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मिज़ोरम: राज्य स्थापना से अब तक के चुनावों पर एक नज़र

सत्ताधारी पार्टी के रूप में एकमात्र पार्टी कांग्रेस वर्ष 2013 में अपना वोट और सीट शेयर बढ़ाने में कामयाब रही है। ये एक अलग मामला है कि कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर को मात देने सक्षम हो।
Mizoram Assembly Elections
Image Credit: Incredibly Numing/Flickr

यह चुनाव मिज़ोरम के इतिहास में पहला चुनाव है जहां कई पार्टियां चुनावी मैदान में अपनी क़िस्मत आजमा रही हैं। परंपरागत तौर पर राज्य के गठन के बाद से मिज़ोरम कांग्रेस और मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) सरकार के हाथों में ही घूमता रहा है। सत्ताधारी पार्टी के रूप में कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसने अपना वोट और सीट शेयर बढ़ाया है जिसे उसने वर्ष 2013 में हासिल किया था। हालांकि किसी भी पार्टी ने लगातार तीन बार सरकार नहीं बनाई है। सीईओ संकट के दौरान सत्ता विरोधी कारक तथा मिज़ो राष्ट्रवाद के प्रबंधन को देखते हुए कांग्रेस लगातार तीसरी बार जीत हासिल करने में कामयाब हो सकती है। हालांकि मिज़ोरम के मुख्यमंत्री लाल थान्हावला का एक बयान कि कांग्रेस राज्य में अपने समान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन के लिए तैयार थी ये चुनाव परिणामों को लेकर अनिश्चितता की ओर संकेत दे सकता है।

इस चुनाव में कांग्रेस और एमएनएफ ने अपने-अपने 40 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। बीजेपी 39 सीटों पर जबकि ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट 35 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दि पीपुल्स रिप्रेजेंटेशन फॉर आइडेंटिटी एंड स्टैटस इन मिज़ोरम (पीआरआईएसएम) ने 13 उम्मीदवारों को उतारा है वहीं नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने 9, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 5 और ज़ोरमथर ने 24 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।

1987 का चुनाव 

वर्ष 1987 में भारत सरकार और एमएनएफ के बीच मिज़ो समझौते के बाद पहला चुनाव हुआ था। कांग्रेस और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीपीसी) दो प्रतिस्पर्धी पार्टियां थीं जबकि एमएनएफ उम्मीदवारों ने निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में चुनाव लड़ा था। कांग्रेस ने 40 सदस्यीय इस विधानसभा के लिए 40 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और पीपीसी ने 36 उम्मीदवारों को। इस चुनाव में 69 स्वतंत्र उम्मीदवार थे। स्वतंत्र उम्मीदवारों को 43.31 प्रतिशत सबसे ज़्यादा वोट शेयर मिले, कांग्रेस 32.99 फीसदी के साथ दूसरे स्थान पर रही और पीपीसी को 23.70 प्रतिशत वोट मिले। स्वतंत्र उम्मीदवारों ने 24 सीटें जीतीं, कांग्रेस ने 13 और पीपीसी को मात्र 3 सीट मिले। 

1989 का चुनाव 

दो साल बाद मिज़ोरम में वर्ष 1989 में फिर से चुनाव हुआ। इस बार कांग्रेस और पीपीसी के साथ एमएनएफ भी चुनाव लड़ रही थी। कांग्रेस ने 34 उम्मीदवार मैदान में उतारे जिनमें से 23 ने जीत हासिल की। एमएनएफ ने 40 उम्मीदवारों को उतारा जिनमें से 14 जीत दर्ज की वहीं पीपीसी ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें उसे केवल 1 सीट मिली। 50 स्वतंत्र उम्मीदवारों में से केवल 2 ही कामयाब हो पाए। कांग्रेस को 34.85 प्रतिशत, एमएनएफ 35.29 प्रतिशत और पीपीसी में 19.66% वोट मिले। स्वतंत्र उम्मीदवारों ने इस चुनाव में 10.19 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। 

