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लगातार युद्ध विराम का उल्लंघन

भारतीय सेना ने घोषणा की कि 25 दिसंबर को एक "टैक्टिकल स्ट्राइक" की गई थी।
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23 दिसंबर को राजौरी के केरी सेक्टर में मेजर सहित चार भारतीय सैनिकों के शहीद होने के दो दिन बाद भारतीय सेना ने 25 दिसंबर को पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के रावलकोट के रूख चाकरी में 200-300 मीटर अंदर एक "टैक्टिकल स्ट्राइक" में तीन पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया वहीं कुछ पाकिस्तानी सैनिक ज़ख़्मी हो गए।। ये प्रचार इसलिए याद रखना चाहिए क्योंकि यह तथाकथित "सर्जिकल स्ट्राइक" के बाद किया गया था। अगर ऐसे हमलों को एक मज़बूत दृष्टिकोण के संकेत के रूप में देखा जाता है और अपने स्तर पर इस तरह के हमलों का निर्णय लेने के लिए फील्ड कमांडरों को लाइसेंस दिया गया है तो इसके पीछे उद्देश्य है जिसे हासिल करना है। मुसीबत यह है कि कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं है और सभी सबूतों से यह स्पष्ट है कि दोनों देशों के कुटील शासक संकीर्ण राजनीतिक लाभ की सेवा में अपने सैनिकों के जीवन का बलिदान देने को इच्छुक हैं। जैसा कि 'शवों की संख्या' बढ़ी है और राजनायिक संपर्क कम हुए है, पाकिस्तान पर कूटनीतिक या सैन्य रूप से लाभ पाने की संभावना काफ़ी दूर होती दिखाई देती है।

 

वर्ष 2016 के सितंबर 28-29 को हुए "सर्जिकल स्ट्राइक" के बाद से भारतीय सशस्त्र बलों के नब्बे जवान शहीद हुए। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पहले पाँच महीनों में इनमें से 30 जवानों की मौत सोलह घटनाओं में हुईं। 17 दिसंबर, 2017 तक उपलब्ध जम्मू-कश्मीर के आंकड़ों में इस साल युद्ध विराम के उल्लंघन में चौदह नागरिक तथा 23 सशस्त्र बलों के जवान मारे गए। सीएफएल का उल्लंघन 2016 में 152 तथा 2016 में 228 से 2017 में बढ़कर 820 हो गया। पाकिस्तान का दावा है कि भारत ने सीएफएल का 1300 बार उल्लंघन किया है और 52 नागरिकों को मार दिया वहीं 175 घायल हुए। इसलिए प्रकाष्ठा को बराबर करने के अलावा दोनों तरफ नुकसान का कोई अन्य कारण नहीं रहा है, मौत के बदले मौत। भारतीय सेना प्रमुख बीपीन रावत ने हाल ही में पीठ थप थपाई कि इस तरह के कार्य के ज़रिए भारतीय सेना ने दूसरी तरफ "संदेश भेजा है"। ऐसा लगता है कि "संदेश" रास्ते में कहीं खो गया क्योंकि शवों की संख्या अभी भी बढ़ रही है। इस तथ्य पर विचार करें कि नरेंद्र मोदी सरकार के तीन वर्षों यानी 1 जून 2014 से 31 मई 2017 तक की अवधि में मारे गए सैनिकों की संख्या 111 से 191 हो गई, जो कि पूर्ववर्ती तीन वर्षों अर्थात 1 जून, 2011-31 मई 2014 से 72% बढ़ी। यह देखने का एक अन्य तरीका है कि 1989 से सितंबर 2017 के बीच कम से कम 3,500 से ज़्यादा सशस्त्र बलों के जवान और 1622 पुलिसकर्मी मारे गए, और संघर्ष में लगातार सैनिकों के मारे जाने की घटना जारी है और जल्द समाप्त होने के इसके कोई संकेत नहीं दिखाई देते हैं।

 

