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पट्टेदारी का उदारीकरण या गरीबों की ज़मीनें हड़पने का षड्यंत्र?

NSSO के डेटा से पता चला है कि 2011-12 में करीब 36 प्रतिशत ज़मीन को पट्टे के तौर पर किराये से दिया गया। विडंबना यह है कि इसे 30 प्रतिशत अमीर ज़मीन मालिकों ने किराये पर ले लिया।
Grabbing Land of the Poor?

वामपंथी सरकारों को छोड़कर, भारत में सरकारें भूमि सुधार के ज़रिए जमीन के दोबारा बंटवारे और जोतदारों के अधिकारों के लिए कभी गंभीर नहीं रहीं। 1991 में भारत द्वारा उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को अपनाने के बाद से सरकारों ने भूमि सुधार के बारे में बोलना भी बंद कर दिया है। इतना ही नहीं, ''हक़ कमेटी रिपोर्ट 2016'' जैसे नीतिगत दस्तावेज़ों में तो खुलकर भूमि सुधार कानूनों को वापस लिए जाने को कहा गया है।

अपने निर्माण के तुरंत बाद नीति आयोग द्वारा बनाई गई हक़ कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि ''ज़मीन को लीज़़ पर देने के ऊपर लगे प्रतिबंधों'' से इसका पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। यह बात छोटे ज़मींदारों के खिलाफ़ जाती है। कमेटी ने प्रस्ताव दिया कि पट्टेदारी बाज़ार के उदारीकरण से छोटे और आर्थिक तौर पर घाटे के शिकार ज़मीन मालिक, बड़े ज़मींदारों को अपनी ज़मीनें लीज़ पर दे सकेंगे। और वे दूसरे व्यवसायों की तरफ मुड़ सकेंगे। इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक आर्टिकल में अशोक गुलाटी और रितिका जुनेजा ने भी पट्टेदारी बाज़ार को उदार बनाए जाने की मांग की है। ताकि ज़मीन मालिकों के अधिकारों को सुरक्षित किया जा सके।

50 और 60 के दशक में आधे मन से लाए गए भूमि सुधार कानूनों के चलते अभी तक पट्टेदारी संबंध अनौपचारिक और शोषणकारी बने हुए हैं। वे सामाजिक-आर्थिक शक्ति समीकरण में भी उलझे हैं। जबकि ज़मीन को लीज़़ पर देना चालू है, जमींदार मौखिक समझौतों के तहत ज़मीन लीज़ पर देते हैं, जिनका रिकॉर्ड में ज़िक्र नहीं होता और आधिकारिक सर्वे में उन्हें छोटा कर दिखाया जाता है। इन अनदेखे ज़मीन समझौतों के चलते ही अकसर लोग तर्क देते हैं कि ज़मीन को किराए पर देने की प्रवृत्ति साल दर साल कम होती जा रही है।

गौर करने वाली बात है कि NSSO के ''भूमि और पशु सर्वे'' के आंकड़े बताते हैं कि अगर पूरे भारत की तस्वीर ली जाए तो पट्टेदारी में बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। सर्वे के मुताब़िक, 2002-03 से 2012-13 के बीच कुल कृषि योग्य भूमि पर पट्टेदारी का हिस्सा 6.6 प्रतिशत से बढ़कर 10.1 प्रतिशत हो गया।

किराएदारी पर विस्तृत अध्ययन कर इस लेख के लेखक ने बताया है कि कैसे पट्टेदारी बाज़ार में 1991-92 के बाद, बड़े पैमाने पर गरीब परिवारों को अधिकारविहीन कर दिया गया। जिन कानूनों द्वारा उनके अधिकारों की रक्षा होती थी, इस अवधि में ज्यादातर राज्यों के भीतर उन्हें कमजोर कर दिया गया। गरीब परिवारों को किसानों के मध्यम और अमीर वर्ग के चलते भी बाहर होना पड़ा। क्योंकि उन्होंने ज़मीनों को किराए पर लेना शुरू कर दिया, ताकि उनकी जोत का हिस्सा बढ़ सके। NSSO डेटा के मुताब़िक 2011-12 में पट्टेदारी के तहत जो 36 प्रतिशत ज़मीन थी, उसे महज़ 30 प्रतिशत अमीर ज़मीन मालिकों ने ही किराए से ले लिया था।

बड़े ज़मीन मालिकों के ज़मीन किराए पर लेने को कई बार गलती से प्रति-पट्टादारी समझ लिया जाता है। प्रति-पट्टेदारी एक ऐसा लेन-देन होता है, जिसमें छोटे-छोटे ज़मीन मालिक, एक बड़े मालिक को ली़ज़ पर ज़मीन देते हैं। भारतीय पट्टेदारी में आमतौर से बड़े ज़मींदार गरीबों को पट्टे पर ज़मीन देते हैं। या फिर समान वर्ग और जातीय स्थिति वालों की बीच यह लेन-देन होता है। कभी-कभार ही ज़मीन छोटे किसानों द्वारा बड़े मालिकों को पट्टे पर दी जाती है। 2011-12 में 77 प्रतिशत ज़मीन किराए पर दी गई, जिसे 30 प्रतिशत सबसे बड़े ज़मीन मालिकों ने पट्टे पर दिया। इसके उलट, निचले तबके के 50 प्रतिशत परिवारों ने महज़ सात प्रतिशत ज़मीन ही लीज़़ पर दी।

