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खंडित जम्मू-कश्मीर: मास्टर-स्ट्रोक या एक भयानक गलती 

कश्मीर से निकले कथानक पर अभी भाजपा का वर्चस्व है लेकिन वहां पर चल रहे हद से अधिक अनिश्चित और दमन वाले माहौल के परिणाम से उपजने वाले हालात का अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।    
jammu and kashmir

भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त करना एक मास्टरस्ट्रोक है या भयानक गलती है,यह कहना अभी मुशिकल होगा।  इसकी  वजह से कश्मीर में अभी ये स्थिति है कि राजनीतिक संवाद और स्वायत्तता को एजेंडे से हटा दिया गया है। एक "विशेष दर्जे " वाले राज्य को केंद्र शासित / प्रशासित क्षेत्र में तबदील कर दिया गया है। संवैधानिक कानून के तहत जे एंड के विधानसभा की सहमति लिए बिना मनमाने तरीके से इसे थोप दिया गया। इसकी  कोई गुंजाईश ही नही है कि स्थानीय लोगों को इस मामले में सुना जाता, उलटे वे अपने घरों में ही कैद कर दिए गए हैं और उनके रोजमर्रा के जीवन कडी़ पाबंदी लगा दी गई है ताकि उन्हे चुप रखा जा सके।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब भाजपा सरकार ने "डिजिटल इंडिया" शुरू किया तो और भारत में अधिक से अधिक डिजिटल लेन-देन के लिए जोर दिया अया, तो जम्मू-कश्मीर में सरकार ने इंटरनेट और मोबाइल टेलीफोनी पर अपनी मर्ज़ी से लंबे समय के प्रतिबंध लगाए जिससे व्यापार, पेशा, बैंक, शैक्षणिक संस्थान और हर रोज़ के काम आदि के लिए नेट कनेक्टिविटी महत्वपूर्ण हो गई है, वहां इसका काफी नुकसान हुआ। इसके परिणामस्वरूप, कश्मीर में भारतीय शासन ने उत्पीड़न का एक नया पन्ना खोल दिया, जिसमें लोग अपने हितों और अपनी भलाई की रक्षा नहीं कर सकते हैं। नतीजतन, खंडित और केंद्र प्रशासित कश्मीर में लोगों के लिए एक चट्टान और कठोर जगह के बीच चुनने का विकल्प रह गया था, एक ऐसी जगह जहां वे या तो वंचित खिलाड़ी, या फिर अपने प्रतिरोध की वजह से जिंदा है।

भारत के इस कदम ने कश्मीर में भारतीय समर्थक राजनीतिक दलों का विध्वंस किया और अलगाववादियों के होंसले को बढ़ावा दिया है, जिन्हें अब नई व्यवस्था में उपयोगी नहीं माना जा रहा है। उनके नेताओं को बदनाम किया गया और उने हिरासत में रखा गया है। यह अपने आप में बहुत ही पेचीदा है कि भारतीय सेना ने अब तक यही कहा था कि सेना केवल व्यवस्था को बनाए रख सकती है, लेकिन समाधान के लिए राजनीतिक पहल की आवश्यकता है, अब वह भी सरकार के जाल में फंस गयी और कश्मीरियों को जबरन चुप कराने में सरकार की मदद कर रही है।

यह सब हालात भाजपा को उनके अपने वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में सक्षम बनाता है, जिसमें कश्मीर में लोकतांत्रिक परिवर्तन की शुरूआत करना भी शामिल है। अब जो कुछ भी देखा जा सकता है वह यह है कि दमन बढ़ेगा और लोग पीड़ित होंगे, किस तरह से लोगों के साझा इतिहास और पीड़ा को जीने का अनुभव उन्हें किस ओर जाने के लिए प्रेरित करेगा?

एक नए संकट का खड़ा होना 

सभी परिदृश्यों में, जिनके बारे में नीति निर्धारक और फैसला लेने वालो ने पूरे जायज़े के बाद जो फैसला लिया और जिसके लिए तैयारी की, उससे नही लगता कि उन्हे निश्चित तौर पर पता था कि लोग इस पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे, उन्हें केवल इतना पता था कि प्रतिक्रिया जरूर देंगे। बीजेपी ने अपने शिविर के नए और पुराने अनुयायियों को आश्वासन दिया है कि सरकार हर बात का प्रबंधन कर लेगी और विश्व समुदाय भारत को धोखा नहीं दे पाएगा, क्योंकि उन्हे बताया जाएगा कि ये विशेष दर्ज़े को निरस्त करने का सरकार का तरीका "स्थायी समाधान" है जिसे भारत ढूंढ रहा था।