इसके विपरीत जो भी प्रशंसनीय शब्द नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश और सुरक्षा नीति के साथ-साथ पड़ोसी पाकिस्तान के बारे में कही या लिखी गई ज़मीन पर यह बिल्कुल निरर्थक दिखाई देती है। एक पद्धति की अनुमति देना जिसके परिणाम स्वरूप नियमित अंतराल पर सैनिकों के मौत हुई, और जिनके 'शहादत' को भारत की 'दृढ़ कार्रवाई' के महत्व के रूप में पेश किया जाता है जो बेहतर समझ के अभाव का सबूत है। यह ऐसा है जिसे पैक तैयार कर हमारे बीच सफलता के रूप में वितरित किया गया है। उदाहरण स्वरूप ये तर्क कि भारतीय सेना के "ऑपरेशन ऑल आउट" और कश्मीरी नेताओं और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय जांच एजेंसी के मामलों ने ज़मीनी स्थिति को बदल दिया है। 25 दिसंबर, 2017 तक 203 उग्रवादियों की मौत जो कि पिछले सात वर्षों में सबसे ज़्यादा है और शीर्ष दो उग्रवाद कमांडरों की मौत इस बात का सबूत था। फिर भी, बैठकों के लिए लाए गए बड़े पैमाने पर असंगत समूहों के साथ हर बातचीत को कोरियोग्राफ्ड किया जाता है, भले ही मीडिया को अब इन बैठकों को कवर करने की अनुमति नहीं दी जाती है। विशेष प्रतिनिधि की हालिया तीसरी यात्रा ने बारामुला और कुपवाड़ा जिलों में खिन्न रुचि पैदा की।

इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में "कम तीव्रता वाले संघर्ष" में कमी आने के कोई संकेत दिखाई नहीं देते हैं। त्राल के 17 वर्षीय इरफान अहमद की मां फातिमा जिन्होंने जल्द ही अपने बेटे से घर लौटने की अपील की, याद दिलाया कि सेना की नीति चेतनाशून्य है। "जब कोई लड़का शहीद हो जाता है तो उसकी जगह दस और बढ़ जाते हैं इतने सारे लोगों को मारने की सेना को क्या जरूरत है? "[ संडे एक्सप्रेस में 24 दिसंबर 2017 को"कॉलिंग देम बैक" से बशारत मसूद और मीर एहसान की ख़बर]

पुलिस के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2017 में उग्रवाद में शामिल होने के लिए कम से कम 117 युवकों ने घर छोड़ दिया। हालांकि जम्मू और कश्मीर के पुलिस महानिदेशक ने इन आंकड़ों में परिवर्तन कर दिया, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कश्मीर आधारित मीडिया को 25 दिसंबर को बताया कि सभी माता-पिता अपने बच्चों को 'लापता' होने के बारे में नहीं रिपोर्ट करते हैं। इसलिए ऐसे कई युवा हो सकते हैं जो उग्रवाद जैसी गतिविधियों में शामिल हो गए हैं, जिनके माता-पिता उन्हें रिपोर्ट करने को अनिच्छुक हैं क्योंकि वे उनके फैसले का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं कि ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आज के इन युवाओं के बारे में जो अलग है वह ये कि उनके वैचारिक प्रेरणा पिछले साल के उग्रवादियों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर है। मुद्दा यह है कि उग्रवाद में भर्ती के लिए कोई कमी नहीं है। उनकी संख्या कम हो सकती है, फिर भी, यह अभी भी एक गंभीर ख़तरा माना जाता है क्योंकि कम तीव्रता वाला संघर्ष लचीला है और लंबे समय तक जारी रह सकता है।

सरकार की नीति का जुड़वां स्तंभ कश्मीर में कठोर कार्यवाही जैसा और पाकिस्तान के लिए "जैसे को तैसा" सैनिक दृष्टिकोण रहा है। यदि यह विचार पाकिस्तान को युद्ध के क़रीब लाने और वे कश्मीरी जो भारत से आज़ादी के विचार का समर्थन करते हैं, और इस तरह के नुकसान और लागतों को उग्रवाद से उबरने में लगाते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सफल नहीं हुआ है। इसके बदले भारत में 'जैसे को तैसा' का उत्सव और प्रतिशोध भारत में जिंगोइस्टों की खून-प्यास को शमन करने का एक साधन बन गया है, लेकिन जैसा कि शवों की संख्या में वृद्धि हो रही है सैन्य प्रतिशोध की नीति का पालन करने की निरर्थकता बहुत स्पष्ट हो जाती है। चूंकि यह द़ष्टिकोण सशस्त्र संघर्ष के स्थायीकरण सहित पाकिस्तान के साथ राजनयिक गतिरोध तथा कश्मीरियों से किसी प्रकार की कोई बातीचत का रूख़ न रखने की बेहतर गारंटी है। इससे हमें क्लासुविट्ज की बात याद आती है जिन्हेंने हमें युद्ध/सशस्त्र संघर्ष के बारे में याद दिलाया था कि वे "संभावनाओं और अनुमाननों के परस्पर क्रिया पर निर्भर हैं,अच्छे और बुरे भाग्य के, जिन स्थितियों में सख्ती से कानूनी तर्क अक्सर कोई भाग नहीं लेता है और हमेशा एक सबसे अनुचित और कुरूप बौद्धिक उपकरण है"। ऐसा लगता है कि भाजपा-आरएसएस सरकार का पसंदीदा उपकरण 'अनुचित और कुरूप' है।

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