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'मोदी सरकार का एकमात्र धर्म है पूँजीपतियों को मदद पहुंचाना’

खेतिहर कामगारों का इन तीनों कृषि क़ानूनों को लेकर यही मानना है कि आगे चलकर ये क़ानून खेतीबाड़ी को उनके लिए नुकसानदेह बना देंगे। इसलिए वे किसान आंदोलन का समर्थन करते हैं।
किसान आंदोलन
किसान संगठनों के आह्वान पर 7 जनवरी 2020 को एक विशाल ट्रैक्टर मार्च का आयोजन किया गया

लछमन सिंह सेवेवाला पंजाब खेत मजदूर यूनियन(PKMU) के महासचिव हैं, जो कि उन खेतिहर मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमें से ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर दलित जाति से हैं। पीकेएमयू किसान आंदोलन के सबसे मज़बूत समर्थकों में से एक है, जो भू-स्वामियों और कृषि श्रमिकों के हितों के परस्पर विरोधी होने के सिद्धांत पर एक नए तरीक़े की सोच रखता है।

फ़रीदकोट ज़िले के सेवेवाला गांव में 1972 में पैदा होने वाले लछमन सिंह के माता-पिता के पास सिर्फ़ दो एकड़ ज़मीन थी। लछमन अपने शुरुआती जीवन में चचेरे भाइयों से प्रभावित थे,जो उस नौजवान भारत सभा के सदस्य थे, जो क्रांतिकारी नेता भगत सिंह का एक संगठन था, जिसे 1970 के दशक में पुनर्जीवित किया गया था। और इसी बैनर तले बेहद मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता, मेघराज भगतुआना ने सांप्रदायिकता और राज्य के दमन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था। 9 अप्रैल 1991 को लछमन कॉलेज के दूसरे वर्ष में थे, जब सशस्त्र आतंकवादियों के एक गिरोह ने सेवेवाला गांव पर उस समय हमला कर दिया था, जब उस गांव के लोग एक नाटक देख रहे थे। एक ख़ूनी जंग को अंजाम दिया गया था और इसमें भगतुआना और 17 दूसरे लोगों की मौत हो गयी थी। अगले ही दिन लछमन ने कॉलेज छोड़ दिया और एक सामाजिक कार्यकर्ता बन गये।

एज़ाज अशरफ़ के साथ दिये गये अपने इस साक्षात्कार में लछमन सिंह सेवेवाला बताते हैं कि कृषि के मशीनीकरण ने किस तरह भूमिहीन मज़दूरों की आजीविका को संकट में डाल दिया है, ये तीनों नये कृषि क़ानून उनकी समस्याओं को किस तरह और बढ़ा देंगे, मज़दूरों और सीमांत और छोटे किसानों के बीच का गठजोड़ तेज़ी से क्यों बनता जा रहा है और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर भरोसा करना मुश्किल क्यों लगता है। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार के कुछ अंशः  

यह देखते हुए कि किसानों के हित कृषि मज़दूरों के हितों से अलग होते हैं, इसके बावजूद खेतिहर मज़दूर इन तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में शामिल क्यों हुए ?

मोदी सरकार के इन तीनों कृषि क़ानूनों का नुकसानदेह असर किसानों के मुक़ाबले खेतिहर मज़दूरों पर कहीं ज़्यादा पड़ेगा। पंजाब में तक़रीबन सात लाख भूमिहीन श्रमिक परिवार हैं। इनमें से ज़्यादातर दलित हैं; उनकी आजीविका किसानों के हितों पर ही निर्भर करती है। इसी चलते खेती के तरीक़े में होने वाला एक मामूली बदलाव भी इनके जीवन को व्यापक तौर पर असर डालता है। इन सालों में हमने हरित क्रांति देखी है जिसने हमारी आजीविका भी छीन ली है।

किस तरह ?

