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मोहन भागवत का ‘अंतिम समाधान’ ! ... RSS गोलवरकर की किताब अब प्रकाशित क्यों नहीं करता ?

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर ने एक अंतिम समाधान की घोषणा की थी - सारे यहूदियों का सफ़ाया कर दो। इसके बाद ही होलोकॉस्ट संगठित किया गया और लाखों यहूदियों को गैस चैंबरों में डाल कर मार डाला गया...
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सन् 1942 के जनवरी में, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर ने एक अंतिम समाधान (Endlösung) की घोषणा की थी - सारे यहूदियों का सफ़ाया कर दो। इसके बाद ही होलोकॉस्ट संगठित किया गया और लाखों यहूदियों को गैस चैंबरों में डाल कर मार डाला गया, यूरोप के नब्बे प्रतिशत यहूदियों का सफ़ाया कर दिया गया। 

25 फरवरी को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी मेरठ में अपने एक लाख स्वयंसेवकों के राष्ट्रीय समागम में भारत के लिये एक Final Solution (अंतिम समाधान) का ऐलान किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि भारत के सब लोगों के लिये अब आरएसएस में शामिल हो जाने के अलावा कोई चारा नहीं है।

“एक ही संगठन सारे दायित्वों के निर्वाह के लिये काफी है। समूचे (भारतीय) समाज को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल होना होगा। इसके अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है।”

मोहन भागवत की इस घोषणा को पूरे संदर्भ में समझने के लिये जरूरी है कि थोड़ा सा आरएसएस के इतिहास के प्रारंभिक पन्नों पर एक नजर डाल ली जाए। इससे पता चलेगा कि भागवत कैसे अपनी इस घोषणा से आरएसएस के एकचालिकानुवर्तित्व के सिद्धांत को राज्य के संचालन का सिद्धांत बनाने की घोषणा कर रहे हैं और उस सिद्धांत का वास्तविक अर्थ क्या है। आर एस एस के प्रमुख सिद्धान्तकार रहे हैं — माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर। उन्होंने ही आर एस एस की विचारधारा और उसके सांगठनिक सिद्धांतों को परिभाषित करने का काम किया था। हेडगेवार की मृत्यु के वक्त गोलवलकर आर एस एस के सरकार्यवाहक (महासचिव) थे।

हेडगेवार ने उनकी मदद से ही आर एस एस को महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में फैलाने का काम शुरू किया। इसीलिए गोलवलकर के विचारों को आर एस एस की मूलभूत विचारधारा माना जा सकता है।

गोलवलकर ने 1939 में अपनी, पहली शायद एकमात्र, किताब लिखी: ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइण्ड’’। बाद में ’’बंच ऑफ थाट्स’’ के नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा 6 खण्डों में ’’श्री गुरु जी समग्र दर्शन’’ भी प्रकाशित हुए हैं। लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने खुद यह अकेली किताब लिखी थी। उनकी अन्य पुस्तकें दूसरे लोगों ने बिखरी हुई सामग्री को संकलित करके तैयार की। मजे की बात है कि आर एस एस ही उनकी इस इकलौती किताब को अभी प्रकाशित नहीं करता है। एक समय था जब संघियों के लिए गोलवलकर की ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’, गीता के समान थी। अमरीकी शोधार्थी कुर्रान ने इस किताब को आर एस एस के सिद्धान्तों की मूल पुस्तक बताते हुए लिखा था कि ’’इसे आर एस एस की ’’बाइबिल’ कहा जा सकता है। संघ के स्वयंसेवकों को दीक्षित करनेवाली यह पहली पाठ्य पुस्तिका है।’’ (जे.ए. कुर्रान, पूर्वोक्त, पृ. 28)

सन् 1939 में जब यह पुस्तक लिखी गई, दुनिया में नाजियों और फासीवादियों के बढ़ाव के दिन थे। बहुतों को यह भ्रम था कि आनेवाले दिनों में दुनिया पर उन्हीं (फासीवादियों) के विचारों की तूती बोलेगी। गोलवलकर और हेडगेवार भी उन्हीं लोगों में शामिल थे। गोलवलकर ने इसी विश्वास के बल पर आर एस एस के विचारों के सारी दुनिया में नगाड़े बजने की बात कही थी। गोलवलकर के संघी जीवनीकार सहस्त्रबुद्धे ने गोलवलकर की बात को उद्धृत किया है कि ’’लिख लो, आज साम्यवाद, समाजवाद आदि के नगाड़े बज रहे हैं। परन्तु संघवाद के सम्मुख ये सब निष्प्रभ सिद्ध होंगे।’’