1993 का चुनाव 

वर्ष 1993 में चुनावी तस्वीर साफ बदल गई। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने मिज़ोरम के चुनाव में प्रवेश किया और पीपीसी ने कोई नामांकन पत्र दाखिल नहीं किया। इस बार के चुनाव में लड़ाई स्वतंत्र उम्मीदवारों के साथ बीजेपी, कांग्रेस और एमएनएफ के बीच थी। बीजेपी ने 8 उम्मीदवारों को उतारा जिनमें से किसी ने भी चुनाव नहीं जीता और 7 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। कांग्रेस ने 28 उम्मीदवारों को उतारा जिसमें से 16 ने जीत दर्ज की और एमएनएफ ने 38 उम्मीदवार को इस चुनाव में उतारा जिनमें से 14 ने जीत हासिल की। 47 स्वतंत्र उम्मीदवारों में से 10 ने जीत दर्ज की। इस चुनाव में एमएनएफ को सबसे ज़्यादा यानी 40.41 प्रतिशत वोट-शेयर मिला। कांग्रेस 33.10 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर रही, इसके बाद स्वतंत्र उम्मीदवारों और बीजेपी को क्रमश: 23.38 प्रतिशत और 3.11 प्रतिशत वोट मिले।

1998 का चुनाव 

वर्ष 1998 के चुनावों में दस दलों ने हिस्सा लिया। इस बार चुनाव लड़ने वाली पार्टियां थीं; बीजेपी, कांग्रेस, एमएनएफ, जनता दल (जेडी), समता पार्टी (एसएपी), लोक शक्ति (एलएस), राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), मारालैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एमडीएफ), एमएनएफ (नेशनलिस्ट) [एमएनएफ (एन)] और मिज़ोरम पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (एमपीसी)। इस बार बीजेपी ने 12 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा जिनमें से कोई भी नहीं जीत पाया। जेडी और एसएपी ने 10-10 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था; एलएस ने 15; आरजेडी ने 8; एमएनएफ(एन) ने 24; और एमडीएफ ने 2 उम्मीदवारों को उतारा था लेकिन इन पार्टियों के किसी भी उम्मीदवार को सफलता नहीं मिली। कांग्रेस ने 40 उम्मीदवारों को उतारा लेकिन केवल 6 प्रत्याशी ही जीत पाए। जबकि एमएनएफ ने 28 उम्मीदवारों को उतारा जिनमें से 21 ने जीत हासिल की। एमपीसी ने 28 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे जिसमें 12 सीटों पर जीत हासिल कर दूसरा स्थान प्राप्त किया।

वोट शेयर की बात करें तो कांग्रेस को कुल डाले गए वोट का सबसे ज़्यादा 29.77 प्रतिशत वोट मिला। एमएनएफ 24.99 प्रतिशत मतों के साथ दूसरे स्थान पर रहा और एमपीसी को 20.44 प्रतिशत मिले। एमएनएफ (एन) को बीजेपी की तुलना में 9.23 फीसदी जबकि बीजेपी को 2.50 फीसदी मिले। एमडीएफ को 2.28 प्रतिशत मिला। बाकी दलों को कुल डाले गए वोट का 1 प्रतिशत से भी कम वोट मिला। चुनाव लड़ रहे 44 स्वतंत्र उम्मीदवारों और केवल 1 जीते हुए उम्मीदवार के बावजूद उन्हें 9.82 प्रतिशत मत मिले।

2003 का चुनाव

वर्ष 2003 में फिर 10 पार्टियों ने चुनाव लड़ा। बीजेपी, कांग्रेस, एमएनएफ, एमपीसी और एमडीएफ ने एक बार फिर चुनाव लड़ा। इस बार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई), ज़ोरम नेशनलिस्ट पार्टी (जेडएनपी), जनता दल (यूनाइटेड) [जेडी (यू)], एफ्रेम यूनियन (ईयू) और ह्मार पीपुल्स कन्वेंशन (एचपीसी) भी शामिल हुईं।

बीजेपी, सीपीआई और कांग्रेस ने क्रमशः 8, 4 और 40 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, हालांकि बीजेपी और सीपीआई का भाग्य ने साथ नहीं दिया। कांग्रेस ने 12 सीटों पर चुनाव जीता। एमएनएफ, एमपीसी और जेडएनपी ने क्रमश: 39, 28 और 27 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा। एमपीसी और जेडएनपी ने क्रमशः केवल 3 और 2 सीटों पर जीत हासिल किया और एमएनएफ ने 21 सीट जीतकर भारी बहुमत हासिल कर लिया। जेडी (यू) की किस्मत काफी ख़राब रही, उसने 28 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा लेकिन उनमें से सभी की ज़मानत ज़ब्त हो गई। ईयू, एचपीसी और एमडीएफ ने क्रमश: 3, 1 और 2 सीटों पर चुनाव लड़ा। एचपीसी और एमडीएफ ने एक एक सीट पर चुनाव जीता। 12 स्वतंत्र उम्मीदवारों में से कोई भी सफल नहीं हुआ।

