ऐसी दो प्रेम कहानियां,जो जजों से कहती हैं कि मज़हब को विवाह के आड़े क्यों नहीं आने देना चाहिए
सर्वोच्च न्यायालय के सामने उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण निषेध,अध्यादेश,2020 और उत्तराखंड स्वतंत्रता अधिनियम 2018 को ग़ैर-कानूनी क़रार दिये जाने की चुनौती की सुनवाई शुरू होने से पहले शायद कई सप्ताह बीत जायें। ये दोनों क़ानून अलग-अलग धर्मों के जोड़ों के शादी को तक़रीबन नामुमकिन बना देने और लव जिहाद की कथित घटना का मुक़ाबला करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। लव जिहाद एक ऐसा शब्द है,जिसके ज़रिये हिंदू दक्षिणपंथियों का दावा है कि मुसलमान मर्द, हिंदू औरतों से उन्हें इस्लाम में धऱ्मांतरण कराने के मक़सद से शादी करते हैं।
इस अध्यादेश ने उत्तर प्रदेश में पहले ही कई जोड़ों को अलग-अलग कर दिया है। लखनऊ में पुलिस ने एक अंतर्जातीय विवाह को रोक दिया, हालांकि इसमें उस जोड़े के परिवारों की सहमति थी और इसमें धर्मांतरण का मामला भी नहीं था। ये दोनों क़ानून निस्संदेह उन लोगों के बीच आतंक पैदा करेंगे,जो अंतर्जातीय रिश्तों में हैं और शादी की योजना बना रहे हैं। सवाल है कि क्या वे अपने रिश्तों को ख़त्म करने से पहले इन दो क़ानूनों की संवैधानिकता पर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का इंतज़ार करेंगे ? या फिर वे उस निर्मम राज्य तंत्र से मुक़ाबला करेंगे,जो उनकी मोहब्बत का गला घोंटने की ज़िद पर अड़े हुए हैं ?
ऐसी स्थिति में ये जोड़े आम तौर पर उन राज्यों में चले जाने का विकल्प चुनते हैं,जहां अंतर्धार्मिक वैवाहिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाले क़ानून नहीं हैं, वे अब वहीं शादी करते हैं और वहीं अपनी शादी को पंजीकृत करवाते हैं। लेकिन,जब वे अपने राज्य में वापस लौटेंगे,तो एक सवाल से उन्हें जूझना पड़ेगा और वह सवाल यह है कि जैसा कि उत्तर प्रदेश की इस अध्यादेश की धारा 6 कहती है कि अगर माना जाता है कि यह शादी महज़ ग़ैर-क़ानूनी धर्मांतरण के मक़सद से की गयी है,तो क्या फ़ैमिली कोर्ट उनकी शादी को निरस्त कर सकता है ?
इस तरह के सवाल अक्सर दूसरे देशों में भी उस दौर में उठा करते थे,जब स्टेट यह तय करने की शक्ति से लैस था कि कौन किससे प्यार कर सकता है और किससे शादी कर सकता है। तब इसका मिशन अलग-अलग नस्लों की शुद्धता को बनाये रखना था। इसके बावजूद,जोड़ों ने अपने प्यार से उन अंतर्नस्लीय विवाह वाले उन कानूनों को चुनौती देने की हिम्मत दिखायी थी। उन देशों में नस्ल वैसी है,जैसा कि भारत में धर्म हैं। जिस तरह उत्तर प्रदेश में अंतर्धार्मिक जोड़े अपने प्यार की ख़ातिर राज्य की अवमानना का रास्ता ढूंढ़ते हैं, उसी तरह की दो ऐसी कहानियां हैं,जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को इसलिए ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें इस बात की थाह लग सके कि क्यों इस तरह के अंतर्धार्मिक विवाह को विनियमित करने या निषेध लगाने वाले क़ानून व्यक्ति के चुनने के अधिकार को कमज़ोर करेंगे,विवेक की स्वतंत्रता का दमन करेंगे और कई त्रासदियों की पटकथा लिखेंगे,जैसा कि अक्सर अंतर्नस्लीय जोड़ों के साथ होता है कि उन्हें एक दूसरे से अलग-थलग रहने के लिए मजबूर किया जाता है ।