लोगों को सप्ताहों के लिए बंद करना एक बात है (27 अगस्त, 2019, लॉकडाउन के 22 दिन होने के नाते), लेकिन 1 अगस्त से सभी संचार के माध्यम अवरुद्ध कर दिया गया यह दिखाने के लिए कि सब कुछ नियंत्रण में है, लेकिन जमीन पर जो हो रहा है वह पूरी तरह से अलग है। क्या प्रशासन ने अंदाज़ा लगाया था कि लोग निष्क्रिय प्रतिरोध का विकल्प चुन सकते है? सशस्त्र उग्रवादियों के प्रतिरोध से अधिक लोग वास्तव में एक अहिंसक सामूहिक अभिव्यक्ति को पसंद कर सकते हैं, क्योंकि सरकार द्वारा दुर्जेय बल की तैनाती के साथ भयंकर दमन और हमला कर रही है? अगर ऐसी अहिंसक अभिव्यक्तियों के खिलाफ सरकार हथौड़े या दमन का अभियान चलाती है, तो ऐसा करना स्वाभाविक रूप से एक साम्प्र्दायिक नशे तथा सत्ता के नशे में चूर सरकार ही कर सकती है।

क्या यह उग्रवाद को बढ़ावा देने के साथ-साथ उन राष्ट्रविरोधी ताकतों को चारा नही देगा, जो कश्मीर के हालात का फायदा उठाना चाहती है? इस बढ़ते दमन के परिणाम स्वरुप, यह भी ज़मीन तैयार होगी कि सरकार फिर से जम्मू-कश्मीर के “प्रबंधन” करेगी? या अब इसे "सामान्य" घोषित करने में समय लग सकता है, जिसका अर्थ है कि बंदूक की नाल के माध्यम से लाई गई शांति, अंतर्राष्ट्रीय जनमत के साथ-साथ भारतीय जनमत, जो कि अभी तक अंध राष्ट्रवाद के एक कॉकटेल पर जिंदा है,  स्थिति को भारतीय शासकों के लिए ओर खराब बना देगा।

यकीनन, सरकार ने कश्मीर पर नई दिल्ली से शासन करने के लिए एक इसे एक आभासी उपनिवेश में बना दिया, अपने फैसले में कभी भी बदलाव ला सकती है। एक मजबूत दक्षिणपंथी सरकार के सामने एक कमजोर विपक्ष है और मीडिया अपनी बोली लगाए हुए है, उदाहरण के लिए उनके पास ऐसा करने का अवसर और क्षमता है। दुर्भाग्य से, भाजपा सरकार ने जो कदम उठाया है, उसमें पीछे जाने की कोई जगह नहीं है। कश्मीर के "पूर्ण विलय" में निवेश करने के बाद, वे इसे इसके तार्किक अंत तक ले जाने की अधिक संभावना रखते हैं बजाए इसे न करने के। हर तरह के परिदृश्यों पर खुले तौर पर सत्ता के गलियारों में चर्चा की जा रही है, जबकि स्वायत्तता की वकालत करने वाले कुछ ही लोग बचे हैं।

वे कश्मीरी जो अपनी स्वायत्तता को नष्ट करने के अनुभव से खुद गुज़रे हैं अब वे इसके उन्मूलन से ख़ुश हैं, जानते हैं कि स्वायत्तता ने अपना समय पुरा कर लिया है। इसलिए आज कोई बीच का मैदान उपलब्ध नहीं है या संभव भी नहीं है। बीच का मैदान अधिकारियों के लिए तब मायने रखता है जब उस पीछे छलना मुश्किल हो जाता है और सरकार को अपने दृष्टिकोण को संशोधित करना पड़ता है। यह अवसर अब उपलब्ध नहीं है।

जम्मू और कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त करने के बाद देश भर में मनाया जाने वाला उत्सव यह दर्शाता है कि देश ने कितनी दूर तक पिछड़ गया है। कश्मीरियों पर सामूहिक दंड लागू करना, उन्हें विजय प्राप्त करने जैसा लग रहा है, उन्हें कर्फ्यू के तहत घर के अंदर रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, 173 नेताओं सहित 2300-6000 कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया हुआ है और हजारों युवाओं को पहले 'पत्थर फैंकने' के लिए निशाना बनाया गया है और उन्हे फिर से पुलिस थानों में बुलाया जा रहा है और हिरासत में लिया जां रहा है जहाँ उन्हें कथित तौर पर पीटा जाता है और गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी जाती है। स्थानीय मीडिया को चुप करा दिया गया है, और फर्जी खबर को अधिकारियों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है। कोई भी स्थानीय रिपोर्टर विरोध प्रदर्शन, झड़प, छर्रों और गोलियों के उपयोग और/या हताहतों की संख्या के बारे में रिपोर्ट करता या हिम्मत करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी जाती है। यह सब 950,000 सैनिकों की असाधारण तैनाती के साथ करीब अस्सी लाख कश्मीरी मुसलमानों यानी निहत्थे कश्मीरी नागरिकों के “प्रबंधन” के लिए किया गया है।