इस बार विजेता पार्टी को सबसे ज़्यादा वोट शेयर मिला। एमएनएफ को 31.6 9 प्रतिशत और इसके बाद कांग्रेस को 30.06 फीसदी वोट मिला। एमपीसी को 16.16 फीसदी और जेएनएनपी को 14.70 फीसदी मिले। एमडीएफ को 1.95 प्रतिशत और बीजेपी को 1.87 प्रतिशत वोट मिले। बाकी दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को कुल डाले गए वोट का 1 प्रतिशत से भी कम वोट मिला।

2008 का चुनाव

वर्ष 2008 के चुनाव में दस पार्टियां- बीजेपी, कांग्रेस, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), एमएनएफ, एमपीसी, जेडएनपी, जेडी (यू), लोक भारती (एलबी), लोक जन शक्ति पार्टी (एलजेपी) और एमडीएफ मैदान में थी। इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने पूरी तरह क़ब्ज़ा जमा लिया। उसने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें से 32 सीटों पर जीत हासिल की। इसके बाद एमएनएफ ने 39 सीटों में से 3 सीटें जीतीं। एमपीसी और जेडएनपी ने क्रमशः 16 और 17 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन केवल दो-दो 2 सीटें जीत पाई। एमडीएफ ने 1 सीट पर चुनाव लड़ा जिसमें वह सफल हो गया। उन पार्टियों में से जो कोई भी सीट नहीं जीत पाई उनमें बीजेपी 9 सीटों पर, एनसीपी ने 6, जेडी (यू) ने 2, एलबी ने 5 और एलजेपी ने 38 सीटों पर लड़ा।

कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा वोट शेयर 38.89 फीसदी हासिल किया। इसके बाद एमएनएफ, एमपीसी और जेडएनपी ने क्रमशः 30.65, 10.38 और 10.22 प्रतिशत वोट हासिल किया। 33 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा जिसमें सभी असफल हुए। इन उम्मदीवारों को केवल 7.69 प्रतिशत वोट मिला। बाकी उम्मीदवार 1 प्रतिशत से ज़्यादा वोट प्राप्त करने में नाकाम रहे।

2013 का चुनाव

मिज़ोरम के वर्ष 2013 के चुनाव में पहली बार नन ऑफ द एबव (NOTA-नोटा) बटन का विकल्प शामिल किया गया। हालांकि केवल 8 दलों ने ये चुनाव लड़ा। ये दल थे बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, एमएनएफ, एमसीपी, जेडएनपी, एमडीएफ और जय महा भारत पार्टी। चौंकाने वाली बात यह है कि इस बार कांग्रेस वर्ष 2008 में प्राप्त 32सीट से बढ़कर वर्ष 2013 में 34 सीट तक पहुंच गई। उसने 40 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। एमएनएफ ने 31 उम्मीदवारों को उतारा जिनमें से 5 ही सफल रहे। एमपीसी ने 8 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन केवल 1 सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई।

कांग्रेस को 44.63 प्रतिशत वोट मिले। पार्टी को वर्ष 2008 के चुनाव की तुलना में बढ़ोतरी हुई। एमएनएफ का वोट शेयर कम होकर 28.65 फीसदी हो गया। पूरी तरह से असफल होने के बावजूद जेडएनपी को 17.42 प्रतिशत और एमपीसी को 6.15 प्रतिशत वोट मिले। किसी भी अन्य पार्टियों, स्वतंत्र उम्मीदवार, या नोटा को 1 प्रतिशत से ज़्यादा वोट नहीं मिला।
जैसा कि स्पष्ट है वर्ष 1987 से 2013 तक कांग्रेस के भाग्य में लगातार बदलाव देखा गया। हालांकि, 11 दिसंबर को परिणामों की घोषणा होने तक कोई भी नतीजे का केवल अनुमान ही लगा सकता है।
 

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