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मैला प्रथा : यथास्थिति के विरूद्ध कब टूटेगी चुप्पी?

हमारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी सफाई व्यवस्था में लगी है। पर सफाई के बदले में हमें मिलता क्या है – जाति के नाम पर छुआछूत, भेदभाव, असमानता, अपमान और गाली-गलौज!
सांकेतिक तस्वीर

हाल में गुजरात के वड़ोदरा जिले एक होटल में सीवर सफाई के दौरान दम घुटने से चार सफाई कर्मचारियों सहित सात लोगों की मौत हो गई। यह घटना वड़ोदरा शहर से 30 किमी दूर दभोई तहसील के फार्तिकुई गाँव के दर्शन होटल में हुई। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया है कि सफाई कर्मचारियों की व्यवस्था के तहत मौतें जारी हैं। ये मौतें नहीं बल्कि हत्याएं हैं और ये घटना अन्तिम नहीं है। इस तरह का सिलसिला जारी है।

ये मौतें तो खुद नरेन्द्र मोदी जी के राज्य में हुईं हैं। भले ही प्रधानमंत्री बड़े गर्व के साथ दावा करते हैं कि आज उनके स्वच्छ भारत अभियान के कारण देश के 90 प्रतिशत लोग शौचालयों का उपयोग करते हैं। वे आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 में 38.70% शौचालयों का निर्माण हुआ था जो अब बढ़कर 99.21% हो गया है। नरेन्द्र मोदी जी ये नहीं बताते कि इन शौचालयों के भरने पर इनकी सफाई कौन करता है? कस्बों और शहरों में जो सेप्टिक टैंक और सीवर हैं उनकी सफाई कौन करता है? इनकी सफाई के दौरान मरने वाले लोग कौन हैं?

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सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार अब तक 1790 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान हो चुकी है। और मौतों का ये सिलसिला लगातार जारी है।

सरकार ने वर्ष 2013 में मैला ढोने के निषेध के लिए एक अधिनियम बनाया, जिसका नाम है – हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013। इस अधिनियम के तहत मैलाप्रथा का निषेध तो है ही साथ ही सफाईकर्मियों के गैर-सफाई इज्जतदार पेशे में पुनर्वास का प्रावधान है, पर सरकार हाथ से मैला उठाने वाले (मैनुअल स्केवेंजरो) के पुनर्वास करने की इच्छुक नहीं दिखती। इसके समर्थन में दो-एक उदहारण लिए जा सकते हैं :

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पूनम देवी

बिहार के पूर्णिया जिले के लाइन बाजार, पंचमुख मंदिर के पास रहने वाली 35 वर्षीया पूनम देवी कहती हैं, मैं पिछले 10 सालों से मैला ढोने का काम कर रही हूँ, पर कोई सरकार मेरी नहीं सुनती। पूनम देवी की 10 साल पहले शादी हुई थी। उनके तीन बच्चे हैं – दो लड़के और एक लडकी। पूनम सड़क के किनारे घर बना कर रहती हैं। नगर निगम वाले आते हैं उनका घर तोड़ कर चले जाते हैं। उनके पास अपनी जमीन नहीं है। पति बेरोजगार है

उनसे पूछने पर कि क्या सरकारी योजनाओं का उन्हें कोई लाभ मिला है? वे कहती हैं – मुझे किसी सरकार से कोई लाभ नहीं मिला न हमारा राशन कार्ड बना है। रोज दूसरों के घर का मैला साफ़ करके जीवन निर्वाह करती हूँ। जीवन बहुत कष्ट में गुजर रहा है

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शिवनाथ

इसी प्रकार झारखण्ड के धनबाद में रहने वाले 45 वर्षीय शिवनाथ कहते हैं, मैं और मेरी पत्नी करीब 20 साल तक मैला ढोने का काम करते रहे पर किसी सरकार ने हमरी सुध नहीं ली। बाद में हमने ही यह निर्णय लिया कि ये गन्दा काम नही करेंगे और मैंने होटल में झाड़ू लगाने का काम शुरू किया। मेरी पत्नी भी घरों में झाड़ू-पोछा का काम करती है अपनी पहल पर हम मानव मल ढोने से मुक्त हो चुके हैं

हम सफाई कर्मचारी हैं। हमारी संख्या लाखों में है – करोड़ों में भी। हम में से कुछ प्रतिशत बहुत संघर्षों से गुजरते हुए पढ़ लिख गए हैं। हमने जब संविधान पढ़ा तो पाया कि संविधान ने देश के हर नागरिक को समान अधिकार दिए हैं। सबको सम्मान से जीने का हक दिया है। पर जब हमने अपने हालात देखे और संविधान से मैच किया तो पता चला कि संविधान जो कहता है और हमारे जो हालात हैं उनमे तो बहुत ज्यादा अंतर है! जब हम अपने संविधान को पढना शुरू करते हैं, “हम भारत के लोग...” तो गर्वानुभूति होती है कि हम भी इस देश के इज़्ज़तदार नागरिक हैं! 