गोलवलकर ने अपनी इस किताब में मनमाने ढंग से ’’राष्ट्र’’ की परिभाषा करते हुए अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना के लिए ’’ईष्र्यापूर्ण’’ कार्रवाइयों, धर्म और दूसरी भाषाओं पर अपनी भाषा को लादने के बारे में इंग्लैण्ड के उदाहरण से राष्ट्रीयता सम्बन्धी अपनी अवधारणा के मूल तत्त्वों को गिनाते हुए लिखा था कि इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती ही सच्ची राष्ट्रीयता के लक्षण हैं। इसके बाद ही उन्होंने हिटलर के जर्मनी, उसके विस्तारवाद तथा उसके पैशाचिक नस्लवाद की तारीफ करके हत्या, दमन, सैन्यीकरण तथा अन्य धर्मों, नस्लों को पशु-बल से कुचले जाने की प्रशंसा की और धर्म से अलग होने के जनतांत्रिक राज्य के दावे का उपहास करके आर एस एस की घनघोर अमानवीय और हत्यारी कार्यपद्धति और साम्प्रदायिक तानाशाही की विचारधारा की आधारशिला रखी।

जर्मनी के बारे में गोलवलकर ने लिखा:

’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने अपने अधीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा है, सच्ची राष्ट्रीयता का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र’’ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है। जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्रायः परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू’’ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।’’

’’अब हम राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति सम्बन्धी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चैंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)

यह है आर एस एस और भाजपा, विहिप आदि की तरह के उनके तमाम संगठनों की ’’सच्ची राष्ट्रीयता’’ का मूल रूप। जातीयता के मामले में संघियों का साफ कहना है हिन्दुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है। गैर-हिन्दू तबकों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। ’’मूलगामी विभेदवाली संस्कृतियों और जातियों का मेल हो ही नहीं सकता’’ के हिटलरी फार्मूले को वे भारत पर हुबहू लागू करते हैं। उनकी यह साफ राय है कि गैर-हिन्दू भारत में रह सकते हैं, लेकिन वे सीमित समय तक तथा बिना किसी नागरिक अधिकार के रहेंगे। गोलवलकर के शब्दों में:

’’विदेशी तत्त्वों के लिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएँ और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़कर चले जाएँ। यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात् हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किए, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे, यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं; हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।’’

फिर इसी बात को दोहराते हुए गोलवलकर कहते हैं ’’सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं।’’ (वही, पृ. 44)

जर्मनी की नाजी पार्टी ने जर्मन श्रेष्ठता के अपने सिद्धान्तों के प्रचार के जरिए एक ऐसी अवधारणा विकसित की थी कि सच्चा जर्मन वह है जो नाजी पार्टी का सदस्य है तथा सच्चा नाजी वह है जो यहूदियों से नफरत करता है। भारत में मुस्लिम लीग वालों ने भी यही पद्धति अपनाई थी कि वही व्यक्ति सच्चा मुसलमान है जो मुस्लिम लीगी है तथा सच्चा मुस्लिम लीगी वह है जो हिन्दुओं से नफरत करता है। नाजियों और मुस्लिम लीगियों के पदचिन्हों पर ही चलते हुए आर एस एस भी शुरू से यही रटता रहा है कि वही व्यक्ति सच्चा हिन्दू है जो आर एस एस का सदस्य है और वही सच्चा संघी है जो मुसलमानों से नफरत करता है।

संघ के लोग जिसे सच्चा राष्ट्रवाद’’ बताते हैं और जिन विचारों के आधार पर वे देश के तमाम लोगों को आरएसएस के आदेशों के अनुसार चलने की बात कहते हैं, उसकी प्रेरणा के स्रोतों को हमने ऊपर देखा है। मोहन भागवत की इस उद्घोषणा में भी जो फासीवाद नहीं, बल्कि किसी प्रकार का प्रच्छन्न जनतंत्र देखते हैं और उम्मीद करते हैं कि ये सिर्फ  दिखावे की बाते हैं, उन सिद्धांतवीरों से हमारा कुछ नहीं कहना है। वे अपनी इन उम्मीदों पर टिके रहे ! हम तो उन्हें फासीवाद के सहयोगी की भूमिका में पाते हैं !

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