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मध्य प्रदेश और राजस्थान: दलित और आदिवासियों की नाराज़गी का कारण

दोनों राज्य दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार में सबसे आगे हैं और हालात पिछले कुछ वर्षों में और खराब हो गए हैं।
atrocities on SC/ST in MP and Rajasthan
सांकेतिक चित्र

इस चौंकाने वाले आँकड़े पर विचार करें: 2016 में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश और राजस्थान में भारत की दलित आबादी का लगभग 12 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन देश में उनके खिलाफ किए गए सभी अत्याचारों का 25 प्रतिशत मामले अकेले इन राज्यों में हुए है। आदिवासियों के सन्दर्भ में भी सच्चाई यही है - इन दोनों राज्यों में देश की आदिवासी आबादी का लगभग 24 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन उनके खिलाफ सभी अत्याचारों का 46 प्रतिशत अपराध यहाँ दर्ज़ किए गएI

यह कोई संयोग नहीं हो सकता है कि दलितों और आदिवासियों दोनों के खिलाफ अपराध की ये दरें इन दो राज्यों में इतनी ऊँची हैं और दोनों ही राज्यों में एससी/एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम के खिलाफ ऊँची जातियों द्वारा अक्सर हिंसक विरोध हुए हैं - और यहाँ तक कि इन वर्गों के लिए आरक्षण के खिलाफ भी बड़े विरोध हुए हैं। यह भी संयोग नहीं हो सकता है कि वर्तमान में दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकारें हैं।

पिछले दशक में, पुलिस द्वारा दर्ज दलितों के खिलाफ अपराध, दोनों राज्यों में बड़ी तेज़ी से बढ़े हैं, हालांकि राजस्थान में हाल के वर्षों में इसमें कुछ कमी आई है (इस पर बाद में अधिक चर्चा होगी)।

atrocities on Dalits in MP and rajasthan1.jpg

इसी प्रकार, दोनों राज्यों में आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार बढ़े, यहाँ भी हाल के वर्षों में राजस्थान में कुछ कमी आई।

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2016 में अपराधों में कमी के पीछे साफ़ लगता है कि कोई तिगड़म लगाई गयी है। 2015 तक, अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदायों के खिलाफ हुए अपराधों को आईपीसी (भारतीय दंड संहिता/ताज़ीरात-ए-हिन्द) अपराधों के साथ पीओए के तहत (अत्याचार रोकथाम अधिनियम) के साथ पढ़ा जाता था। 2016 से, इसी वर्ष के नवीनतम आँकड़े उपलब्ध हैं, पीओए के बिना आईपीसी के तहत हुए अपराध अब इसमें शामिल नहीं किये जा रहे। प्रासंगिक तालिका (7 ए.1) के नीचे एक फुटनोट में दलितों के लिए निम्नलिखित तरीके को बताता है: गैर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों द्वारा दलितों के खिलाफ किए गए अपराधों को संदर्भित करता है। केवल आईपीसी (एससी/एसटी अधिनियम के बिना) के मामलों को इसमें छोड़ दिया गया है क्योंकि उन मामलों में दलितों के खिलाफ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति द्वारा किए गए अपराध के रुप में संदर्भित किया गया है। तालिका 7 सी .1 में समान फुटनोट आदिवासियों के लिए भी समान है।

यह सिर्फ आँकड़ों की जादूगरी नहीं है। अगर इसे ऐसे कहें किएक दलित व्यक्ति की हत्या के मामले में, पुलिस आरोपपत्र में पीओए के तहत मामला दर्ज़ नहीं करती है, तो इससे यह मामला दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के आँकड़ों में शामिल नहीं होगा। बेशक, ऐसे मामले या उदाहरण हो सकते हैं जहाँ कि एक दलित में ही दूसरे दलित की हत्या की हो। लेकिन, यह युक्ति आमतौर पर पीओए के तहत दर्ज़ अपराधों की संख्या कम करने का एक आसान तरीका है। आदिवासियों के मामलों में भी यही किया जाता है

इस साल की शुरुआत में, जब सुप्रीम कोर्ट ने दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार करने के आरोप में लोगों की गिरफ्तारी और चार्जशीट दाखिल करने के लिए कड़ी पूर्व शर्त लगाकर पीओए के प्रावधानों को बेअसर कर दिया था, तो देश भर में क्रोध का विस्फोट हुआ था। वामपंथी पार्टियों के समर्थन के साथ दलित और आदिवासी संगठनों द्वारा आयोजित भारत बंद किया गया और उच्च जातियों के समूहों द्वारा मध्य प्रदेश और राजस्थान में दलित और आदिवासी कार्यकर्ताओं पर हमला किया, जिसमें कई मौतें भी हुईं। दलितों और आदिवासियों का क्रोध न्यायसंगत था क्योंकि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमज़ोर किए कानून का गंभीरता से विरोध नहीं किया था। न ही सरकार द्वारा वक्त पर सुधारात्मक अध्यादेश लाकर स्थिति को सुधारने की कोई कोशिश की गयी। यह अंततः अगस्त में तब किया गया जब एक और देशव्यापी विरोध की घोषणा हुई।

दोनों राज्यों में आरक्षण विरोधी आंदोलन भी एक बढ़ती घटना रही है। राजस्थान में, जाट और गुज्जर मौजूदा एससी/एसटी आरक्षणों के प्रति साफ़ ज़ाहिर शत्रुता से भरपूर अपने संबंधित समुदायों के लिए अलग से आरक्षण की माँग कर रहे हैं। एमपी में, पीओए कमजोर पड़ने और बाद में सुधार उसमें के बाद, गैर-अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों का संगठन एसएपीएक्सएस (सामान्य पिछड़ा एवम अल्प्संख्यक समाज) नामक संगठन सुपर सक्रिय होकर रैलियों और विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया और यहा तक कि उन्होने भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के साथ भी हाथा पाई की। दोनों पार्टियाँ – ऊपरी जातियों को अपने खिलाफ होने के डर से उन्हे बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इस सब के चलते यह दलितों और आदिवासियों के अलगाव का कारण बन गया है। इसकी खामियाज़ा मुख्य रूप से सत्तारूढ़ बीजेपी को दोनों राज्यों में भुगतना होगा  क्योंकि इन दोनों सरकारों को इसके अलावा किसानों को धोखा देने और नौकरियां प्रदान करने में नाकाम रहने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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