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ख़ुशनवीसी की हिफ़ाज़त के मिशन पर हैं ये नौजवान

भारत में इस्लामिक कला का स्वरूप मुग़ल शासन के ख़त्म होने के बाद से ही लगातार कम होता रहा है।
ख़ुशनवीसी

उन्होंने व्यवसाय प्रशासन (बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशनकी पढ़ाई कीबी.एड. (स्नातकसफलतापूर्वक किया और कंप्यूटर नेटवर्किंगडिज़ाइनिंग,संचालन, सुलेख (ख़ुशनवीसी, कैलीग्राफ़ी) और पांडुलिपि में डिप्लोमा कोर्स पूरा किया। वे बिज़नेस प्रोफेशनल या आईटी प्रोफ़ेशनल के तौर पर काम कर सकते थे या शिक्षक बन सकते थे। लेकिन उन्होंने सुलेख का चुनाव किया और यह उनके लिए इबादत करने जैसा है।

जी हां, मिलिए इमरान हयात से जिन्होंने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। इनका संबंध राजस्थान के टोंक ज़िले से है जो ब्रिटिश भारत की मशहूर रियासत की राजधानी थी। 33 वर्षीय इमरान भारत से ग़ायब हो रही कला के इस रूप को फिर से ज़िंदा करने के मिशन पर लगे हैं।

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उनकी रचनाएं लोगों का ध्यान खींचती हैं भले ही कोई उर्दू, फ़ारसी और अरबी से परिचित हो या न हो। वे कहते हैं ख़ूबसूरती और सजाव इस्लामिक कला की ख़ासियत है। वे कहते हैं, "क़ुरान की आयतें लिखना इबादत है।" उनका मानना है कि अरबी लिपि दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत है।

हयात ने विभिन्न शैलियों में हाथ से 11 क़ुरान लिखी हैं। वह मक्का (सऊदी अरब) की मस्जिद की सुलेख परियोजना से जुड़े हुए थे जहां उन्हें पत्थरों पर उकेरी गई क़ुरान की आयतों को प्रूफ़-रीडिंग का काम सौंपा गया था।

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चमड़ा, कपड़ा, लकड़ी, पत्थर और काग़ज़ पर उनके कामों को भारत और विदेशों में लोगों द्वारा काफ़ी सराहा गया है। सुलेख में उनके विशिष्ट मोनोग्राम (तुगरा) के लिए सम्मानित किया गया है।

उच्च शिक्षा में कई डिग्री हासिल करने के बाद हयात सुलेख सीखते रहे। उन्होंने 2004 में सुलेख में ग्रफ़िक डिज़ाइन का एक कोर्स किया, 2006 में अरबी भाषा में डिप्लोमा हासिल किया और 2010 में पांडुलिपि में प्रशिक्षण भी लिया।

हयात का कहना है कि मुग़ल शासन के ख़त्म होने के बाद भारत में ये कला लगातार ख़त्म होती चली गई। उनके अनुसार भारत में सुलेख कार्य को विश्व स्तर पर कभी मान्यता नहीं मिली क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खड़ा नहीं था।

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ज़िंदगी गुज़ारने के लिए हयात लोगों से और सरकारी विभागों से प्रोजेक्ट लेते हैं जिससे उन्हें 15,000 रुपये-20,000 रुपये प्रति माह हासिल हो जाते हैं। वे कहते हैं, “लेकिन इतनी आमदनी हमेशा नहीं होती है। यह ऑर्डर पर निर्भर करता है।'' आगे वे कहते हैं कि इस कला को संरक्षित करने के लिए सरकार ज़रूरी क़दम नहीं उठा रही है।

वे कहते हैं, “नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ़ उर्दू लैंग्वेज के माध्यम से सरकार साल में एक या दो बार प्रदर्शनियों का आयोजन करती है। कैलीग्राफ़र्स को अपने कौशल का प्रदर्शन करने के लिए बुलाया जाता है और उन्हें 5,000 रुपये से 10,000 रुपये तक दिए जाते हैं। इस सच्चाई के बावजूद कि मौलाना आज़ाद अरबी फ़ारसी अनुसंधान संस्थान सुलेख पाठ्यक्रम कराता है टोंक स्थित ये संस्थान भी हर साल एक या दो प्रदर्शनियों का आयोजन करता है।“

