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मध्य प्रदेश के किसानों में सतत कर्ज़ का दुष्चक्र

खेती से कम पैदावार और उनसे होने वाली कम आमदनी के चलते मध्य प्रदेश में किसान कर्ज और गरीबी का जीवन जी रहे हैं। हालांकि, बड़े किसानों को बैंकों और सहकारिता समुदायों जैसे संस्थागत इकाइयों से कर्ज मिल जाता है, लेकिन सीमांत और लघु किसान अपने कर्ज की जरूरतों के लिए स्थानीय साहूकारों-महाजनों पर ही पूरी तरह आश्रित रहते हैं।
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पलवल सीमा पर एक कैंप में बैठे श्रीकृष्ण कुशवाहा हम से बातचीत में एक पुराना मुहावरा दोहराते हैं- “उत्तम खेती, मध्यम बान/नीच चाकरी, भीख निदान।” फिर इसकी व्याख्या भी करते हैं,“आशय यह कि, पुराने समय में मनुष्य की आजीविका के साधन के रूप में खेती एक इज्जतदार पेशा मानी जाती थी। इसके बाद, व्यापार-कारोबार को जगह दी गई थी। नौकरी-चाकरी को तीसरा दर्जा दिया गया था और भीख जीवन जीने का अंतिम निदान या सहारा थी। अब यह क्रम उलट गया है।” मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में 6 एकड़ भूमि वाले अर्ध-मझोले काश्तकार 65 वर्षीय कुशवाहा कहते हैं, “अब तो जो विधायक और सांसद हमारे पास वोट मांगने आते हैं, वे आज करोड़पति हो गए हैं। लोक सेवक और कारोबारी भी आज किसानों के बनिस्बत ज्यादा ताकतवर हो गए हैं।”

कुशवाहा इस बात पर गहरा दुख जताते हैं कि आज के किसान अपने को इस दुर्दशा में पाते हैं, जहां उनका जीना तक दुर्भर हो गया है। वह कहते हैं, “मेरे पास 10 बीघा (6 एकड़) जमीन है। हम उससे केवल जीने लायक ही पैदावार ले पाते हैं-तेल के लिए सरसों और खाने के लिए गेहूं उपजाते हैं। बाकी बचा सारा पैदावार हम बेच देते हैं, फिर भी वह हमारे गुजारे के लिए कम पड़ जाता है, क्योंकि खेती से पर्याप्त उपज नहीं मिलती है।”

कुशवाहा आगे कहते हैं, “खेती में लागत काफी बढ़ गई है। इसके खर्चे में खेतों की जुताई, बुआई, खाद, बीजों और ट्रैक्टर के भाड़े से ले कर मजदूरी की लागत तक, सब शामिल है। यही वह कारण है, जिससे कि कि हमारे बेटे अपनी आजीविका के लिए खेती के अलावा दूसरे-दूसरे क्षेत्रों का चुनाव करते हैं। उनको उसके लायक बनाने के लिए हमें उनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च वहन करना पड़ता है। इसके साथ, घर-बार, रिश्ते-नाते, दवा-दारू तथा शादी-विवाह के लिए भी रकम का इंतजाम इसी खेती से करना पड़ता है। हमारी खेती से होने वाली आमदनी से घर-गृहस्थी के रोजमर्रे की जरूरतों, बीमार के इलाज तथा अन्य जरूरी मदों में होने वाले खर्च के लिए पर्याप्त नहीं होती। 6 एकड़ जमीन के काश्तकार होने के बावजूद, खेती से मैं एक धेला भी मुनाफा नहीं कमा पाता।” 

कुशवाहा ने अपने गांव के ही साहूकार से 2 साल पहले 2% ब्याज या 24 फ़ीसदी प्रति वर्ष ब्याज की दर से 2 लाख रुपये का कर्ज लिया था। वह कहते हैं कि उनके लिए अब उसका सधान मुश्किल हो गया है। ब्याज चुकाने के लिए उन्हें अपनी दो भैंसें बेचनी पड़ी थी। कर्ज की रकम अभी जो कि त्यों है। इसके अलावा, कुशवाहा पर 80,000 का एक और बैंक कर्ज भी था, जो उन्होंने 10 साल पहले लिया था। 2018 में इस कर्ज को माफ किये जाने के पहले तक वह कुल 1,24,000 का ब्याज भर चुके थे। मध्य प्रदेश सरकार ने ऋण माफी योजना के तहत किसानों का कर्ज माफ किया था। 

