विकृत ढंग से समर्थन के स्तर की जांच करना चाहता है। डे मिनिमी समर्थन की अपनी व्याख्या है कि, अगर एक सरकार उत्पादकर्ता से केवल छोटा सा ही अंश खरीदता है, तो समर्थन का कुल लक्ष्य को इस अनुमान के आधार पर गिनती कि जायेगी कि जैसे सरकार ने सारा उत्पाद कहरी लिया है।

यह गणित बताता है कि भारत की खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने के लिए - बेहद मामूली ढंग शुरू करना होगा -  यह देखना होगा कि भारत लगभग 10% की सीमा तक पहुंच जाए। दुसरे शब्दों में, योजना का एक छोटा सा भी विस्तार भारत को कृषि पर समझौते के उलंघन की स्थिति में रख देगा और शायद इसके लिए उस पर दंड भी लगे जा सकता है। वास्तव में सरल हिसाब यह बताता है कि अगर सब्सिडी तत्व मौजूदा बाज़ार कीमत पर आधारित हो तो भारत में 10% की सीमा के पास कहीं भी नहीं पहुंचेगा। वास्तव में भारत का खरीद मूल्य, बाजार की मौजूदा कीमतों की तुलना में बहुत अधिक नहीं हैं, इसलिए मौजूदा सब्सिडी का हिसाब बहुत छोटा होना चाहिए। लेकिन, चूँकि इन का हिसाब वे 1986-88 की कीमतों (कुछ मामलों में यह मौजूद कीमतों का 6वा हिस्सा है) के आधार पर लगा रहे हैं, सब्सिडी की गणना गुब्बारे की माफिक कि गयी और भारत के लिए इसकी खाद्य सुरक्षा योजना के नीतिगत फैसले के लिए बहुत कम रास्ता छोड़ा गया है।

बाली में समर्पण, जिनेवा में बहाली

यहां तक ​​कि एक आम पर्यवेक्षक भी स्पष्ट रूप से कृषि पर समझौता (AoA) का प्रावधान अन्यायपूर्ण को समझ सकता है, और दो ​​दशक पुराने मूल्यों को घरेलू समर्थन पेगिंग का आधार बनाना हास्यास्पद लगेगा। सार्वजनिक भण्डारण को  'ग्रीन बाक्स' में शामिल करना भी हास्यास्पद है और फिर सूए विभिन्न शर्तें लगाकर सिमित कर देना, जबकि ‘ग्रीन बॉक्स’ में निहित सब्सिडी जिनका कि विकसित देश बड़ी आजादी से इस्तेमाल करते हैं जोकि किसी भी स्थिति से भार रहित हैं। निश्चित तौर पर विकासशील देशों कृषि पर समझौते (AoA) से इस अन्यायपूर्ण शर्त को हटवाना चाहते हैं। विश्व व्यापार संगठन की बाली बैठक से पहले G33 देशों ने एक सरल समाधान का प्रस्ताव किया था – कि सार्वजनिक भंडारण को किसी भी शर्त से मुक्त किया जाना चाहिए और देशों को इसकी आज़ादी होनी चाहिए कि भविष्य में घरेलु मांग के आधार पर इसमें किसी भी हद तक वृद्धि करने की भी गुन्जायिश होनी चाहिए। विकसित देशों ने इसे अस्वीकार कर दिया और इसके बजाय एक तथाकथित 'शांति अनुच्छेद' को प्रस्तावित किया। शांति अनुच्छेद' के अनुसार किसी भी जवाबी कार्रवाई पर 4 वर्ष अधिस्थगन की मांग रखी गयी ताकि अगर कोई देश सार्वजनिक न्हान्दारण के मामले में 10% से अधिक में संलगन पाया जाता है।

कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार बाली में 'व्यापार सुविधा समझौते' (TFA) का एकदम समर्थन करने के लिए सहमत हो गयी थी और (और तेजी से विकसित देशों द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा) खाद्य सुरक्षा पर 'शांति अनुच्छेद' के बदले में विचाराधीन था। यह भी कि 4 वर्ष अधिस्थगन अवधि में एक खाद्य सुरक्षा और खाद्य भण्डारण के मुद्दे पर स्थायी समाधान बातचीत के जरिए निकालने की सहमति हुई। यद्दपि यूपीए सरकार ने बाली में 'जीत' का दावा किया था जबकि उस समय, कई विश्लेषकों का मानना था कि बाली में हुआ समझौते त्रुटिपूर्ण था और उसमें केवल विकसित देशों का पक्ष लिया गया है। जबकि TFA के प्रावधानों को तुरंत लागू करना होगा, खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर एक समझौते का वादा एक अस्पष्ट आश्वासन और बिना किसी निश्चित समय के निर्धारण के आधार पर था। विकसित देशों को  TFA से जो चाहिए था वह उसे मिल गया के बाहर क्या चाहते थे, इसलिए खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर उनके आश्वासन पर तर्क करने से  से उन्हें रोका जा सके ऐसा कुछ भी नहीं था। इस बार, जेनेवा में भारतीय वार्ताकारों ने सही ढंग से काम किया और कहा कि खाद्य सुरक्षा पर विकासशील देशों की चिंताओं जब तक दूर नहीं किया जाता हैं जब तक TFA पर हस्ताक्षर नहीं किये जायेंगें।

व्यापार सुविधा या 'माया'?

हम कहानी के दूसरे भाग पर चलते हैं - व्यापार सुविधा समझौते (TFA) जिसे विकसित देशों द्वारा आक्रामक तरीके से लागू करने की कोशिश की जा रही है। व्यापार सुविधा समझौते के पतन को व्यापक रूप से एक प्रतिगामी कदम के रूप में देखा जा रहा है जोकि एक "खरब डॉलर" के सौदे की संभावना को पीछे धकेल दिया। नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वार्ता के विफल होने से वैश्विक व्यापार में एक बड़े पैमाने पर होने जा रहे विस्तार धक्का लगेगा। कभी भी पूंजीवादी प्रेस में विवादास्पद मुद्दा पर बहस नहीं हुयी, क्या वैश्विक व्यापार में विस्तार सभी देशों के लिए एक 'जीत' की स्थिति है? व्यापार सुविधा समझौते, नीतियों पर केंद्रित सरलीकरण के उपायों के लिए है, सौहार्द और सीमा प्रक्रियाओं के मानकीकरण (जैसे कि सीमा शुल्क नियम)। यह अन्य विश्व व्यापार संगठन के समझौतों, डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटान तंत्र के अधीन हैं जैसे नियम बाध्यकारी बना दिए गए।

यह अमेरिका, समझा जा सकता है कि यूरोपीय संघ और अन्य विकसित देशों की इस समझौते में दिलचस्पी होगी क्योंकि वे वैश्विक व्यापार पर हावी है और इसके विस्तार में उन्हें लाभ होगा। हालांकि, विकासशील देशों को कोई लाभ नहीं होगा यह पूरी तरह स्पष्ट हैं। वर्तमान में विकासशील देशों को व्यापार में बाधाओं का सामना करना पड रहा है, सामंजस्य सीमा नियमों की कमी की वजह से नहीं बल्कि उनमे उत्पादों का निर्यात करने की क्षमता की कमी है और  उनके निर्यात विकसित देश के बाजारों में कई बाधाओं का सामना करते हैं। इनमें से किसी भी समस्या को व्यापार सुविधा समझौते के भीतर संबोधित नहीं किया जा रहा हैं, और इन हालात में वैश्विक व्यापार के  विस्तार में नकारात्मक व्यापार संतुलन बढ़ सकता हैं जिसे कि विकासशील देशों में पहले से ही झेल रहे हैं, उनका निर्यात के मुकाबले में आयात मिओं बढ़ोतरी होगी।