दूसरे शब्दों में कहें तो, खूबसूरत  कश्मीर को सशस्त्र सैनिकों की मौजूदगी ने बदसूरत बना दिया गया है, चारों ओर दिखाई देने वाली कंसर्टिना के तारे, बंकरों, चौकियों और शिविरों से ढकी सड़कें और आक्रामक गश्त लगाती सेनाएं हैं।  यह हालात वर्तमान में भारत सरकार और नागा समूहों के बीच विशेष रूप से एनएससीएन (आईएम) के बीच बातचीत जो समाधान के काफी निकट है को प्रभावित कर सकता है, लेकिन सरकार के समर्थकों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। खासकर, तब जब भारतीय प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में NSCN (IM) ने हाल ही में इस समझौते को पार लगाने के लिए एक अलग ध्वज और एक संविधान की मांग दोहराई। संक्षेप में स्वायत्तता के प्रतीक जो जम्मू-कश्मीर की अब तक की पसंद थे।

बहुसंख्यक भारतीय जनता संप्रभु समझौतों (मिलन सन्धि) की पवित्रता, संवैधानिक गारंटी (अनुच्छेद 370) या यहां तक कि हठधर्मिता के आधार पर लिया गया राजनीतिक पतन का फैसले की परवाह नहीं करती है। किसी भी स्थिति में, J & K के केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव केवल 2021 तक ही होंगे, क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्रालय औपचारिक रूप से चुनाव आयोग को परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करने के लिए कह सकता है, जो केवल 31 अक्टूबर, 2019 के बाद ही शुरु की जा सकती है। परिसीमन का काम, चुनाव आयोग का कहना है, अपने आप में एक वर्ष ले लेगा। "राष्ट्रीय हित" के नाम पर न केवल हताहतों की संख्या बढ़ेगी, बल्कि संवैधानिक स्वतंत्रता का निलंबन होगा, और यहां तक कि झूठ को भी महान सत्य माना जाएगा।

यकीनन, अधिकांश राष्ट्र-राज्य इस रास्ते का अनुसरण करते हैं जहां कानून मायने नहीं रखते, नियमों को तोड़ा जाता है, दमन प्राथमिकता होती है और लोगों को बहुमतवादी  आदेश को मानने के लिए मजबूर किया जाता है। सिवाय इसके कि,अब परिस्थितियों में बदलाव आ गया है और हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं न कि 16 वीं, 17 वीं, 18 वीं, 19 वीं या 20 वीं सदी में। जम्मू और कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच एक अनसुलझे विवाद का हिस्सा है, जिसका विभाजन हुआ है और संयुक्त राष्ट्र ने 1948 से इस मामले को अपने पास रखा है।

भारत इस तथ्य को रोक नहीं सका कि 50 साल के विराम के बाद यूएनएससी ने कश्मीर के सवाल को अपने एजेंडे पर वापस ले लिया है। और भारत को कश्मीर पर अपने खिलाफ की जा रही आलोचना को कुंद करने के लिए अमेरिका (और कुछ हद तक फ्रांस का भी ) का सहारा लेना पड़ रहा है क्योंकि वह यह सब अपने दम पर नहीं कर सकता है। और अब जब यूएनएससी ने इस मामले को अपने तहत कर लिया है, तो आने वाले महीनों और साल में नियंत्रण को नुकसान पहुंचाने के लिए भारतीय राजनयिकों द्वारा बढ़ाई गई गतिविधि दिखाई देगी। अगर स्थिति विकट बनी रही, तो दबाव बढ़ेगा और भारत के लिए परेशानी भरा साबित होगा।

अभिव्यक्ति की आज़ादी 

भारतीय अधिकारी उन विरोधाभासों को भी नजरअंदाज कर रहे हैं जो सामने आ रहे हैं। उदाहरण के लिए, बीजेपी, कांग्रेस, नेशनल पैंथर्स पार्टी आदि के स्थानीय नेताओं ने अनुच्छेद 35 ए (जो स्थानीय लोगों के लिए भूमि और आरक्षित नौकरियों की रक्षा करते हैं) को निरस्त करने का स्वागत किया, अब वे स्थानीय लोगों के लिए उनकी जमीन और नौकरियों की रक्षा के लिए डॊमिसाईल स्टेटस की मांग उठा रहे हैं। कुछ तत्व जम्मू को एक अलग पूर्ण राज्य के रूप में डोगरा गौरव को बहाल करने की मांग कर रहे हैं। इस कदम को उठाने वाले कई नेताओं को जम्मू में हिरासत में ले लिया गया है। इसका मतलब यह है कि शेख अब्दुल्ला के शासन के तहत कठोर भूमि सुधारों (1948-52) की वजह से भूमि अधिकार हासिल करने वाले डोगरा हिंदू, दलित और मुस्लिम, मुख्य रूप से निचली जातियों के लोगों को बाहरी लोगों के हाथों अपनी बहुप्रतीक्षित भूमि और नौकरी के अवसर खोने के चांस हैं।