भोपाल में ठूहा खेड़ा गांव के एक अन्य किसान पद्म सिंह मीणा अपने कर्ज पर कैफियत देते पूछते हैं, “जब हमें हमारी खेती से पर्याप्त पैदावार नहीं मिलते हैं तो हम अपने परिवार का गुजारा कैसे करें?” वह कहते हैं, “खेती से होने वाली सारी आमदनी तो बच्चों की शादी-विवाह और पढ़ाई-लिखाई में ही खर्च हो जाती है। आखिरकार हमको अपनी जमीन ही बेचनी पड़ेगी। हम पिछले साल कर्ज का ब्याज नहीं चुका पाए थे। अभी इस साल भी हमने ब्याज नहीं चुकाया है। हम इसका इंतजाम कैसे करें? खेती की लागत काफी बढ़ गई है और खेतों से पर्याप्त पैदावार नहीं मिलता है।”

मीणा और उनके दोनों भाइयों करतार सिंह और विमल सिंह को मिलाकर मध्य प्रदेश के भोपाल के ठूहा खेड़ा में उनकी 23 एकड़ जमीन है और 21 एकड़ जमीन गेहूं खेड़ा गांव में है। उनके परिवार में 30 सदस्य हैं, उन्होंने आज से 15 साल पहले ठूहा खेड़ा गांव की जमीन पंजाब नेशनल बैंक (तब ओरियंटल बैंक) को गिरवी रख कर उसके एवज में 12 फीसदी ब्याज पर 9 लाख का कर्ज लिया था। उन्होंने किसान क्रेडिट कार्ड पर कृषि कार्यों के लिए यह कर्ज लिया था। इस परिवार ने 6 साल पहले गेहूं खेड़ा गांव की अपनी जमीन को भी बंधक रखकर 9 लाख का कर्ज लिया था। यह रकम भी सालाना 12 फीसद ब्याज दर के हिसाब से है। खेती के पैदावार कम होने का सीधा मतलब है कि वह दोनों कर्ज की रकम पर ब्याज देने में असमर्थ हैं।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए ठूहा खेड़ा गांव के किसानों ने बताया कि उनके गांव के केवल 20 घर-परिवार के माथे पर ही दो करोड़ रुपये से ऊपर का कर्ज है, जो पिछले 30 सालों से चला आ रहा है। अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के संयुक्त सचिव बादल सरोज इससे सहमति जताते हैं। उनका कहना है कि यह दशा तो मध्य प्रदेश के लगभग सभी गांवों की है। 

जैसा कि पहले की रिपोर्ट में कहा गया है कि मध्य प्रदेश में गेहूं की खेती पर लघु किसानों का वास्तविक लागत मूल्य (सीओसी) केंद्र सरकार के कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की मूल्य नीति रिपोर्ट (2021-22) के प्राक्कलित खर्च से कहीं ज्यादा बढ़-चढ़ कर है। सीएसीपी द्वारा अनुमानित सीओसी का अनुमान उस आधार पर बनता है, जिस पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित किया जाता है। यह रिपोर्ट मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में लघु किसानों को हुए नुकसान का भी आकलन करती है। किसानों के आर्थिक रूप से खस्ताहाल होने और कर्ज के मकड़जाल में उनके फंसते जाने का सबसे बड़ा कारण कम पैदावार और उससे होने वाली कम आमदनी है। 

नाबार्ड द्वारा ऑल इंडिया रूरल फाइनेंसियल इंक्लूजन सर्वे 2016-17 रिपोर्ट में पाया गया कि मध्य प्रदेश में 43 फीसद घर-परिवार कर्ज में हैं। अखिल भारतीय स्तर पर कृषि परिवारों पर यह कर्ज 47.4 फीसद है, जबकि गैर खेतिहर घर-परिवारों में कर्ज का यह औसत 52.5 फीसदी है। पूरे देश में, तेलंगाना में सबसे ज्यादा 79 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 77 फीसदी और कर्नाटक में 74 फीसदी घर-परिवार कर्ज से लदे हैं। रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि अधिक भूमि होने के साथ खेतिहर घर-परिवारों में कर्ज की रकम भी बढ़ती जाती है। इसका कारण यह है कि बड़ी जोत वाले किसानों की परिसंपत्ति उसी आकार में बड़ी मानी जाती है और इसलिए कर्ज लेने की उनकी हैसियत आंकी जाती है। हालांकि 0.01 हेक्टेयर से कम भूमि जोतने वाले खेतिहर घर-परिवारों के बीच कर्ज के मामले 49 फीसदी है, जबकि 2 हेक्टेयर जमीन वाले घर-परिवारों में कर्ज की राशि 60 फीसदी थी। 