रिचर्ड और मिल्ड्रेड लविंग: प्यार की आज़ादी
संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्जीनिया राज्य स्थित कैरोलिन काउंटी के सेंट्रल पॉइंट में कहीं रह रहे रिचर्ड लविंग और मिल्ड्रेड जेटर ने 1950 के दशक में ऐसा जीवन जिया कि किसी ने सोचा भी नहीं था कि अंतर्नस्लीय विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून निरस्त किये जा सकेंगे। रिचर्ड एक आम गोरा आदमी था,जो संगीत और ड्रैग रेसिंग से प्यार करता था, और घर बनाने के काम से अपना जीविका चलाता था। रिचर्ड 24 साल का था,जब उसने मिल्ड्रेड को डेट करना शुरू किया था, उस समय अफ़्रीकी-चेरोकी वंश की मिल्ड्रेड 18 साल की दुबली-पतली लड़की थी,उसकी त्वचा का रंग कॉफी वाला था। उनके परिवार एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे,सेंट्रल प्वाइंट के लिए यह बात असामान्य नहीं थी,क्योंकि यह वर्जीनिया के उन दुर्लभ स्थानों में से एक था, जहां अलग-अलग नस्लों के लोग सामाजिक रूप से एक-दूसरे के साथ घुलमिल जाते थे।
उनकी ज़िंदगी में तब एक अहम मोड़ आया,जब मिल्ड्रेड ने रिचर्ड के सामने इस बात का ख़ुलासा किया कि वह गर्भवती है। रिचर्ड ने मिल्ड्रेड से शादी की पेशकश की, भले ही उसे पूरी तरह से पता था कि उनके लिए उनका प्यार 1924 के नस्लीय एकता को बनाये रखने वाले उस क़ानून के ख़िलाफ़ जायेगा।यह क़ानून अंतर्नस्लीय विवाह को विनियमित करने वाले क़ानून का हालिया संस्करण था,जिसे पहली बार 1691 में अपनाया गया था। दो शताब्दियों में कई बार संशोधित, 1924 के उस अधिनियम ने न सिर्फ़ अंतर्नस्लीय विवाह को प्रतिबंधित किया था,बल्कि इस बात को भी परिभाषित कर दिया था कि कौन क़ानूनी तौर पर गोरे होने का दावा कर सकता है।यह क़ानून कहता है, "इस अधिनियम के मक़सद है कि 'गोरा शख़्स' शब्द सिर्फ़ उसी शख़्स पर लागू होगा,जिसके रगों में कोकेशियाई ख़ून के अलावा कोई और ख़ून का नाम-ओ-निशान नहीं हो।"
इस अधिनियम के तहत,मिल्ड्रेड को "सांवली" माना गया,और इसलिए वह रिचर्ड से शादी नहीं कर सकती थी। इसलिए,रिचर्ड और मिल्ड्रेड 90 मील की दूरी तय करते हुए वाशिंगटन डी.सी. का रुख़ किया,जहां अंतर्नस्लीय विवाह पर प्रतिबंध नहीं था। 2 जून 1958 को वहां शादी करने के बाद, वे सेंट्रल प्वाइंट लौट आये,लेकिन वे दोनों इस बात से अनजान थे कि 1924 के नस्लीय एकीकरण अधिनियम में उन अंतर्नस्लीय जोड़ों को भी शामिल किया गया था,जो राज्य के बाहर शादी करने के बाद के सहवास से वर्जीनिया लौट आये हों।
एक जुलाई की रात,तक़रीबन 2 बजे, शेरिफ़ गार्नेट ब्रूक्स और उसके दो सहयोगी लविंग के घर में घुस गये। टॉर्च और गिरफ़्तारी वारंट लहराते हुए ब्रूक्स ने रिचर्ड से उस महिला की पहचान पूछी,जिसके साथ वह सो रहा था। एक पत्रकार को वर्षों बाद दिये गये एक विवरण में मिल्ड्रेड ने कहा था कि उन्होंने शेरिफ़ को बताया था कि वह रिचर्ड की पत्नी है। ब्रूक्स ने जवाब दिया,"नहीं-नहीं,आप यहां नहीं रह सकते"। उन्हें उसी रात स्थानीय जेल में डाल दिया गया था।