हरित क्रांति से खेती का मशीनीकरण हो गया। हरित क्रांति से पहले खेतीबाड़ी के ज़्यादातर कार्य हाथ से ही होते थे। इसके बाद फ़सलों की कटाई करने वाली मशीन, थ्रेशर आ गई, लेकिन तब भी गेहूं की कटाई हाथ से ही की जाती थी। फ़सल के मौसम के दौरान इन मज़दूरों को 40-45 दिनों के रोज़गार का भरोसा मिल जाता था। लेकिन, आज जिस तरह के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, इससे फ़सलों के पकने के 10-15 दिनों के भीतर उन्हें काटा जाना ज़रूरी हो गया है, नहीं तो अनाज ज़मीन पर गिरने लगता है। इस स्थिति ने कटाई करने वाली मशीन के इस्तेमाल को कमोबेश एक मजबूरी बना दिया है।

एक एकड़ गेहूं की फ़सल की कटाई के जिस काम को चार अनुभवी कामगार मिलकर एक दिन में आराम से कर सकते हैं, उसी काम को हार्वेस्टर पलक झपकते कर सकता है; यह मशीन हर दिन एकड़ की एकड़ ज़मीन पर लगी फ़सलों को कटाई कर सकती है। इससे मज़दूर को उपलब्ध रोज़गार के दिनों की संख्या अपने आप सिकुड़कर कम हो गयी है। यह स्थिति मशीनीकरण के अप्रत्यक्ष परिणामों के चलते और भी जटिल हो गई है। मसलन, मजदूरों को अब मुफ़्त में भूसा भी नहीं मिलता, जैसा कि उन्हें पहले मिल जाया करता था। मज़दूरों के अपने पालतू पशुओं के लिए ये मुफ़्त भूसे चारे के काम आते थे।

मजदूरों को ये भूसे मुफ़्त क्यों नहीं मिल पाते  हैं ?

ऐसा खेतिबाड़ी के मशीनीकरण के कारण हुआ है। इससे पहले ऐसा अगर 10 एकड़ के किसी खेत पर मज़दूर फ़सल की कटाई करते तो वे हर एक एकड़ में इस फ़सल को किसी एक जगह पर जमा करते जाते थे। फिर अनाज से भूसे को अलग करने के लिए थ्रेशर को इन दसों जगहों पर ले जाया जा सकता था। रिवाज़ यही था कि थ्रेशर द्वारा अलग और इकट्ठा किया गया अनाज और भूसे के ढेर खेत-मालिक के होते थे। लेकिन थ्रेशर द्वारा दबाव में निष्कासित भूसे का कुछ हिस्सा तक़रीबन 20 से 30 फीट की दूरी पर फैल जाता था। खेतों में से यह इकट्ठा किया हुआ भूसा मजदूरों का होता था।

अब क्या होता है ?

अब जैसे ही फ़सलें पक जाती हैं, तो कंबाइन हार्वेस्टर ले आया जाता है। फ़सल काटने वाली यह मशीन फ़सल के डंठलों को 6-8 इंच ऊपर से काटती है। जैसे ही यह हार्वेस्टर चली जाती है, तो यंत्रों से सुसज्जित चैफ-मेकर यानी भूसा बनाने वाली मशीन ले आयी जाती है। यह मशीन खेत में डंठल को काट देती है, जिससे छः से आठ इंच तक की खूंटी रह जाती है। इस कटे हुए डंठल को भूसे में बदल दिया जाता है, जिसे ट्रॉली में डाल दिया जाता है। मज़दूरों को खेतों से इकट्ठा करने के लिए भूसा बचता ही नहीं है। उन्हें अब अपने मवेशियों के लिए चारा ख़रीदना होता है।

इसी तरह, पंजाब के मालवा इलाक़े को ही ले लें,जहां दो दशक पहले तक कपास एक अहम फ़सल हुआ करती थी। कपास चुनने के लिए बड़ी संख्या में महिलाओं को काम पर रखा जाता था। लेकिन, इसके बाद मालवा में धान लाया गया और कपास की खेती वाली ज़मीनें तेजी से कम होती गयीं और इसके साथ ही मज़दूरों के लिए रोज़गार के अवसर भी कम होते गये।

फिर किसानों ने कपास छोड़कर धान की फ़सल उगाने लगे, यही न?

किसानों को धान की फ़सल उगाने का लालच दिया गया, क्योंकि इसके लिए सरकार कपास के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा क़ीमत देने के लिए तैयार थी। कपास का पौधा बहुत अच्छी ईंधन की लकड़ी देता है। इसका इस्तेमाल खाना पकाने के मक़सद से किया जाता था। गेहूं उगाने को लेकर ज़मीन को साफ़ करने के लिए किसान मज़दूरों से कपास को उखाड़कर अलग करने के लिए कहते थे। कपास की खेती वाले क्षेत्रफल में कमी आने के बाद, न सिर्फ़ रोज़गार के अवसरों में कमी आयी,बल्कि मज़दूर भी मुफ़्त ईंधन के फ़ायदे से वंचित हो गये।