मध्य प्रदेश में रीवा जिले के एक एक्टिविस्ट छात्र अजय तिवारी एक बड़े किसान परिवार से आते हैं, जिनके पास रीवा में 30 एकड़ से ज्यादा जमीन है। आज से 4 साल पहले, उनके परिवार ने इलाहाबाद बैंक से 7 फ़ीसदी ब्याज की दर पर 5 लाख रुपये का कर्ज लिया था। यह कर्ज उस साल पड़े सूखे से खेती को बचाने के लिए लिया गया था। अब वे उस कर्ज की वार्षिक किस्त के भुगतान की जद्दोजहद कर रहे हैं। वह बताते हैं कि किसी साल अगर ब्याज की यह किस्त नहीं चुकाई गई तो अगले साल उसकी दर 4 फीसद और बढ़ जाती है। 2 साल पहले उन्होंने मध्यांचल बैंक से लिए उसके ढाई लाख रुपये के कर्ज का सधान किया था। उन्होंने यह कर्ज 10 साल पहले 11 फीसद ब्याज पर लिया था। 

यद्यपि बड़े किसानों को संस्थागत निकायों जैसे बैंक, सहकारिता समुदायों से आसानी से कर्ज मिल जाता है, जबकि लघु और सीमांत किसान कर्ज लेने के मामले में अपने आसपास के साहूकार-महाजनों पर ही अनिवार्य रूप से निर्भर होते हैं, जो उनसे बहुत कड़ा सूद वसूलते हैं। 

मध्य प्रदेश में, खेती किसानी वर्ग में, 70 फ़ीसदी से ज्यादा छोटे और सीमांत किसान हैं। तिवारी कहते हैं, “इनके पास न तो घर है और न जमीन है। उनके पास अपने तन के अलावा कुछ नहीं है और ये संस्थाएं तन के एवज में उन्हें एक धेले का भी कर्ज नहीं देगी। इसलिए वे अपने गांव के साहूकारों-महाजनों से कर्ज लेते हैं और जीवन भर के लिए उनके दास हो जाते हैं। मान लें कि वे 1 लाख रुपये का कर्ज लेते हैं, तो उनकी पूरी पीढ़ी अपने जीवन भर इस कर्ज की भुगतान करती रहेगी। यही वजह है कि छोटे और सीमांत किसानों में खुदकुशी की दर सबसे अधिक है।” 

भोपाल, मुरैना, भिंड, दतिया के किसानों ने कहा कि गांव के सेठ-साहूकारों से मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर प्रति महीने 2% (24 फीसदी सालाना) से ले कर प्रति महीने 5 फीसदी (यानी 60 फीसदी सालाना) है। उन्होंने कहा कि यह दर प्रति महीने 10 फ़ीसदी तक भी जा सकती है, जो सालाना 120 फीसदी तक होती है। नाबार्ड की रिपोर्ट में यह रेखांकित किया गया है कि, कर्ज देने की संस्थागत इकाइयों के तेजी से आगे आने के बावजूद लोगों के 40 फीसदी कर्ज का जरिया उनके सगे-संबंधी, मित्र, स्थानीय भूस्वामी और सेठ-साहूकार ही होते हैं। 

दिल्ली-सीमा पर धरने पर बैठे मध्य प्रदेश के किसानों में ज्यादातर वे किसान हैं, जो कर्ज में डूबे हुए हैं और जो साल दर साल कर्ज का ब्याज चुकाने की स्थिति में नहीं है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक मध्य प्रदेश में 2019 में 541, 2018 में 655 और 2017 में 955 किसानों ने खुदकुशी की थी जबकि 2016 में सबसे ज्यादा 1321 किसानों ने खुदकुशी की थी। पूरे देश स्तर पर उस साल खुदकुशी के मामले में मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर था जबकि महाराष्ट्र में सर्वाधिक 3661 और उसके बाद, कर्नाटक में 2079 किसानों ने खुदकुशी की थी। 

यह पूछे जाने पर कि इस समस्या का हल क्या है, तिवारी कहते हैं, “साल दर साल-बीजों, उर्वरकों, खेती के उपकरणों, डीजल आदि सभी चीजों के दाम बेतहाशा बढ़े हैं। जबकि किसानों की पैदावारों पर इन वर्षों में मिलने वाला मूल्य लगभग समान रहा है। ऐसे में किसान कैसे अपना जीवनयापन करेंगे? यह एक विशाल समस्या है, जिसने खेती-किसानी क्षेत्र में एक ठहराव ला दिया है। आज हम लौटकर वहीं पहुच गये हैं, जहां से 60 साल पहले चले थे। सरकार को बड़े कॉरपोरेट घरानों को अनुदान देने और कर्ज माफी करने के बजाए देश में स्वास्थ्य सेवा, सम्यक शिक्षा, खेती संवर्द्धन देने और रोजगार के अधिकतम अवसर सृजित करने पर खर्च करना चाहिए।”

 

शिंजनी जैन एक लेखिका हैं और ट्रिकॉन्टिनेंटल : इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च में शोधार्थी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।उनसे @ShinzaniJain पर संपर्क किया जा सकता है। 

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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