इसके अलावा, यह तथ्य कि जम्मू आधारित पार्टिया और उनके नेताओं कि मांग कि उनकी भूमि और नौकरियों को संरक्षित किया जाए, खुद ही कश्मीरी को बाहरी लोगों से अपनी भूमि और नौकरी को बचाने को जायज़ ठहराता हैं। यह दो क्षेत्रों और दो समुदायों के बीच एक पुल प्रदान करता है। इसलिए यह मानना कि भाजपा जम्मू में बाहरी लोगों को आसानी से ला सकती है, या कश्मीर में हिंदू बस्तियों को स्थापित कर सकती है, आसान नही है। जो भी हो, स्थानीय लोगों और बाहरी लोगों के बीच भूमि अलगाव और नौकरियों के लिए बढ़ी प्रतिस्पर्धा आग में ईंधन का काम करेगी।

अफसोस, भारतीय न्यायपालिका ने हैबियस कॉर्पस दलीलों को लेने से इनकार कर दिया है, और धारा 370 और 35 ए के निरस्तीकरण पर तेजी से सुनवाई शुरु कर दी है। हजारों लोगों को इस संदेह के आधार पर हिरासत में ले लिया गया है कि वे कम से कम दस लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं और विरोध प्रदर्शनों को गति दे सकते हैं, इसका मतलब है कि न्यायपालिका के डर के बिना जासूसी / गिरफ्तारी हो सकती है। इस प्रकार अतीत में कार्यकारी आदेशों को मंजूरी देने में न्यायपालिका की भूमिका के साथ-साथ सुरक्षा बलों की आक्रामकता के शिकार लोगों को रक्षा देने में असमर्थता आज विश्वास को बढ़ावा नहीं देती है कि उन पीड़ितों को न्याय मिलेगा।

भारत का कॉरपोरेट मीडिया ने भी यह साबित कर दिया है कि वे सरकार के प्रचारकों से ज्यादा बेहतर नहीं हैं, क्योंकि वे भी वही कर अर्हे हैं जो सरकार उनसे प्रचारित करवाना चाहती है, वे केवल उसे बढ़ा कर या तर्कसंगत साबित कर पेश कर रहे है। अधिकांश मीडिया आउटलेट भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान पर हथौड़ा चलाकर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। कॉरपोरेट मीडिया हाउस के लिए काम करने वाले रिपोर्टर "राष्ट्रीय हित" के नाम पर ज़ाली समाचार का रोपण करते हैं। वास्तव में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए की गई थी। लेकिन अब यह मीडिया के लिए बड़े पैमाने पर अंधविश्वासी और जिंगोइज्म से जुड़े हुए हैं और मिथ्याकरण के एक नए रास्ते का प्रतिनिधित्व करते हैं।

लेकिन इसका मतलब यह भी है कि उनके झूठ का मुकाबला करना आसान होगा क्योंकि वे इसके बारे में दुस्सहसी हैं और इसे "राष्ट्रवाद" के रूप में दिखाते हैं। मैं "फैक्टचेक” की रपट पर ध्यान दिला दूं: वैंकेया नायडू ने अनुच्छेद 370 के विरोध पर अंबेडकर के दावे का नकली उद्धरण का इस्तेमाल किया था"{अजोय आशीर्वाद महाप्रस्था, द वायर अगस्त 23, 2018] ऐसा एक झूठ जिसे भारत के उपराष्ट्रपति ने इस्तेमाल किया था। उन्होंने जनसंघ के नेता बलराज मधोक द्वारा अंबेडकर पर लिखित कुछ बातें सुनाईं। इससे भी बुरी बात यह है कि जिस अखबार में यह फेकरी छपी, उसने अपने पाठकों से माफी माँगने की भी जुर्रत नही की।