हयात का कहना है कि ख़ुशनवीसी ने उनकी ज़िंदगी को संवारने में एक ख़ास भूमिका निभाई है। उनका कहना है, “इसने मुझे देश-विदेश में पहचान दिलाई है। वास्तव में इसने मुझे एक ख़ास पहचान दिलाई है।”

यह पूछने पर कि इस कला को सीखना कितना कठिन है तो वे कहते हैं, “सुलेख पूरी तरह से लेखन शैली पर निर्भर करता है। इसके लिए सटीक लेखन मुद्रा और पर्याप्त धैर्य चाहिए। यह आपको धीमा कर देता है लेकिन आपको जीवन में इस छोटी चीज़ों का आनंद दिलाता है जो आधुनिक तेज़ रफ़्तार वाली जीवन शैली में बहुत आवश्यक है। इसके लिए बहुत अभ्यास और धैर्य की आवश्यकता होती है।”

इससे जुड़ी कुछ कहानियों को साझा करने के लिए कहा तो वह कहते हैं, “यह एक आसान सफ़र नहीं था। मैं बचपन से ही इसका अभ्यास कर रहा हूं। जब इंटरनेट इतना आम नहीं था तो मैं समाचार पत्रों के लिए शीर्षक लिखता था। हाथ से लिखे शब्दों को छपे हुए समाचार पत्रों से अलग करना मुश्किल था।”

हयात का कहना है कि भारत में सुलेख को लेकर हो रहे बर्ताव को देखना निराशाजनक है। “हमारे देश में अभी भी अन्य देशों के उलट इस कला को उतनी सराहना नहीं मिलती है। यहां इसे विशेष या असाधारण नहीं माना जाता है। यह दिल तोड़ने वाला है। सुलेख भी कला का एक रूप है और किसी भी अन्य कला की तरह इसे भी वैसा ही सम्मान मिलना चाहिए।"

मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदारी

पत्रकार से उद्यमी बनी इरेना अकबर कहती हैं कि सुलेख इस्लामी कला का एक रूप है। इरेना बारादरी नाम से कला और शिल्प की एक ऑनलाइन फ़र्म चलाती है जो घर के सजावट के क्षेत्र में काम करती है। आगे वो कहती हैं कि ये मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदारी है कि वे इस कला को ख़रीदें और संजोए क्योंकि यह इस्लामी विरासत का हिस्सा है।

यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें लगता है कि यह कला ख़त्म हो रही और क्या इसे सरकारी मदद की ज़रूरत है। अकबर कहती हैं, “अगर आप मुग़ल काल से तुलना करते हैं तो यह (सुलेख) ख़त्म होता दिखाई देता है। इसे बढ़ावा देने की ज़रूरत है। इसका बाज़ार बहुत सीमित है। इसके चाहने वाले भी बहुत सीमित संख्या में हैं क्योंकि हर कोई अरबी नहीं जानता है। और यह भी क्योंकि यह मूल रूप से मुसलमानों को टार्गेट करता है। बेशक बाज़ार सीमित है लेकिन इसमें धीमी वृद्धि है। मुझे नहीं लगता कि हमें सरकार से बहुत अधिक उम्मीद करनी चाहिए। वास्तुकला पर इस्लामी कला की रक्षा करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। यह विभिन्न विश्वविद्यालयों के ललित कला विभागों में सुलेख पाठ्यक्रम पेश कर सकती है। लेकिन मुस्लिम समुदाय को कला के इस रूप को बढ़ावा देने और इसे लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ करना चाहिए। हम कोई मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था नहीं हैं और इसलिए सरकार को जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।"

अपने काम की चुनौतियों को लेकर अकबर का कहना है कि लोग कपड़े और भोजन पर पैसा ख़र्च करती हैं लेकिन घर की सजावट पर ज़्यादा नहीं ख़र्च नहीं करती हैं। वे कहती हैं, “मैं सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों को बताती रहती हूं कि यह एक ख़ूबसूरत कला है जिसका इस्तेमाल न केवल घरों को सजाने के लिए किया जाता है बल्कि किसी को तोहफ़े में भी दिया जाता है। हम इसे वहन करने योग्य क़ीमतों में बेचते हैं लेकिन हम इसे सस्ती दरों पर नहीं बेच सकते क्योंकि यह अपनी क़ीमत खो ही देगा।"

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