इससे पहले, खेती की ज़मीन की निराई-गुड़ाई के लिए मज़दूर लगाये जाते थे। खरपतवार का इस्तमाल चारे के लिए किया जाता था। अब तो इस खरपतवार से निपटने के लिए खरपतवार नाशक का इस्तेमाल किया जाता है। चिकित्सा अनुसंधान से भी पता चला है कि जिस तरह आज कीटनाशक का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, वह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है। इसके अलावे, भूसा बनाने वाली मशीन जिस पराली को छोड़ देती है, उसे जला दिया जाता है। पर्यावरण पर इसका भयानक असर पड़ा है। इससे पहले, जब कटाई को हाथ से अंजाम दिया जाता था, तब पराली जलाये जाने की यह समस्या नहीं होती थी, क्योंकि मज़दूर फ़सल को जड़ से काट लेते थे।

लेकिन, मशीनीकरण तो हमारे जीवन का एक अपरिहार्य पहलू है। इसका विरोध करने का क्या मतलब?

हम विज्ञान और उस मशीनीकरण के ख़िलाफ़ कतई नहीं हैं, जिसके बारे में हमें लगता है कि वह मज़दूरों के काम के बोझ को कम करने के लिहाज़ से उपयोगी है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या मशीनीकरण से हमारी आजीविका ख़तरे में पड़ सकती है ? क्या सबसे कमज़ोर तबके को इस मशीनीकरण और स्वचालन का बोझ उठाना चाहिए? हमारी दुर्दशा तो देखिए, रोज़गार के अवसर सिकुड़ गये हैं; हम मुफ़्त के चारे और ईंधन खो बैठे हैं; हम इलाज पर ज़्यादा ख़र्च कर रहे हैं। कारखानों का मशीनीकरण हो चुका है, इसलिए निर्माण क्षेत्र ही बच जाता है,जहां अकुशल श्रमिकों को रोज़गार मिल पाने की गुंज़ाइश है। शहरों में हमारे लिए पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं, ऐसे में क्या करें ? ऐसे में खेतिहर मज़दूरो पर कर्ज़ का बोझ बढ़ता ही जा रहा हे। यही वजह है कि ये खतेहिर मज़दूरों की आत्महत्या की दर कमोवेश वही है, जो छोटे और सीमांत किसानों के बीच है।

कृषि क़ानूनों की भयावहता

आपकी नज़रों में इन तीन नये कृषि क़ानूनों को लेकर ख़ास समस्यायें क्या हैं ?

ये तीनों नये कृषि क़ानून खेतिहर कामगारों पर पड़ने वाले हरित क्रांति के भयानक असर को बढ़ा देंगे। मंडियों, ठेके की खेती और आवश्यक वस्तुओं से जुड़े ये तीनों क़ानून एक साथ हमारे मज़दूरों के लिए किसी ज़हरीले त्रिशूल की तरह हैं।

आपने ऐसा क्यों कहा ?

जब खाद्यान्न को मंडियों में ले जाया जाता है, तब मज़दूर अनाज को साफ़ करने, बोरों में उसे डालने का काम करते हैं, इसके बाद वे उन बोरों की सिलाई करते हैं। वे गाड़ियों में खाद्यान्नों से भरी उन बोरियों को लादते हैं, जिन्हें गोदामों में ले जाया जाता है, जहां उन्हें गाड़ियों से उतार लिया जाता है। मज़दूरों को तब काम मिलता है, जब इन खाद्यान्नों को एक राज्य से दूसरे राज्य में पहुंचाया जाता है।

मोगा ज़िले में अडानी (एक परिवार नियंत्रित कारोबारी समूह) भारतीय खाद्य निगम के लिए एक गोदाम चलाता है। खाद्यान्न को मंडियों में नहीं ले जाया जाता है, बल्कि सीधे अडानी के उन भंडार घरों में ले जाया जाता है, जो बेहद यंत्रीकृत है। उसमें सैकड़ों कामगारों की ज़रूरत नहीं है। इससे हमारी रोज़ी-रोटी छीन जायेगी। इसके बाद, ये विशाल कॉरपोरेट्स,अनुबंध खेती का फ़ायदा उठाने के लिए इस बात को तय करेंगे कि किसान क्या पैदा करें। इन कॉरपोरेटो का ध्यान इस बात पर नहीं होगा कि लोगों की ज़रूरतें क्या हैं, क्योंकि होने वाले फ़ायदों से यह होगा कि कौन सी फ़सल उगायी जायेगी।

लेकिन, इससे कामगारों पर क्या असर होगा?