सोशल मीडिया मिश्रित राय लेकर चलता है। नए "दिल्ली दरबार" के दक्षिणपंथी राजनेताओं और दरबारियों ने महिला विरोधी और हठधर्मिता और कट्टरता की सोच को काफी निचे के स्तर तक ले गए है। एक मुख्यमंत्री ने कश्मीरी महिलाओं के बारे में भद्दी बात कही यह मानकर \ जैसे कि वे 'युद्ध में जीती हुई धरोहर  हैं, जिसे खरीदा, बेचा, अधिग्रहित किया जा सकता है। अन्य को अपनी शिकारी फंतासी को साकार करने के लिए वहां की ज़मीन को हड़पने का इंतज़ार है। इस कपटी खेल में विषैला भाषण और कार्रवाई "राष्ट्रीय हित" का पर्याय बन गए हैं। सभी अपराधियों या बेईमानी करने वाले लोगों को देशभक्तिपूर्ण बयानबाजी, राष्ट्रीय ध्वज और/ या "भारत माता" की जय बोलना है, जिससे वे अपने अपराधों को 'धो सकते है'। भाजपा नेताओं के नेतृत्व ने अपहरण, अत्याचार करने, गैंगरेप करने वाले आरोपियों का समर्थन किया और जम्मू-कश्मीर के कठुआ में आठ साल की बच्ची की हत्या करने वालों के समर्थन में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया, "भारत माता" के नारे लगाते हुए नारेबाजी की और उनकी इस समझ का विरोध करने वालो को "देश विरोधी" कहा गया।

बहकावे की स्वायत्तता 
                                  
तथ्य यह है कि अनुच्छेद 370 के तहत दी गई स्वायत्तता  ने धारा 370 को दशकों से बेअसर कर दिया गया है। 1947 से जब केंद्र केवल तीन विषयों पर कानून बना सकता था वह सूची अब 295  विषयों तक पहुंच गयी थी, जो कश्मीरियों से देश के कटाव की यात्रा को चिह्नित करता है। स्वायत्तता का अंतिम चिन्ह वहां के मूल निवासियो के लिए अनुच्छेद 35 ए के तहत भूमि को बाहरी लोगों को बेचने से रोकना  और स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों की रक्षा करना था। यह बात जुदा है कि नौकरियों के अवसर काफी कम है और सशस्त्र बलों ने 100,000 एकड़ भूमि को नियंत्रण में लिया हुआ है। केंद्र की सार्वजनिक इकाइयां भी भूमि कानूनों का उल्लंघन करती हैं और गुलमर्ग में निर्माण पर उच्च न्यायालय के प्रतिबंध के बावजूद वहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान निगम के अफसरों के लिए एक गेस्ट हाउस का निर्माण किया गया। इस प्रकार अनुच्छेद 370 को के सिर्फ लौकिक "खोल" को रखा गया और उस को बेअसर कर दिया गया इसलिए कहा जाए तो यह  नई दिल्ली है, जिसने शेख अब्दुल्ला को अगस्त 1953 में गिरफ्तार करने के बाद सीधे कशमीर पर शासन किया।

दूसरे शब्दों में, 1953 के बाद से कांग्रेस भाजपा और अन्य सरकारों के तहत स्वायत्तता को जो नुकसान शुरु हुआ था, वह अब निरस्त हो गयी है और स्थानीय जनसंख्या को एक सबजेक्ट में तब्दील कर दिया गया है, वह भी नागरिकों के इस गणराज्य में। इस निरस्तीकरण के माध्यम से लोगों की अवनति कर दी गई जिसका हम आज़ सामना कर रहे हैं। इसे जोड़ने की आवश्यकता नहीं है कि पूरे भारत में यह एक खतरनाक मिसाल के रूप में है, जहां कोई भी अन्य स्थानीय समुदाय जिसकी सरकार द्र नहीं बनती या उसके खिलाफ है, वह अपनी नागरिकता के स्टेटस को खो सकते है और एक नए ढंग की अधीनता के दायरे में आ सकते है।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि खंडित जम्मू-कश्मीर अब नई दिल्ली शासित क्षेत्र भी है, जहां केंद्र सरकार का अब भूमि, कानून और व्यवस्था, डी-लिमिटेशन, राजकोषीय नीति, प्रशासन आदि पर पूर्ण नियंत्रण है। जम्मू और कश्मीर के इस अपमानजनक परिवर्तन को औपचारिक रूप से आनंद लेने के लिए "विशेष" स्थिति "अब कम होकर केंद्र शासित हो गई है, जहां स्थानीय आबादी को पूरी तरह से शक्तिहीन बना दिया गया है, इस सब से भारत अब एक अत्याचारी राज्य के खेमे में प्रवेश कर गया है।

इस बीच, केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद में दावा किया कि जम्मू-कश्मीर पर विवाद अब पाकिस्तान और चीन के कब्जे वाले क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने तक सीमित है। लगभग उसी समय भारत के विदेश मंत्री ने अपने चाइनीज काउंटर-पार्ट को सूचित किया कि अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त करके भारत द्वारा कोई क्षेत्रीय दावा नहीं किया जा रहा है और वे चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा और पाकिस्तान के नियंत्रण रेखा का सम्मान करना जारी रखेंगे।