अगले दिन रिचर्ड को ज़मानत दे दी गयी। मिल्ड्रेड को उस अंधेरी कोठरी में कुछ और दिन बिताने पड़े थे। अपने जेल में रहने के बारे में उन्होंने किसी इंटरवीऊ लेने वाले से बात करते हुए कहा था,“जहां हम कार्य कर रहे थे,वहां दोपहर के समय एक साथी क़ैदी को बाहर ले जाया गया,और फिर जब शेरिफ़ उसे वापस ले आया,तो उसने उससे कहा था, ‘मुझे आज रात तुम्हें उसके साथ यहां से जाने देना चाहिए।' मुझे मौत ने डरा दिया था।” समुदायों को अलग-थलग करने वाले क़ानून लोगों को क़ौमपरस्त जानवर बना देते हैं। मिल्ड्रेड को बाद में उसके पिता की देखभाल के हवाले कर दिया गया।
19 अक्टूबर को कैरोलीन काउंटी के सर्किट कोर्ट ने रिचर्ड और मिल्ड्रेड को नस्लीय एकता अधिनियम का उल्लंघन का दोषी पाया। उन्होंने दोषी नहीं होने की तमाम दलीलें दीं, लेकिन बात नहीं बनी और फिर उन्होंने न्याय से सौदा करने की उस दलील का विकल्प का चुना,जो किसी व्यक्ति को एक हल्की सज़ा के बदले उसके अपराध को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। 1924 अधिनियम के तहत, उन्हें पांच साल की जेल की सज़ा हो सकती थी। सज़ा को लेकर किये गये उस सौदे के मुताबिक़ न्यायाधीश,लियोन एम बाजिले ने उन्हें एक साल की निलंबित सज़ा सुनायी।
हालांकि,यह एक चाल थी। रिचर्ड और मिल्ड्रेड को वर्जीनिया छोड़ना पड़ा और 25 साल तक वे दोनों राज्य में एक साथ वापस नहीं पाये। वे दोनों,मिल्ड्रेड के चचेरे भाई के साथ वाशिंगटन डीसी रहने लगे,और सेंट्रल पॉइंट की यात्रा हमेशा अलग-अलग करते रहे। मिल्ड्रेड ने अपने तीन में से दो बच्चों को सेंट्रल पॉइंट में ही जन्म दिया, उनसे अलग होने के साथ-साथ अपनी ज़मीन और रिश्तेदारों से उनका अलगाव उनकी यातना का स्रोत था।
1963 में जब एक गाड़ी ने उनके बेटे को टक्कर मार दी,तब मिल्ड्रेड को एहसास हुआ कि "उन्हें वहां(वाशिंग्टन) से बाहर निकलना होगा।" उस साल संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकार अधिनियम को लेकर एक ज़बरदस्त बहस चल रही थी। उस बहस से प्रेरित होकर मिल्ड्रेड ने तत्कालीन अटॉर्नी जनरल,रॉबर्ट एफ़ कैनेडी को एक चिट्ठी लिखी,जिन्होंने अमेरिकी सिविल लिबर्टीज यूनियन में इस लविंग दंपत्ति का ज़िक़्र किया। उनका मामला बर्नार्ड एस.कोहेन और फ़िलिप जे.हिर्शकॉप को सौंप दिया गया,दोनों हाल ही में क़ानूनी बिरादरी में दाखिल हुए थे। चूंकि लविंग दंपत्ति के ख़िलाफ़ सुनायी गयी सज़ा निलंबित कर दी गयी थी और उसे जारी नहीं रखा गया था, ऐसे में कोहेन ने इस मामले को फिर से खोले जाने को लेकर एक याचिका दायर की।
22 जनवरी 1965 को न्यायाधीश,बज़िले ने उन्हें दोष से बरी किये जाने से इनकार कर दिया। वर्जीनिया के अंतर्नस्लीय विवाह विरोधी क़ानूनों का बचाव करते हुए बज़िले ने कहा, "सर्वशक्तिमान ईश्वर ने गोरे, काले, पीले, मलायी और लाल रंग के नस्लें बनायी हैं, और उसने ही उन्हें अलग-अलग महाद्वीपों में आबाद किया है। फिर तो उसकी बनायी इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने वाले इस तरह के विवाह का कोई आधार नहीं बनता। सचाई यही है कि उसके बनाये अलग-अलग नस्ल यह दर्शाते हैं कि उसका इरादा इन नस्लों को साथ-साथ मिलाने का नहीं था।”