जैसे ही एक बार इन कॉरपोरेटों का खेतीबाड़ी के क्षेत्र में दखल होगा, मशीनीकरण को और ज़्यादा बढ़ावा मिलना शुरू हो जायेगा। इससे मज़दूरों की फौज़ बढ़ेगी। दूसरों पर भी इसका असर पड़ेगा, क्योंकि लम्बे समय में सरकार नहीं, बल्कि निजी खिलाड़ी खाद्यान्नों की ख़रीद करेंगे। इससे उस सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, जिसके ज़रिये मज़दूरों को सस्ता राशन मिलता है। सिर्फ़ पंजाब में ही 36.57 लाख परिवारों के पास राशन कार्ड हैं। जैसे ही एक बार सरकार निजी खिलाड़ियों के हाथों में खाद्यान्न की ख़रीदी सौंप देगी, वैसे ही पीडीएस धीरे-धीरे काम करना बंद कर देगा और खाद्य की क़ीमतों में इज़ाफ़ा हो जायेगा।

दलित-जाट सिख गठजोड़

क्या किसान, मज़दूरों के हित में खड़े हो पाते हैं, ताकि आपका संगठन भी अपनी तरफ़ से उनके आंदोलन का समर्थन कर पाये?

किसानों के बीच अलग-अलग श्रेणियां हैं। एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन वाले किसान हैं। इनमें ऐसे भी किसान हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर तक के खेत हैं। इन किसानों में बड़े-बड़े जमींदार भी हैं। जब कभी बड़े ज़मींदारों ने खेतिहर मज़दूरों पर अत्याचार किया, या दलित महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न किया, छोटे और सीमांत किसानों के संगठन हमारे समर्थन में आगे आये।

क्या बड़े-बड़े किसान मुख्य रूप से जाट सिख नहीं हैं?

हां,बिल्कुल हैं।

क्या छोटे और सीमांत किसानों भी ज़्यादातर जाट सिख किसान नहीं हैं? क्या ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर दलित नहीं हैं ?

हां,आप बिल्कुल सही कह रहे हैं।

जब बड़े ज़मींदार दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न करते हैं, तो क्या जाट सिख जाति के आधार पर छोटे किसान लामबंद नहीं होते हैं ?

आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब उन इलाक़ों में होता है, जहां किसान संगठन नहीं होते हैं। लेकिन,जहां कहीं किसान संगठन हैं, वे जाति के इस तर्क को आपराधिक कार्यों का औचित्य नहीं बनने देते हैं।

ऐसा हमेशा से तो नहीं रहा है। यह बदलाव कब हुआ ?

कहा जाता है कि इस तरह का बदलाव 2002-03 के आसपास आया।

क्या आप मुझे खेतिहर मज़दूरों के समर्थन में आने वाले किसान संघठनों का उदाहरण दे सकते हैं ?

एक ऐसा क़ानून है, जिसमें कहा गया है कि पंचायत की भूमि के एक तिहाई हिस्से पर दलितों को खेती करना चाहिए। हालांकि, अक्सर ज़मींदार अपने द्वारा नामित किसी फ़र्ज़ी दलित व्यक्ति को ज़मीन आवंटित कर देता था और वह ख़ुद ही उस ज़मीन पर खेती करता था। 2013-14 के बाद श्रमिक संगठनों ने उस क़ानून को पूरी मज़बूती के साथ लागू किये जाने की मांग उठायी। हालांकि, ज़मींदार इस दुष्प्रचार में लगे हुए थे कि आज दलित पंचायती ज़मीन की मांग कर रहे हैं, कल तो वे ज़मींदारों की ज़मीन छीनना चाहेंगे। उनका यह दुष्प्रचार जाट सिख समुदाय से जुड़े छोटे किसानों के बीच डर को फैलाने के लिए किया जाता था।

हमने 2016 के अक्टूबर में इस क़ानून को लागू करने के लिए एक ज़बरदस्त आंदोलन चलाया था, उस समय संगरूर ज़िले के झालूर में एक टकराव भी हुआ था। तहसीलदार के दफ़्तर पर विरोध प्रदर्शन करने के बाद लौट रहे मज़दूरों पर क्रूर हमला किया गया। इस हमले में दर्जनों लोग घायल हो गये थे। इसमें माता गुरदेव कौर नाम की एक अनुसूचित जाति की महिला की मौत हो गयी थी। ऊपर से प्रशासन ने उन दलितों को गिरफ़्तार कर लिया था, जो गांव से भाग निकले थे।