भाजपा सरकार का दावा है कि अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त करने से आतंकवाद और अलगाववाद समाप्त हो जाएगा और विकास की तरफ अग्रसर हो जाएगा। सच्चाई से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता है। अलगाववाद के बीज 1953 में ही बोए दिए गए थे जब से स्वायत्तता का हनन होना शुरू हुआ था। आज इसके निरस्त होने का अर्थ है कि किसी भी राजनीतिक वार्ता के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि जहां तक हिंदुत्व का सवाल है, निरस्तीकरण से समस्या हल हो गई है।

"विकास" के दावे पर तो सवाल यह उठता है कि क्या कोई सार्थक निवेश कश्मीर में आ सकता है, जब स्थिति इतनी अस्थिर और जोखिम भरी है। क्या निवेशक अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए इंटरनेट कनेक्टिविटी और मोबाइल टेलीफोनी को बंद करने के खतरे को उठा पाएंगे? यह मानना कि जो भारतीय कॉर्पोरेट घराने भारत में निवेश करने में इतनी अनिच्छा दिखाते हैं, क्या वे मुनाफे कमानें कि पूँजीवादी पशु भावना ’दिखाएंगे, वह भी इस लड़ाई के मैदान में, जहां दुनिया में इंटरनेट बंद करने की सबसे ज्यादा होती है। यह ध्यान देने योग्य है कि जब जम्मू-कश्मीर ने अक्टूबर 2019 में अपने पहले निवेशक शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने के लिए कदम उठाया था, तो अगस्त की शुरुआत में केंद्र सरकार ने कश्मीर में एक सूखा बंदरगाह बनाने के लिए 1500 करोड़ रुपये की परियोजना को मंजूरी दी, जिसका ठेका फरवरी 2018 में दुबई पोर्ट्स ग्रुप को दिया गया था। इसलिए, यदि एक चालू परियोजना को बंद किया जा सकता है, तो भारतीय कॉर्पोरेट घराने कश्मीर जैसे सैन्य रूप से अस्थिर क्षेत्र में पैसा लगाने का जोखिम क्यों उठाएंगे?

हकीकत और बयानबाजी 

शासकों वर्ग में अपनी शक्ति और प्रभाव को अधिक मापने की प्रवृत्ति होती है और मानते हैं कि सब कुछ क ’प्रबंधन’ किया जा सकता है। इसलिए सरकार के नेता और अधिकारी इस बात पर गर्व करते हैं कि सरकार ने सभी संभावित परिदृश्यों पर नज़र डाल ली है और जो भी चुनौती पेश की गई है वह उससे निबट सकती है। उनका यह भी मानना है कि जब तक बीजेपी सरकार कश्मीर में स्थिति को सामन्य करती है, तब तक स्थानीय कश्मीरी आबादी राहत के लिए इतनी भूखी हो चुकी होगी कि वे भारत के खिलाफ लड़ाई की सोच भी नहीं पाएंगे।

भारतीयों को चारा डाला गया है कि भारत ने जो किया है उसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त है। अन्य खुश हैं कि पाकिस्तान के लिए बहुत कम अंतरराष्ट्रीय समर्थन है। कुछ लोग इस बात पर खुशी जता रहे हैं कि समकालीन दुनिया में जहां बड़ी ताकतें आक्रामकता और दमन करने के बाद छुट जाती हैं, भारत अब उनके दायरे में शामिल हो गया है और अब वह कुछ भी कश्मीरी मुस्लिम आबादी के साथ करता है उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। बहुतों के लिए यह भारत के बढ़ते दबदबे का प्रतीक है। ऐसे समय में जब भारत में कुछ लोग कश्मीरियों के लिए बोल रहे हैं, तो भारतीयों को समझ में आता है कि भारत सरकार इतनी भयभीत क्यों है कि उसे 8 लाख निहत्थे कश्मीरियों को नियंत्रित करने के लिए लगभग 10 लाख सशस्त्र बल के जवानों को तैनात करना पड़ा है?

अनुच्छेद 370 और 35A के प्रचार से ठीक एक महीने पहले आधिकारिक प्रचार में दावा किया गया था कि घुसपैठ में कमी आई है, स्थानीय लोगों की उग्रवादी रैंकों में शामिल होने की प्रवृति में कमी आई है, उग्रवादी संख्या कम हो गई है और सामान्य स्थिति दरवाजे पर दस्तक दे रही है। लेकिन अमरनाथ और अन्य यात्राओं को निरस्त करने से पहले रद्द कर दिया गया और तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को तुरंत घर लौटने के लिए कहा गया। आधिकारिक तौर पर यह दावा किया गया था कि बढ़े हुए अलर्ट का कारण एक आसन्न आत्मघाती हमला है। एक बहाने के लिए इसका उपयोग करते हुए सरकार ने अपनी सेना की संख्या को 950,000 सैनिकों तक पहुंचाया दिया, ताकि लोगों को उनके घुटनों पर लाया जा सके।