हिर्शकोप को बाद में इस बात को याद रखना था कि ब्लाइज़ के इस नस्लवादी तर्क ने उनके मुवक़्क़िलों पर एक बड़ा "एहसान" कर दिया था,क्योंकि इसने अमेरिका में आने वाले बदलाव को लेकर उनकी दुर्दशा की तरफ़ सबका ध्यान खींच लिया था। हिर्शकॉप अपील के लिए वर्जीनिया अपीलीय सुप्रीम कोर्ट गये, जिसने भी 7 मार्च 1966 को उस अंतर्नस्लीय विवाह विरोधी क़ानूनों की पुष्टि कर दी। हिर्शकॉप का अगला पड़ाव यूएस सुप्रीम कोर्ट था।
तब तक लविंग मामले ने सही मायने में पूरे राष्ट्र को अपने आगोश में ले लिया था। सिविल सोसाइटी के समूहों ने एमिकस ब्रीफ़(एमिकस ब्रीफ़ एक ठोस कानूनी दस्तावेज़ होता है,जो किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा किसी मामले में दायर किया जाता है,आमतौर पर मामला जब अपील में होता है,जिसमें वह पक्ष तो नहीं होता है, लेकिन नतीजे में उसकी रूचि होती है) दायर किया। लविंग दंपत्ति ने अदालत की सुनवाई में भाग लेने के लिए उन वक़ीलों, यानी कि कोहेन और हिर्शकॉप के निमंत्रण को ठुकरा दिया। दी जा रही दलीलों के दौरान सबसे नाटकीय पल तब आया,जब कोहेन ने जस्टिस से कहा, "कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम इस दलील को कैसे रखते हैं...कोई भी इस दलील को रिचर्ड लविंग से बेहतर तरीक़े से नहीं रख सकता,जब उसने मुझसे कहा था, 'मिस्टर कोहेन,अदालत को बतायें कि मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूं और यह पूरी तरह ग़ैर-मुनासिब है कि मैं वर्जीनिया में उसके साथ नहीं रह सकता।”
12 जून 1967 को सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से लविंग के पक्ष में फ़ैसला सुना दिया और 1924 के अधिनियम को उस चौदहवें संशोधन का उल्लंघन क़रार देते हुए उसे निरस्त कर दिया,जो अमेरिका में पैदा हुए सभी लोगों को नागरिकता देता है और कानून के तहत समान रूप से सुरक्षा की गारंटी देता है। मुख्य न्यायाधीश,अर्ल वॉरेन ने विवाह को "मनुष्य के बुनियादी नागरिक अधिकारों में से एक" के तौर पर बताया, जो हमारे अस्तित्व और वजूद का भी मौलिक अधिकार है…नस्लीय वर्गीकरण के आधार पर इस मूलभूत स्वतंत्रता को अस्वीकार करने की बुनियाद के तौर पर...निश्चित रूप से सभी राज्य के नागरिकों को क़ानून की उचित प्रक्रिया के बिना स्वतंत्रता से वंचित करना है।”
सर्वोच्च न्यायालय के इस लविंग बनाम वर्जीनिया नामक फ़ैसले ने 16 दूसरे राज्यों के अंतर्नस्लीय विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों को भी निरस्त किये जाने की घोषणा कर दी। उस दिन,मिल्ड्रेड ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, "मैं अब आज़ाद महसूस कर रहा हूं।" 1975 में रिचर्ड की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी,उसके वर्षों बाद,1992 में मिल्ड्रेड ने कहा था, “जो कुछ हुआ,उसके होने का सपना भी हमने वास्तव में नहीं देखा था। हम तो बस इतना चाहते थे कि हम अपने घर वापस आ जायें।”
