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मप्र-राजस्थान में मनरेगा का नहीं मिला पूरा लाभ, लोगों में नाराज़गी

फंड की कमी और राजनीतिक विद्वेष की वजह से लाखों लोगों को मनरेगा के माध्यम से काम करने से वंचित किया गया है, जबकि यहां मजदूरी भी बहुत कम है।
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चूंकि देश भर में नौकरी का संकट गहरा रहा है, ग्रामीणों को काम की गारंटी के कार्यक्रम मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत काम की मांग पिछले कुछ सालों में नाटकीय रूप से बढ़ी है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में, दो बड़े राज्य जहां विधानसभा सीटों के लिए जल्द ही मतदान होने वाला है, यहां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जीतने की संभावनाओं पर अंधेरा छा गया है, क्योंकि दोनों में, वास्तव में काम की मांग बढ़ने के बावजूद लोगों को काम नही मिल रहा है। (नीचे चार्ट देखें)

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मध्य प्रदेश में, पिछले साल लगभग 76.5 लाख लोगों ने आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार काम की मांग की थी, लेकिन वास्तव में केवल 61 लाख लोगों को ही काम दिया गया था। दूसरे शब्दों में, कु 15.5 लाख व्यक्तियों - पांच में से एक – को काम न मिलने की वजह से वापस लौटना पड़ा उन्हे खुद काम खोजने के लिए कहा गया। चार्ट में यह भी नोट किया गया कि 2015-16 के बाद से काम की मांग में लगातार बढ़ोतरी हुयी है। फिर भी, काम न मिलने वालों की तादाद में तेजी से वृद्धि हुई है।

राजस्थान में, ऐसी ही स्थिति मौजूद है। पिछले साल लगभग 77 लाख लोगों ने काम की मांग की थी, लेकिन वास्तव में केवल 65 लाख लोगों को ही काम उपलब्ध करा पाए थे। लगभग 11.5 लाख या 15 प्रतिशत लोगों को काम से इनकार कर दिया गया था। राजस्थान में भी काम की मांग तेजी से बढ़ी है।

सबसे गरीब सबसे बुरी तरह पीड़ित हैं

याद रखें कि इस कार्यक्रम के तहत काम करने वाले लोग दोनों राज्यों के विशाल ग्रामीण इलाकों में सबसे गरीब लोग हैं, वे सबसे बेबस लोग हैं, जो ज्यादातर कृषि मजदूर या सीमांत किसान परिवारों से हैं। उनके पास कोई वित्तीय साधन नहीं है, कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, कोई बचत या संसाधन नहीं है। यही कारण है कि वे अंतिम साधन के रूप में, सरकारी प्रायोजित मैनुअल श्रम कार्यक्रम में काम की तलाश करते हैं।

एमपी और राजस्थान सरकारें, जो बड़े व्यापार के लिए व्यवसाय और निवेश के अवसरों को आसान रास्ता मुहैया कराने के बारे में गर्व करती हैं, और बाजार से उधार उठाने में रिकॉर्ड स्थापित कर चुकी हैं, जब मनरेगा के रूप में ऐसे महत्वपूर्ण कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने की बात आती है तो उनकी मुट्ठी सख्त हो जाती है। इसके चौंकाने वाले सबूत नीचे दिए गए चार्ट में देखे जा सकते हैं जो मनरेगा के लिए प्रदान की गई औसत मजदूरी को दिखाता है।

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पिछले साल, दोनों राज्य जो मनरेगा में काम के लिए दैनिक मजदूरी दे रहे थे वह देश में दी जा रही मज़दूरी के औसत से काफी नीचे है। राजस्थान में पूरे देश से सबसे कम दरों में मज़दूरी दी जाती है, प्रति दिन 136 रुपये 84 पैसे जबकि मध्य प्रदेश ने प्रति दिन 165 रुपये 46 पैसे दिए गए हैं। पिछले साल देश भर में औसत मज़दूरी 169 रुपये 45 पैसे थी, जो खुद ही एक शर्मनाक स्तर है।

हालांकि, कानून यह प्रदान करता है कि काम की गारंटी योजना के तहत काम सालाना 100 दिनों के लिए उपलब्ध होना चाहिए, एमपी में यह औसत पिछले साल केवल 47 दिन का थी जबकि राजस्थान में यह 53 दिन था।

दोनों राज्यों में, भुगतान में असामान्य रूप से देरी होती है, बैंक खातों में मजदूरी हस्तांतरण और आधार से जुड़े प्रमाणीकरण के साथ बड़ी समस्याएं हैं। असल में, कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली ही है जो अधिकांश गिरावट का कारण बनी है क्योंकि समय से ज्यादा देरी लोगों को काम की तलाश करने से हतोत्साहित करती है।

केंद्र सरकार से धनराशि के हस्तांतरण में देरी भी, राज्य सरकारों के तहत काम की गारंटी योजना की तबाही  का कारण बन गया है।

देश भर के लोगों को एक करोड़ नौकरियां उपलब्ध कराने के बीजेपी के वादे के संदर्भ में, और मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी), कौशल भारत और भारत में मेक इन इंडिया वाली विभिन्न योजनाओं के वादे का पालन से, लोग दोनों राज्यों की राज्य सरकारों से ही नही, बल्कि केंद्र में मोदी की अगुवाई वाली सरकार से भ्रमित/नाराज़ हैं। इसने किसानों के लिए उनके उत्पादन और कर्ज़ को चुकाने के लिए पैसे की वापसी न होने से उत्पन्न कृषि संकट को हल करने के लिए मोदी सरकार की पूरी अनिच्छा को साबित करती है।

राजनीतिक पंडित और चुनावविद् लोगों के साथ मोदी के विश्वासघात के बारे उनके गुस्से का गलत अनुमान लगा रहे हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि आगामी चुनावों में मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी से लोगों का राजनीतिक अलगाव दिखाई दे रहा है।

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