कश्मीर पर पाकिस्तान का दांव चलना मुश्किल हो गया है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर है, उसे वित्तीय खैरात की सख्त जरूरत है, वह एफएटीएफ समिति की तरफ से ‘ग्रे लिस्टिंग’ में है और यह इसे कोई भी ज़ोखिम भरी बयानबाजी बाज़ आने के लिए कहती  हैं। कम घुसपैठ और गंभीर अंतरराष्ट्रीय निगरानी के चलते तहत पाकिस्तान ऐसा नहीं है। पाकिस्तान, जो कश्मीर विवाद का एक पक्ष है, सिर्फ ऐसा कुछ कर कर सकता है जो उसके अपने ही लोगों को संतुष्ट करेगा, और कश्मीरियों की दुर्दशा के बारे में अंतर्राष्ट्रीय जनमत में भी सेंध लगाएगा।

पाकिस्तान कुछ सीमाओ में बंध गया है, नवीनतम रिपोर्टें दावा करती हैं कि भारतीय खुफिया द्वारा निगरानी रखने वाले आतंकवादियों के बीच 'सुनी गई बातचीत' से संकेत मिलता है कि पाकिस्तानी आतंकवादी कश्मीर जाने के लिए अनिच्छुक हैं और "यह कहते हुए" सुना गया है कि भारत से लड़ना "कश्मीरियों की जिम्मेदारी" है"। [" पाक आधारित अल्ट्रास वैली को पार करने के लिए अनिच्छुक ", टीएनएस, द ट्रिब्यून 26 अगस्त 2019]। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अफगानिस्तान में अल कायदा और आईएसआईएस के विदेशी लड़कों में इस तरह की कोई झिझक नहीं है। भारत को अलकायदा और आईएसआईएस के विदेशी लड़ाकों के संभावित प्रवेश पर चिंतित होना चाहिए, क्योंकि ये लड़ाके नए स्तरों की हिंसा करेंगे, क्योंकि वे लड़ाकों और नागरिकों के बीच कोई अंतर नहीं करते हैं।

भारतीय सेना को इस बात की भी चिंता होनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में आंतरिक युद्ध में उसकी व्यस्तता कुछ और दशकों तक बनी रहेगी, भले ही कुछ भिन्नता के साथ; इसे अब एक सैन्य समाधान पेश करना होगा क्योंकि जम्मू-कश्मीर विवाद के राजनीतिक समाधान की अब कोई संभावना नहीं बची है। यह बदलाव खुद जोखिम से भरा है। भारतीय सशस्त्र बलों के "दो और आधे युद्ध" लड़ने के सभी लंबे दावों के बावजूद, तथ्य यह है कि कोई भी सेना, हालांकि, इतनी मजबूत नहीं है, जो दो प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पसंद करती हो, खासकर जब वे अपने ही दायरे में एक शत्रुतापूर्ण आबादी का सामना कर रहे हैं। यदि आईएएस सब के साथ उन्हें अलकायदा और आईएसआईएस से भी बचना है, तो भारतीय सेना की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं।

इसके अलावा, बीजेपी ने यह दिखा दिया है कि वह 'दिल और दिमाग जीतने' में विश्वास नहीं करती है। रिपोर्ट से लगता है कि कश्मीरी पुलिस और नागरिक प्रशासन के कर्मचारी अब एक मामूली भूमिका निभाते हैं। जमीन पर मौजुद ऐसे नए तथ्य आंदोलन को अधिक उग्रवादी बना देंगे और उसे कम नहीं होने देंगे। एक हिंदुत्व कट्टरपंथी भारतीय राज्य और जनता की राय में आपसी प्रतिरोध होगा। यदि सरकार ने इस संभावना को स्वीकार किया और इस तरह के पाठ्यक्रम का विकल्प चुना, तो इसकी संभावना है कि वे इससे कुछ लाभ प्राप्त करने की उम्मीद कर सकते हैं। हालांकि, देश और इसके लोगों के लिए जोखिम है और बीजेपी के लिए संभव फायदा है।

फिलिस्तीन और कश्मीर की बराबरी करना

दुनिया के लोगों के बीच अब फिलिस्तीन और कश्मीर को समान रुप से पेश किया जाएगा। भारत भी, इजरायल की तरह, विश्व जनमत को खारिज कर सकता हैं। हालाँकि, इजरायल के विपरीत जो अमेरिका के इशारे पर चलता है, भारतीय संघ खुद को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में पेश करने में गर्व करता है जो अपने हित में स्वायत्त निर्णय लेता है। यह उन्हें सार्वजनिक दबाव के प्रति संवेदनशील बनाता है। इजरायल अमेरिका के अलावा, दोस्तों के बिना रह सकता है। लेकिन भारत अपने तात्कालिक और विस्तारित पड़ोस में दोस्तों के बिना जीवित नहीं रह सकता है। न ही सरकार को अमेरिका और यूरोपीय जनमत के प्रभाव को कम आंकना चाहिए।