रिचर्ड और मिल्ड्रेड की तरह ही उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अंतर्धार्मिक शादी करने वाले जोड़े सर्वोच्च न्यायालय को कहना चाहेंगे,’हम तो बस इतना ही चाहते हैं कि हम साथ रहें।’
सभी प्रेम कहानियां राज्य द्वारा निर्मित द्वेषपूर्ण अलगाव की दीवार को फांदने में सफल नहीं होती हैं। कुछ का अंत दुखद भी होता है,जैसा कि ऑगस्ट लैंडमेसर और इरमा एकलर के साथ हुआ।
ऑगस्ट और इरमा: प्यार में बग़ावत
ऑगस्त लैंडमेसर को फिर से खोज निकाला गया और अनजाने में इतिहास को फिर से दुरुस्त किया गया। 1991 में एक जर्मन अख़बार, डाई ज़ीट ने 13 जून 1936 को हैम्बर्ग के एक शिपयार्ड में श्रमिकों की एक सभा को दिखाती एक तस्वीर प्रकाशित की। वे लोग वहां एक नौसैनिक प्रशिक्षण जहाज,होर्स्ट वेसल के उद्घाटन के मौक़े पर सभा में शामिल थे, उनकी फ़ोटो उस समय खींची गयी थी,जब वे अपने हथियार उठाये हुए नाज़ी सलामी दे रहे थे। कहा जाता है कि हिटलर उस उद्घाटन के वक़्त वहां मौजूद था।
इस तस्वीर को जिस बात ने ग़ैर-मामूली बना दिया था, वह एक दूर खड़े मज़दूर की मौजूदगी थी,जो नाज़ी को सलामी देने वाले अपने साथियों के साथ शामिल नहीं था। वह अपनी बाहें लपेटे हुए,तिरछी निगाहों से देखता हुआ मुंह बनाकर दूर खड़ा था। कुछ साल बाद उस बाग़ी की पहचान ऑगस्त लैंडमेसर के तौर पर उसकी बेटी आइरीन एकलर ने की थी,जिसने एक किताब लिखी थी और जिसमें बताया गया था कि अंतर्नस्लीय शादी पर प्रतिबंध के चलते उसका परिवार किस तरह बिखर गया था।
आइरीन द्वारा अपने पिता की पहचान किये जाने के बाद,एक अन्य परिवार ने दावा किया कि जिस व्यक्ति ने नाज़ी को सलामी देने से इनकार कर दिया था, वह गुस्ताव वर्गर्ट था। उस परिवार ने यह दिखाने के लिए कि वह 1936 में हैम्बर्ग शिपयार्ड में कार्यरत था,उसके रोज़गार प्रमाणपत्र को सार्वजनिक कर दिया। वर्गर्ट एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे। चूंकि नाज़ी सलाम अक्सर जय हिटलर के उद्घोष के साथ होता था,मगर गुस्ताव का मानना था कि यह सम्मान तो सिर्फ़ भगवान के लिए होना चाहिए, इसलिए उसने अपनी बाहों को लपेट लिया था।
2011 में यह तस्वीर उस ब्लॉग पर पोस्ट होने के बाद वायरल हो गयी थी,जिसमें उस साल जापान में आये भूकंप और सूनामी के लिए राहत की मांग की गयी थी। उस ख़ामोश बाग़ी की वास्तविक पहचान जो भी रही हो,मगर इसके बावजूद उस फ़ोटो ने अगस्त लैंडमेसर की बहादुरी भरी मोहब्बत की दास्तान को फिर से ज़िदा कर देने में मदद पहुंचायी।
कहा जाता है कि 1910 में जन्मे ऑगस्ट 1931 में नाज़ी पार्टी में शामिल इसलिए हो गये थे,क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इससे रोज़गार के सुरक्षित होने की संभावनायें मज़बूत होंगी। लेकिन,इसके बाद उनकी मुलाक़ात इरमा एकलर से हुई,उन्गें इकमा से प्यार हो गया और फिर दोनों ने सगाई कर ली। इसके चलते ऑगस्ट को नाज़ी पार्टी से निकाल दिया गया। फिर भी वह अपने इरादे में अडिग रहे और इरमा से शादी करने के लिए अगस्त 1935 में हैम्बर्ग में पंजीकरण करा लिया। हालांकि,एक महीने बाद ही वह न्यूर्बर्ग क़ानून पारित कर दिया गया,जिसमें यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाह और विवाहेत्तर रिश्तों की मनाही थी। 29 अक्टूबर को उनकी एक बेटी का जन्म हुआ। उन्होंने उसका नाम इंग्रिड रखा।