कई विश्लेषकों का TFA के बारे में लगाए गए अनुमानों को अवास्तविक और साधारण बताया है। वे मानते हैं कि व्यापार में किसी भी तरह का विस्तार समान रूप से सभी देशों को फायदा होगा, कि व्यापार के विस्तार के लिए स्वचालित रूप से सभी देशों के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होगी, और कहा कि व्यापार के विस्तार के लिए सभी शर्तों और स्थितियों में रोजगार में वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। 'वैश्विक विकास और पर्यावरण संस्थान के जेरोनिम कापलाड़ो हाल ही में एक समाचार पत्र में इस' ट्रेड माया ' के बारे में कहते हैं: “आधिकारिक अनुमानों के व्यापार सुविधा के लाभ को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं और इसकी लागत की अनदेखी करते हैं। जब सभी अंतर्निहित मान्यताओं को प्रकाश में लाया जाता है तब बड़े लाभ की उम्मीद अनुचित प्रतीत होती है इसी प्रकार, अनुमानित रोजगार लाभ आसानी से शुद्ध नुकसान में बदल सकता है ।।। जबकि व्यापार सुविधा आयात निर्यात कंपनियों के लिए अतिरिक्त व्यापार ला सकता है, यह सभी देशों के लिए एक व्यवहार्य या टिकाऊ विकास की रणनीति नहीं है और इसके जरिए "वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती है”

भारत और व्यापार सुविधा समझौता

एक खरब डॉलर की वृद्धि के मिथक को 2013 में चैंबर ऑफ़ कॉमर्स (आईसीसी) के इंटरनेशनल द्वारा पेश किया गए एक पेपर से पता लगाया जा सकता है। अन्य सकल सरलीकरण के अलावा यह पेपर जोर देता है कि, व्यापार में वृद्धि से केवल रोजगार में वृद्धि होगी, लेकिन यह नहीं बताता है कि कायो देशों में व्यापार विस्तार रोज़गार हानि भी पैदा कर सकता है। मेक्सिको के आंकड़े बड़ा उदाहरण हैं, व्यापार समझौतों के संबंध में सबसे अच्छा अध्ययन है - उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौता (नाफ्टा)। 2006 में (नाफ्टा के 12 साल के हस्ताक्षर करने के बाद), जबकि मेक्सिको ने औद्योगिक क्षेत्र में 700,000 नौकरियों प्राप्त की, और कृषि में इसने करीब 2 लाख नौकरियों को खो दिया 1 के 2।86 के अनुपात में था। अगर इसी आंकड़े को TFA के प्रभाव के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो, दक्षिण एशिया को दस लाख से अधिक नौकरियों का विनाश देखना होगा! एक खरब डॉलर के व्यापार विकास प्रचार की तरह, ये सब वर्तमान में काल्पनिक आंकड़े हैं। यह जानते हुए कि हमारे पास कोई डेटा या सबूत नहीं है, आँख बंद करके TFA समर्थन करने का मतलब विकासशील देशों के लिए उजड्ड होगा। मजे की बात है, आईसीसी पेपर ने ऊपर बताया कि, TFA से कम से कम लाभ वाली परियोजनायें दक्षिण एशिया को प्राप्त होंगीं – एक ख़रब डॉलर के विकास का मात्र 0।5%।

वर्तमान भाजपा सरकार ने अपनी पूर्ववर्ती सरकार से नव-उदारवादी नीतियाँ विरासत में ली है, इसने भी TFA के संबंध में कोई भी विपरीत विचार व्यक्त नहीं किया है। व्यापार सुविधा समझौते के जरिए विकसित देश विश्व व्यापार संगठन से खून की आखिरी बूंद निकालने चाहते  है। भारत जेनेवा में कुछ हिम्मत दिखाई। क्या यह ऐसा करना जारी रखेगा और भी TFA के मुद्दों और उद्देश्य पर सवाल उठा सकेगा?  और क्या यह यह नव-उदारवादी लोकाचार से जुड़ा रहेगा  और साबित करेगा कि जिनेवा केवल एक पैन में एक मांस का टुकड़ा है?

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

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