यह स्थिति तब थी, जब भारतीय किसान यूनियन (एकता उग्रहान) के अध्यक्ष, जोगिंदर सिंह उग्रहान और उनकी टीम गांव पहुंचे हुए थे। हमने भी पीकेएमयू से अपनी टीम भेजी थी। हमने, जो कुछ हुआ था, उसके बारे में मज़दूरों से पूछा था। उग्रहान ने भी सीमांत और छोटे किसानों से इस बारे में पूछा था।

उग्रहान और उनकी टीम ने स्थानीय गुरुद्वारे में भू-स्वामियों की बैठक बुलायी। उन्होंने उन्हें बताया था कि दलितों के साथ नाइंसाफ़ी हुई है, और उनका संगठन भले ही भू-स्वामियों के हितों का प्रतिनिधित्व करता हो, लेकिन वह दलितों के उत्पीड़न का समर्थन कम से कम इसलिए नहीं कर सकता, क्योंकि बड़े ज़मिंदारों ने सिख धर्म और गुरुओं के उपदेश का उल्लंघन किया था। उनके हस्तक्षेप से दलित धीरे-धीरे झालूर लौट आये। बीकेयू (एकता उग्रहान), कीर्ति किसान यूनियन और इसी तरह के दूसरे किसान संगठनों की मदद से हमने गिरफ़्तार किये गये लोगों को रिहा करने की मांग की और मजदूरों पर जानलेवा हमले के लिए ज़िम्मेदार दोषियों को सज़ा दिलवायी। हमने ये लक्ष्य हासिल कर लिए।

उग्रहान और दूसरे यूनियन नेताओं ने छोटे किसानों को समझाया कि उनके विरोधी दलित और खेतिहर मज़दूर नहीं हैं, बल्कि इनके विरोधी वे साहूकार और सरकार हैं, जो छोटे किसानों के हितों के प्रति उदासीन हैं। उनके हस्तक्षेप से संगरूर में दलितों का उत्पीड़न ख़त्म हो गया।

जाट सिख समुदाय से जुड़े छोटे किसान क्या दलित महिलाओं के यौन शोषण के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई में मज़दूर संगठनों में शामिल हुए हैं ?

2014 में मुक्तसर साहिब ज़िले के गांधार गांव में एक दलित नाबालिग़ का जातिगत जमींदारों द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया था। उन अकालियों से सम्बन्धित होने के चलते उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया जा सका था,जो उस समय सत्ता में थे। हमने उनकी गिरफ़्तारी को लेकर आंदोलन चलाया। बीकेयू (एकता उग्रहान) ने हमारा साथ दिया था। हमारे संगठन के अध्यक्ष, ज़ोरा सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया, क्योंकि वही तब बीकेयू के नेता थे। पुरुष और महिलाओं, दोनों की गिरफ़्तारियां हुई थीं। वह आंदोलन एक महीने तक चलता रहा। जनता के दबाव के चलते दोषियों को गिरफ़्तार किया गया, उन्हें दोषी ठहराया गया और दोषियों को 20 साल के जेल की सज़ा सुनाई गयी।

क्या जाट सिखों और दलितों के बीच खाई कम हुई है ?

कोई शक नहीं कि यह खाई कम हो रही है।

क्या दलित और जाट सिख साथ-साथ खाना खा पाते हैं ?

पहले तो दलितों को जाट सिखों के लिए खाना छूने या पकाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन, अब बहुत हद तक वह वर्जना नहीं रही। दलित महिलाएं  गांवों में भी जाट सिखों के लिए खाना बनाती हैं।

अंतर्जातीय शादी का तो कोई सवाल ही नहीं ?

यह अब भी एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है। लेकिन, सचाई तो यह भी है कि दलित उपजातियों के बीच ही शादियां नहीं होती हैं।

किसानों और मज़दूरों के बीच मज़दूरी को लेकर होने वाले संघर्ष को आख़िर कैसे ख़त्म किया जाये ?