अमीर पूंजीवादी किसानों के बीच लीज़़ की बढ़ती मांग के बीच पट्टेदारी समझौतों की शर्तों में भी बड़ा बदलाव आया है। अमीर किसान आमतौर पर अपना किराया नगद में देते हैं। वहीं गरीब पट्टेदार फसल में हिस्सेदारी से किराया चुकाते हैं। इससे उन्हें ज़मीन मालिकों के साथ ज़ोखिम साझा करने और फसल कटने तक किराए को टाल देने की सहूलियत मिल जाती है। 1991-92 से 2011-12 के बीच स्थायी-किराये समझौतों में 22 प्रतिशत का उछाल आया। गांवों के अमीर नगद किराए से गरीबों की ज़मीनें छीन सकते हैं, इस प्रायिकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि गरीबों को कष्टदायक शर्तों के तहत भी समझौते करने होते होंगे। प्राथमिक आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन से पता चला है कि गरीब पट्टेदार आधी से तीन चौथाई तक फसल का हिस्सा या स्थायी किराया लीज़ के लिए देते हैं। पट्टा देने वाला कई बार समझौतों में दूसरी शर्तें भी रखता है।

पिछले दो दशकों के दौरान, राज्य का पट्टेदारी की नीति पर उद्देश्य पूरी तरह बदल गया है। तय अवधि की सुरक्षा और जोतने वाले को ज़मीन देने की जगह, अब राज्य ने अमीरों को भरोसा दिलाया है कि उन्हें अपनी ज़मीनें खोने का डर नहीं होगा। 2016 में हक़ कमेटी के प्रस्ताव पर बनाए गए मॉडल लॉ में ज़मींदारों को ''ज़मीन के अधिकारों की पूरी सुरक्षा'' दी गई है। इसके प्रावधान के तहत, तय अवधि के बाद "पट्टेदार के पास बिना किसी न्यूनतम ज़मीन को छोड़े'' ज़मींदार का ज़मीन पर अपने आप अधिकार हो जाता है।

इस कानून में राज्य की ''विशेष शक्तियों'' को भी खत्म कर दिया गया है। इन विशेष शक्तियों के तहत राज्य किराये राशि की सीमा तय कर सकता था। या किसी समझौते में शोषणकारी प्रवाधानों को हटा सकता था। प्रस्तावित कानून, ज़मीन समझौते की शर्तें, मालिक और किराएदार के बीच छोड़ देता है। इसमें मालिक को ज़मीन खोने या ''किसी अवधि के लिए भूमि पर लगातार कब्जे के अधिकार के बदले, किरायेदार की ओर से अनुचित उम्मीद'' का डर नहीं है।

पट्टेदारी बाज़ार उदारीकरण के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि कम पैसे मिलने के चलते किसान खुद अपनी ज़मीन को देना चाहता है और उनका किसी दूसरे गैर-कृषिगत व्यवसाय में जाना बेहतर होगा। छोटी भूमियां कई वज़हों से गैरलाभकारी बन गई हैं, जैसे उत्पाद की लागत में तेज वृद्धि, उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाना, औपचारिक ऋण और सार्वजनिक निवेश की कमी। यह सभी 1991 में सुधार के बाद लागू हुईं राज्य नीतियों का परिणाम हैं। प्रधानमंत्री किसान योजना, किसान क्रेडिट कार्ड योजना और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जैसी सरकारी योजनाओं में गरीब पट्टेदारों की कोई जगह नहीं है।

हक़ कमेटी का कहना है कि ज़मीन के बड़े हिस्सों को ज़मीन मालिक किराये पर नहीं देते, क्योंकि उन्हें अपनी ज़मीन खोने का डर होता है। दरअसल ज़मीन इसलिए खाली नहीं रहती कि गरीब किसान इसे लीज़़ पर नहीं दे पाते, बल्कि यह सिंचाई सुविधाओं की कमी और उत्पाद के कम मूल्य के चलते खाली रहती है। इसके बावजू़द जिंदा रहने के लिए गरीब किसान जितना हो सके, उतनी ज़मीन को जोतते हैं। ज़मीन खाली छोड़े जाने की समस्या अमीर वर्ग में अधिक है।

तथ्य यह है कि अभी तक की सबसे ऊंची बेरोज़गारी के दौर में ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा भी ग्रामीण गरीबों को आर्थिक सुरक्षा मुहैया करता है। यह उच्चतम दर्ज़े का घटियापन है कि कामगारों के गरीब तबकों की चिंताओं को, अमीर ज़मींदारों और पूंजीवादियों के लिए ज़मीन हड़पने के हथियार के तौर पर लाए जा रहे प्रावधानों का तर्क बनाकर पेश किया जा रहा है। आज देश जिस कृषि संकट का सामना कर रहा है, उससे निपटने के लिए जरूरी है कि राज्य गरीब पट्टेदारों और छोटे ज़मीन मालिकों की मदद के लिए प्रावधान बनाए, न कि उनसे उनकी ज़मीनें छीनी। 

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Liberalising Tenancy or Grabbing Land of the Poor?

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