पहले से ही बहुत संकेत मिल रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र या अन्य जगहों पर भारत की "सफलता" का चमकता खाता खाली घमंड ही था। उदाहरण के लिए, सत्तारूढ़ भाजपा की हालिया संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सफल बंद दरवाजा की बैठक को प्रचारित करना। हालाँकि तथ्य यह है कि लगभग पचास वर्षों में पहली बार UNSC ने कश्मीर मुद्दे को चर्चा के लिए उठाया, इसका मतलब है कि अब से कश्मीर उसके एजेंडे पर रहेगा।

यहां तक कि रूस, जो भारत का लंबे समय तक समर्थक रहा, ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के लिए जम्मू-कश्मीर के बारे में अनायास ही उल्लेख किया है। ब्रिटेन भी भारत के समर्थन में सामने आया और यूएनएससी के बंद दरवाजे की बैठक के विचार का समर्थन किया और उसके बाद एक "सार्वजनिक बयान" के लिए कहा। भारत को लाभ देने के लिए अमेरिका या फ्रांस अपना हित साधेंगे। हालांकि अमेरिका और फ्रांस दोनों ही अपने-अपने 'हितों को धयान में रखते हुए' निर्णय लेंगे, लेकिन अमेरिका पाकिस्तान को भी छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकता है। मसूद अजहर को "वैश्विक आतंकवादी" के रूप में सूचीबद्ध करने में मदद के बदले में ईरान के मामले में भारत का अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण, भारत की कमजोरी को प्रदर्शित करता है। एक व्यक्ति को सूचीबद्ध करने में मदद के लिए भारत को इतनी कीमत चुकानी पड़ी।

अंतर्राष्ट्रीय तिरस्कार से भारत को बचाने के लिए अमेरिका क्या मांग करेगा? इसके अलावा, अमेरिका नवंबर 2020 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों से पहले अफगानिस्तान में पैदा हुई गड़बड़ी से खुद को "निकालने" के लिए बेताब है। इस प्रकार, दबाव भारत पर भी होगा क्योंकि इसे हल करने के लिए उसे पाकिस्तान की सख्त जरुरत है ताकि वह तालिबान से  अमेरिकी सेना की वापसी को सक्षम बना सके। इसके अलावा, पाकिस्तान ने अपनी सेनाओं को भारत के साथ पूर्वी सीमा पर स्थानांतरित कर दिया है और अमेरिका को चेतावनी दी है कि कश्मीर पर भारत के कदम से अफगानिस्तान पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो गया है। तो क्या अमेरिका सिर्फ भारत को जम्मू-कश्मीर में शांति अभियान आगे बढ़ाने के लिए समय की पेशकश कर रहा है, इससे पहले कि वह दबाव डालना शुरू कर दे?

अब चूँकि, जिन्न बोतल से बाहर आ गया है, "राष्ट्रवादी" सरकार को लग सकता है कि वास्तविकता उनकी बयानबाजी से काफी मेल नहीं खाती है। भारत में व्यापक रूप से दिखाई देने वाली विजय और उत्सव भी अब मिटना शुरू हो जाएगा, क्योंकि यह भारतीयों को प्रभावित करता है कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति वास्तव में भाजपा सरकार के निर्णय से खराब हो गई है।

विडंबना यह है कि उनके सभी "राष्ट्रवादी" ढोंगों के चलते, भाजपा की कश्मीर नीति ने कश्मीर आंदोलन द्वारा उठाए गए आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग को वैधता दे दी है। कैसे? जैसे स्वायत्तता को तबाह किया गया और जिस तरह से राजनीतिक संकल्प से इनकार किया गया, उससे केवल सैन्य समाधान का रास्ता ही चुना गया है। भुल सुधार का रास्ता बंद कर दिया गया है। हमारे जैसे सभी लोग जो युद्ध का विरोध करने और शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक समाधान के इच्छुक हैं, वह अब रास्ता नही है अब केवल आत्मनिर्णय का रास्ता ही हो सकता है, यानी जनमत संग्रह के माध्यम से लोगों की इच्छाओं को जानना, क्योंकि सैन्य दमन और उग्रवाद कश्मीर के परिदृश्य को दर्द्नाक बना रहा है। । नतीजतन, अगर कश्मीर, आधिकारिक कथा के विपरीत, यदि "अशांत" बना रहता है, तो बीजेपी जो आज़ सभी पालतू समर्थकों तारीफ पा रही है कल ये तारीफ ही  एक अभिशाप में बदल सकती है।

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