मान लीजिए,मज़दूर अपनी मज़दूरी 50 रुपये बढ़ाने की मांग करते हैं। एक साल में एक छोटे किसान को कितने मज़दूरों की ज़रूरत होती है? बहुत से बहुत 20 मज़दूरों की ज़रूरत होती है,जिन पर साल में औसतन 1,000 का ख़र्च आता है। इसके विपरीत, बड़े ज़मींदार सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों मज़दूरों को रोज़गार देते हैं। मज़दूरी पर होने वाला उनका ख़र्च कहीं ज़्यादा है। हम छोटे किसानों को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि मज़दूरों की मज़दूरी में मामूली बढ़ोत्तरी से उनके हितों को नुकसान नहीं पहुंचता है। हम उन्हें यह भी बताते हैं कि जब उर्वरक, यूरिया, बीज, ट्रैक्टर आदि की क़ीमतें बढ़ती हैं, तो निवेश की लागत में भी तो बढ़ोत्तरी होती है। वे इस बात को समझते हैं। मज़दूरों को बेहतर लाभ दिलाने की हमारी कामयाबी किसान यूनियनों की मदद के बिना मुमकिन ही नहीं हो सकती थी।

मोदी का दमनकारी एजेंडा

क्या आपको इन तीन कृषि क़ानूनों पर चल रहे संघर्ष का हल ढूंढ़ लिये जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है ?

आपका यह सवाल मुझे 2018 में हुई न्यायाधीशों की एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस की याद दिलाता है। उन्हें महसूस हुआ था कि सर्वोच्च न्यायालय बाहरी रूप से काम कर रही किसी संस्था के दबाव में है। मुझे राज्यसभा की वह सीट भी याद आती है, जो सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश को दे दी गयी थी।

क्या आप किसानों और मज़दूरों के हित को लेकर मोदी सरकार पर भरोसा कर पाते हैं ?

मुझे पूरा भरोसा है कि मोदी सरकार दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, मुसलमानों के हित को नुकसान पहुंचाने और कमज़ोर करने के लक्ष्य में लगी रहेगी। वे सिर्फ़ दुनिया के अंबानियों, अडानियों, बेयरों और वालमार्टों को फ़ायदा पहुंचाएंगे। सदियों से दलितों पर अत्याचार तो होते ही रहे हैं। लेकिन, जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, तब से दलितों पर होने वाले इन अत्याचारों में और भी बढ़ोत्तरी हो गयी है। ऊना, भीमा कोरेगांव, हाथरस बलात्कार मामला याद है? मोदी सरकार का कोई धर्म नहीं है। इसका एकमात्र धर्म कॉर्पोरेट्स की मदद करना है।

दिल्ली के बाहर चल रहे विरोध प्रदर्शनों में खेतिहर मज़दूरों की मौजूदगी बहुत ज़्यादा क्यों नहीं हो पायी है ?

मज़दूरों को देहाड़ी मज़दूरी करके अपनी रोज़ी-रोटी का भी जुगाड़ करना होता है। रोज़ाना काम करना उनकी मजबूरी है। उनके लिए मुमकिन नहीं है कि वे जहां रहते हैं, वहां से बहुत दूर जाकर विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो पाएं। दिल्ली आने-जाने का ख़र्चा भी तो है। हमारे संगठन के सदस्य और खेतिहर मजदूर 7 जनवरी से 10 जनवरी के बीच दिल्ली तभी जा पाये, जब किसी ने हमारे उस दौरे का ख़र्चा उठाया था। लेकिन, हम शुरू से ही इस आंदोलन का हिस्सा रहे हैं; ये तीन कानून किस तरह उनके जीवन को बर्बाद कर देंगे, हम यह बताने के लिए गांव-गांव और घर-घर गए।

फिलहाल, हम पंजाब में दलित मज़दूरों के बीच भाजपा के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं। उनका कहना होता है कि यह आंदोलन तो न्यूनतम समर्थन मूल्य और ज़मीन के मुद्दे को लेकर है। इन दोनों मुद्दों का मज़दूरों से तो कोई लेना-देना ही नहीं है। हम मज़दूरों को बता रहे हैं कि ये तीनों कृषि क़ानून पहले मज़दूरों को ही प्रभावित करेंगे। किसान तो तीन-चार साल तक जैसे-तैसे रह लेंगे। मज़दूर तो इतने दिन भी नहीं रह पाएंगे। हम उन्हें उस मोदी पर भरोसा नहीं करने के लिए भी कहते हैं, जिन्होंने 2014 में हर शख़्स को पंद्रह-पंद्रह लाख रुपये देने का वादा किया था। हम उन्हें बताते हैं कि मोदी का इरादा एक ऐसे हिंदू राष्ट्र की स्थापना है, जिसका आधार मनुस्मृति है। दलितों को मालूम है कि मनुस्मृति उनके उत्पीड़न को जायज़ ठहराती है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

‘Modi Government’s Only Religion is to Help Corporates’—Lachhman Singh Sewewala

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