पर हकीकत में तो हम ज़िल्लत और जहालत की जिंदगी जी रहे हैं। छूआछूत की जिंदगी जी रहे हैं। भेदभाव की जिंदगी जी रहे हैं। अमानवीय जिंदगी जी रहे हैं। उससे तो प्रश्नवाचक चिह्न लग जाता है कि – क्या वास्तव में हम भी इसी देश के नागरिक हैं?

पिछले पांच हजार साल से हम भारतीय समाज के सफाई-कार्य में लिप्त हैं। हमारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी सफाई व्यवस्था में लगी है। पर सफाई के बदले में हमें मिलता क्या है – जाति के नाम पर छुआछूत, भेदभाव, असमानता, अपमान और गाली-गलौज! सदियों से हमारी माँ-बहनों, पिता-पुत्रों, भाईयों का शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण जारी है।

सवाल हमारे मन में आता है कि जो समाज स्वयं को सभ्य कहता है. शिक्षित कहता है. मानवीय मूल्यों में विश्वास करता है – क्या उसे हमारा शोषण-उत्पीडन नजर नहीं आता? हमारे द्वारा मानव मल ढोना नहीं दीखता? हमारे साथ जातिगत और  पितृसत्तात्मक भेदभाव नजर नहीं आता? यदि ये सब दीखता है तो फिर वह मौन क्यों साध लेता है? सदियों से चली आ रही यथास्तिथि से टकराता क्यों नहीं? संघर्ष क्यों नहीं करता? इसे बदलता क्यों नहीं? क्या सभ्य कहे जाने वाले समाज का यह दायित्व नहीं? क्या समता, समानता, बंधुत्व और न्याय चाहने वालों की यह जिम्मेदारी नहीं? पर इसके लिए सबसे पहले जरूरत है अपने चश्मे को बदलने की। यदि हम जातिवादी और पितृसत्तात्मक चश्मे से देखेंगे तो कहीं कुछ गलत नहीं दिखेगा। इसलिए जरूरत है संवैधानिक चश्मे से समाज को देखने की।

सरकार हमारे लिए क़ानून बना कर अपनी खानापूर्ति कर देती है, जबकि सरकार भी जानती है कि हमारे यहाँ कानून कितने अमल में लाए जाते हैं! फिर सरकार कानूनों का इतना प्रचार-प्रसार नहीं करती कि ये क़ानून जन-जन तक पहुंचें। सरकार ये भी जानती है कि हम सफाई कर्मचारी 95 प्रतिशत से अधिक अनपढ़ होते हैं। सरकार के ढुल-मुल रवैये से साफ़ जाहिर होता है कि सरकार की मंशा देश से मैला प्रथा मिटाने की नहीं है। यही कारण है कि देश में मैला ढोने की प्रथा यथावत चल रही है. अगर प्रधानमंत्री नोटबंदी की तरह मैलाप्रथा उन्मूलन के लिए डेडलाइन और एक्शन प्लान के साथ सख्त कदम उठाएं तो यह कार्य असंभव नहीं है। अगर वह दिन आ जाए जब इस देश में एक भी मैला ढोने वाला नहीं हो तो इतिहास रच जाएगा। बस जरूरत है साफ़ नीयत की और दृढ़ निश्चय की। संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों की. पर वही यक्ष प्रश्न कि ऐसा करेगा कौन? प्रधानमंत्री? मुख्यमंत्री?? या कोई और???

हमें सीवरों की सफाई करने के लिए गहरे सीवरों में घुसा दिया जाता है – वहां जहरीली गैसों के कारण दम घुटने से हमारी मौत हो जाती है। पर हमारी मौतों से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है – जैसे हम इस देश के नागरिक ही नहीं हैं! सीमा पर जब हमारे जवान शहीद हो जाते हैं तो प्रधानमंत्री से लेकर पूरा सरकारी महकमा और सभ्य समाज उत्तेजित हो जाता है। संवेदनशील हो जाता है – पर इन सीवरों के शहीदों के लिए चुप्पी क्यों साध ली जाती है? इस चुप्पी के पीछे की मानसिकता क्या है! आखिर हम सफाई कर्मचारियों की कितनी और मौतों के बाद तोड़ोगे अपनी चुप्पी? कब बोलेंगे प्रधानमंत्री? मुख्यमंत्री? सभ्यसमाज? कि बस्स बहुत हो चुका, अब करेंगे मैला प्रथा का खात्मा। दिलाएंगे सफाई कर्मचारियों को इस ज़िल्लत की जिंदगी से मुक्ति। अब नहीं जायेगी किसी सफाई कर्मचारी की जान सीवर में। या हमारी मौतों का सिलसिला यूं ही चलता रहेगा

{लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन (SKA) से जुड़े हैं।}

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