जर्मनी में यहूदियों को सताया जा रहा था और इस वजह से इरमा को यहां नहीं छोड़ने के इरादे से ऑगस्ट ने 1937 में अपने परिवार के साथ डेनमार्क भागने की कोशिश की। उन्हें पकड़ लिया गया। चूंकि इरमा फिर से गर्भवती थी, इसलिए ऑगस्ट पर न्यूर्बर्ग क़ानूनों का उल्लंघन करने और जर्मन नस्ल को तिरस्कार करने का आरोप लगाया गया। दंपति ने यह दलील दी कि वे इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं थे कि इरमा यहूदी थी या नहीं,क्योंकि उसकी मां के फिर से विवाह कर लेने के बाद उसे प्रोटेस्टेंट चर्च में उसका नामाकरण किया गया था। सबूतों के अभाव के चलते ऑगस्ट को यह चेतावनी देकर छोड़ दिया गया कि अगर वह फिर से इरमा के साथ रहने की कोशिश करेगा,तो इस मामले में उसे कठोर दंड दिया जायेगा।
खुलेआम एक साथ रहने की वजह से दो महीने बाद,जुलाई 1938 में उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। ऑगस्त को ढाई साल तक एक यातना शिविर में रखा गया। 1941 में अपनी रिहाई के बाद ऑगस्त माल की ढुलाई करने वाली एक कंपनी के साथ काम करने लगे और उन्हें दंड देने वाले सैन्यदल में शामिल कर लिया गया। उन्हें क्रोएशिया में तैनात किया गया था,जहां 1944 में उनकी मौत हो गयी। इरमा को एक यातना शिविर में ले जाया गया, जहां उसने अपनी दूसरी बेटी, आइरीन को जन्म दिया। उसकी दोनों बेटियों को पालक देखभाल केन्द्र में रखा गया। कहा जाता है कि इरमा को 1942 में बर्नबर्ग यूथेनेशिया शिविर में मार डाला गया था।
भारत और न्यायपालिका के लिए इन दोनों प्रेम कहानियों में कई सबक हैं। रिचर्ड और मिल्ड्रेड के मुकदमे और उनकी व्यथा अलग-अलग सामाजिक समूहों के लोगों को एक-दूसरे से विवाह करने से रोकने वाले क़ानूनों को निरस्त किये जाने वाले न्यायिक हस्तक्षेप के महत्व को रेखांकित करते हैं। मनुष्य को अपने साथी को चुनने का अधिकार दिये जाने से इंकार सही मायने में उन्हें उनकी आज़ादी से भी वंचित करना है। जोड़ों के अलगाव पर अमेरिका के क़ानूनों को वापस लिये जाने के उलट,भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में भारत अलग-अलग धर्मों के मर्दों और औरतों को शादी करने से रोक़ने वाले कानूनों की परिकल्पना करके उसी तरह इतिहास को पीछे मोड़ने की कोशिश कर रहा है,जैसा कि कभी नाज़ी जर्मनी ने किया था। जैसा कि ऑगस्ट और इरमा की कहानी से पता चलता है कि वक़्त को पीछे मोड़ने की इस तरह की कोशिश से जोड़ों के बीच दर्दनाक अलगाव होगा, मौतें होंगी और मानवता पर हमला होगा। न्यायाधीशों को यह समझाने के लिए इन दो कहानियों से बेहतर कहानियां नहीं हो सकतीं कि उन्हें प्रेम और विवाह की राह में धर्म और धर्मांतरण को आड़े क्यों नहीं आने देना चाहिए।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।इनके विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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